राकेश कायस्थ।
बस्तर के युवा पत्रकार और वीडियो ब्लॉगर मुकेश चंद्रकर की हत्या की सूचना स्तब्ध करने वाली है। लेकिन यह ना तो अपनी तरह की पहली घटना है और ना आखिरी होगी। मुझे सिरसा के निडर पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की याद आ रही है, जिन्हें डेरा सच्चा सौदा के बलात्कारी `संत’ राम-रहीम ने मरवा दिया था।
सच बोलने की कीमत होती है। कॉरपोरेट मीडिया में यह कीमत नौकरी जाने या कहीं और नौकरी ना मिलने तक हो सकती है लेकिन अपने कस्बे या अंचल की खबरें पहुंचाने वालों को इसकी कीमत शारीरिक क्षति या कई बार जान देकर चुकानी पड़ती है।
परंपरागत मीडिया का जो ढांचा है, उसे देखते हुए किसी तरह की उम्मीद बेकार है।
जो थोड़ा-बहुत अच्छा काम हो रहा है, वो सब वैकल्पिक मीडिया में हो रहा है। सोशल मीडिया ने सूचनाओं की दुनिया को पहले के मुकाबला थोड़ा ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया है।
अब ऐसे लोग अपनी समस्या और सवाल दुनिया तक पहुंचा पा रहे हैं, जिन्हें मुख्य धारा के मीडिया में कहीं जगह नहीं मिलती थी।
मैं उन लोगों में नहीं हूं जो ये दावा कर सकते हैं कि वैकल्पिक मीडिया में सबकुछ अच्छा ही हो रहा है। कस्बाई यू ट्यूबर भी दलाल और बेईमान हो सकता है। लेकिन चुनने का विकल्प दर्शक के पास है। कंटेट सैंपल करें और अच्छा लगे तो उसके प्रसार में मददगार बने।
एडिटर्स गिल्ड और पत्रकारिता से जुड़े बाकी बड़े संगठनों का यह नैतिक दायित्व है कि मुकेश चंद्रकर जैसे लोगों के समर्थन में खड़े हों। हालांकि एडीटर्स गिल्ट की तरफ से बयान जारी हुआ है।
लेकिन उनसे उम्मीद की जा सकती है कि ऐसी कोई व्यवस्था बनाने का प्रयास करें जिससे बिना संसाधन के जान जोखिम में डाल रहे पत्रकार या उनके आश्रितों को किसी किस्म क्षति होने पर पब्लिक फंडिंग से मदद पहुंचाई जा सके।
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