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मजीठिया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी संवैधानिक माना, पत्रकार ने हक मांगा तो न गरिमा बची, न बच्चों की शिक्षा, लड़े तो मिली तारीखें लंबा संघर्ष

मीडिया            Sep 13, 2023


 

 ममता मल्हार।

आहत होती मानवीय गरिमा, बच्चों से छिनता शिक्षा का अधिकार, रोजगार के अधिकार का हनन सम्मानजनक जीवन जीने के हक का हनन। सब कुछ है अपने हक के लिए मजीठिया वेज बोर्ड के की लड़ाई लड़ने वाले पत्रकारों की इस कहानी में। मजीठिया वेज बोर्ड ने प्रिंट मीडिया और एजेंसी के पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए न्यूतम वेतन तय कर कई सिफारिशें लागू कीं। लेकिन जब पत्रकार अपना हक लेने मैदान में उतरे तो कोर्ट की तारीखें और मीडिया मालिकों की मनमानी ही सामने आई। आलम यह कि सर्वोच्च न्यायालय तक आदेश देता रहा मगर नजरअंदाजी चलती रही। 13 साल से ज्यादा के इस लंबे संघर्ष में अब तक कई पत्रकार जीवन की जंग हार गए। केस लड़ने के लिए पैसे नहीं थे कईयों ने खुद केस लड़े जीवनबीमा के पॉलीसी पर कर्ज लिए, दूसरे काम शुरू किए। कुछ पत्रकारों को दिल्ली के कुछ वकीलों का भी साथ मिला। इनमें प्रशांत भूषण प्रमुख हैं।  1955 के पत्रकार एक्ट से लेकर अब तक के तमाम बोर्डों में और बदले हुए नियमों में पत्रकार की स्थिति दिहाड़ी मजदूर की हो चुकी है। कई पत्रकारों से बातचीत कर यह रिपोर्ट तैयार की गई है। इसे पढ़ें 

मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भारतीय संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में से एक है। इसका मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के गरिमापूर्ण जीवन जीने का अपरिहार्य अधिकार है। वे राज्य के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों से भी समान सम्मान का दावा करने के हकदार हैं।

यह एक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है जहां प्रत्येक व्यक्ति के साथ सम्मान और समानता का व्यवहार किया जाता है। गरिमा किसी व्यक्ति का अधिकार है कि उसे अपने लिए महत्व दिया जाए और उसका सम्मान किया जाए, सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए और अपना जीवन ऐसे तरीके से जीया जाए जिससे उसकी गरिमा बरकरार रहे।

पत्रकारिता की दुनिया एक ऐसी दुनिया है कि पूर्ण समर्पण से काम करने के बाद भी पत्रकार को न तो समान वेतन मिल पाता है न समान काम। जब आर्थिक समानता प्रभावित होती है तो एक पत्रकार के पूरे परिवार की गरिमा तो प्रभावित होती ही है क्योंकि न बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल पाती है न परिवार का ठीक से भरण-पोषण हो पाता है और न परिवार समाज में एक सामान्य सम्मानपूर्वक जीवन जी पाता है।  

 

संवैधानिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में चौथा स्तंभ माने जाने वाले पत्रकार दिखाई देते हैं। पत्रकार जो सबके अधिकारों के हक की आवाज वाजिब जगह पर पहुंचाता है। पत्रकार सामाजिक व्यक्ति तो होता है मगर समाज के प्रति अपने दायित्व को कुछ अलग तरीके से समझता है।

वही पत्रकार जब अपने अधिकारों की मांग मीडिया मालिकों से करता है तो उसके और उसके परिवार के सामने ही गरिमापूर्ण जीवन जीने का संकट तो खड़ा हो ही जाता है, उन्हें रोजी-रोजगार के लिए भी मोहताज होना पड़ता है।

अपने अधिकारों को लेकर जब पत्रकार मुखर हुआ उसने अपनी अभिव्यक्ति को आवाज देने की कोशिश की तो उसके जीने के अधिकारों का भी हनन हुआ। नौकरी चली गई।

संघर्ष का आलम यह रहा कि कई पत्रकार अपने हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस दुनिया से ही विदा हो गए। पीछे परिवार रह गए संघर्ष करने के लिए। उनमें से कुछ के परिवार आज भी यह लड़ाई लड़ रहे हैं तो कुछ गुमनामी में खो गए।

लंबे समय से मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे वरिष्ठ पत्रकार मयंक जैन कहते हैं

आपको हैरानी होकर जानकर कि इस लड़ाई में पत्रकारों से ज्यादा गैर पत्रकार हैं। जिनके बारे में कहा जाता है कि वे संपादकीय से अलग लोग हैं। वे अपने अधिकार को लेकर ज्यादा जागरूक हैा। जबकि इसे लड़ना चाहिए था पत्रकारों को। जो दुनियाभर के अधिकारों की बात करते हैं लेकिन जब खुद के अधिकारों की बात आती है तो चुप्पी साध लेते हैं। निराशा भरा पहलू है ये कि जिनको ये लड़ना चाहिए था वे नहीं लड़े।

मयंक सवाल करते हैं क्या एक गरिमामय जीवन जो कि संवैधानिक मूल्य है और हमें बतौर एक नागरिक अधिकार के  रूप में संविधान ने दिया है वह भी जीने का पत्रकार को अधिकार नहीं है।

2015 में लगभग 80 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लगीं न्यूज एजेंसी और समाचार मालिकों के खिलाफ जिन्होंने कंप्लाइंस नहीं कराया। ढाई साल चलने के बाद संस्थानों को अवमानना का दोषी तो नहीं माना लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समाचार पत्र और एजेंसियों में काम करने वाले पवकारों और गैर पत्रकारों को मजीठिया वेतनमान दिया जाएगा। दूसरा कोई मैकेनिज्म नहीं दी जायेगी।

80 याचिकाओं में करीब 2 हजार लोग थे। अलग-अलग अवमानना याचिकाएं लगाई गईं थीं। मध्यप्रदेश के किसी भी संस्थान ने लागू नहीं किया। मप्र सरकार ने स्टेटस रिपोर्ट सौंपी थी। उसमें एक क्लॉज रखा गया 20 जे।

एकनॉमिक्स टाईम्स के कुछ कर्मचारी कोर्ट पहुंच गए थे कि मजीठिया अगर आ गया तो हमारी सेलरी कम हो जाएगी। लेकिन अखबार मालिकों ने इसे बचाव का रास्ता बना लिया। जबरन साईन करवा लिए कर्मचारियों से। जिनका वेतन 50 हजार होना था उनका 10 हजार कर दिया।

मजीठिया पत्रकारों का न्यूनतम वेतन है। अखबार में काम करने वाले पत्रकारों के लिए अच्छा वेतनमान है/ जो कि किसी भी सामान्य इंसान के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए पर्याप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी संवैधानिकता को भी माना। कोई पत्रकार कोई संगठन इस पर नहीं बोल रहे। बड़ा चुनौतिपूण है। कानून ये पत्रकारों के संरक्षण के लिए ही लाए गए थे पर दबाव इतना है कि यह लागू नहीं हो पा रहा।

याचिका लगने के बाद सबसे पहले क्या समस्यायें आईं इस सवाल के जवाब में मयंक जैन बताते हैं कि याचिका लगते ही कई लोगों के हजार-हजार, 800 किलोमीटर दूर ट्रांसफर कर दिए गए। कई लोगों को फायर करके निकाल दिया गया ताकि इनको कहीं और नौकरी न मिले। सुप्रीम कोर्ट से फैसला आने के बाद भी पत्रकार दो तरफा लड़ाई लड रहे रहे हैं। शासन से भी लड़ना है क्योंकि सारे कंप्लाइसेंस सरकार को ही दिलाना है।

कोर्ट के आदेश को कंप्लाइस कराने के लिए कोर्ट जाना पड़ता है। कलेक्टर को बोलते हैं तो कहते हैं कि तहसीलदार को दे दिया। अब सवाल ये है कि बड़े मीडिया संस्थान से तहसीलदार वसूली कर लेगा।

चुनौतियां तो लगातार लगी हुई हैं, लगातार लड़ाई जारी है बडा बदलाव ये है कि जो कर्मचारी संपादक से कुछ नहीं कह सकता था वह मालिक से अधिकार की लड़ाई लड़ रहा है। जब भी पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा तो यह जरूर लिखी जाएगी कि आर्थिक परेशानियां इस हद तक आईं कि बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई। कई पत्रकारों को अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में एडमीशन करवाना पड़ा। कई पत्रकारों ने जीवनयापन के लिए दूसरे उपक्रम अपनाए। कईयों ने ठेले तक लगाए। कुलमिलाकर गरिमा से जीवनयापन का संकट सबसे बड़ा खड़ा हो गया थाद्य

लड़ाई लंबी है।

सिस्टम सबसे बड़ी बाधा है, फंडिंग की समस्या आती है। इनके खिलाफ लड़ने वाले वकील भी नही मिल पाते। जो घर मुश्किल से चला रहा है वह वैधानिक लड़ाई में कितना खर्च कर पाएगा।

हालांकि प्रशांत भूषण जेसे कुछ लोग रहे जिन्होंने मिनीमम फीस में केस लड़े।

संस्थानों के पास पैसा है।

नए लेबर एक्ट का पुराने केसों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इसमें बहुत कुछ बदल जाएगा। एक तरह से पूंजिपितयों को फायदा पहुंचाने का रास्ता निकाला गया है।

गरिमापूर्ण जीवन जीने के साथ-साथ पत्रकारों को अपने काम से सबंधित मसलन किताब संसाधन आदि जुटाने पड़ते हैं।

पत्रकारों की सेकेंड लाईन तैयार नहीं हो पा रही है।

अगर लड़ाई सामूहिक रूप से लड़ी जाती तो कोर्ट कचहरी की नौबत ही नहीं आती। मीडिया मालिकों का अहंकर आड़े आ गया।

देनदारियों से बचने के लिए मीडिया मालिकों ने रास्ते निकाले। कई लोगों ने समझौता नहीं किया। कई लोग लड रहे हैं लडना भी चाहिए संवैधानिक अधिकार है।

गरिमापूण जीवन जीने का अधिकार सभी को है। पत्रकार को भी अधिकार है कि वह अपने परिवार को भी क्वालिटी टाईम दे। बच्चों को अच्छी शिक्षा दे।

उसे इतना वेतन तो मिलना ही चाहिए कि वह और उसका परिवार गरिमापूर्ण जीवन जी सके।

पत्रकारों के पास कोई संवैधानिक अधिकार नहीं हैं लेकिन लोग उन पर विश्वास करते हैं। उन्हें भरोसा होता है कि उनकी बात सही जगह पहुंच गई

प्रेस काउंसिल जैसे सारे संगठन सब मौन हैं। सरकार को मध्यस्थता करनी चाहिए लेकिन सरकार ने एक्शन ले रही है न मध्यस्थ्ता कर रही है। निराश कोई नहीं है।

नौकरी गई तो उन्होंने दूसरा कुछ कर लिया। कई साथी दिवंगत हो गए लेकिन उनके परिवार लड़ रहे हैं।

इनमें जसवंत बंसल,दिनेश मेहरा, बमलेश शर्मा, आकाश सक्सेना जैसे पत्रकार साथी हैं जो लड़ते-लड़ते जीवन की लड़ाई हार गए। पर उनके परिवार इस लड़ाई को लड़ रहे हैं।

केशव दुबे, मयंक जैन, अजय गोस्वामी हरिओम शिवहरे, प्रकाश मालवीय।

इस लड़ाई में कई पत्रकार जीवन की जंग हार गए उनमें अमित नूतन सक्सेना, जसवंत बंसल, दिनेश मेहरा, बमलेश शर्मा, आकाश सक्सेना जैसे पत्रकारों के नाम हैं/ इनमें से जसवंत बंसल और दिनेश मेहरा के परिवार अभी-भी यह लड़ाई लड़ रहे हैं।

मजीठिया वेज बोर्ड है क्या:-केंद्र सरकार ने 2007 में छठे वेतन बोर्ड के रूप में न्यायाधीश कुरुप की अध्यक्षता में दो वेतन बोर्डों (मजीठिया) का गठन ‎किया। एक श्रमजीवी पत्रकार तथा दूसरा गैर-पत्रकार समाचार पत्र कर्मचारियों के ‎लिए कुरुप की अध्यक्षता में दो वेतन बोर्डों (मजीठिया) का गठन ‎किया। एक श्रमजीवी पत्रकार तथा दूसरा गैर-पत्रकार समाचार पत्र कर्मचारियों के ‎लिए। लेकिन कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस के. नारायण कुरुप ने 31 जुलाई 2008 को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 4 मार्च 2009 को जस्टिस जी. आर. मजीठिया कमेटी के अध्यक्ष बने। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 31 ‎दिसंबर 2010 को सरकार को सौंपी।इस कमेटी ने पत्रकारों के वेतन को लेकर मापदंड निर्धारित किए।  तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने साल 2011 में कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए इसे लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी। इसके खिलाफ अखबार मालिकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. कोर्ट ने फरवरी 2014 में कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का आदेश दिया। 

आदेश के बावजूद संस्थानों ने इसे लागू नहीं किया, जिसके खिलाफ विभिन्न अखबारों और समाचार एजेंसियों में काम करने वाले कर्मचारियों ने कर्मचारी अवमानना की याचिका दायर की। कुल 83 याचिकाएं आईं, जिनमें करीब 10 हजार कर्मचारी शामिल थे। 

रोशनी की किरण

इसी काफिले का एक हिस्सा मुजफ्फरपुर के कुणाल प्रियदर्शी थे जिन्हें छह सालों की कानूनी लड़ाई के बाद, 3 सितंबर 2022 को, प्रभात खबर (न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड) ने पत्रकार कुणाल प्रियदर्शी के खाते में उनके बकाया वेतन का भुगतान कर दिया।

बिहार के मुजफ्फरपुर के रहने वाले कुणाल ने प्रभात खबर के खिलाफ दिसंबर 2017 में लेबर कोर्ट में केस दायर किया था।  6 जून 2020 को उनके पक्ष में फैसला आने के बाद भी कंपनी ने भुगतान नहीं किया।  वह दोबारा लेबर कोर्ट गए जहां मामले को सिविल कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया।  23 जुलाई 2022 को एक बार फिर से उनके पक्ष में फैसला आया। 

कुणाल देश के पहले ऐसे पत्रकार बने जिन्हें मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत बकाया वेतन और उस पर आठ प्रतिशत ब्याज दर के साथ भुगतान हुआ है।  उन्हें कुल 23 लाख 79 हजार रुपए मिले, साथ ही कंपनी अलग से 2 लाख 71 हजार रुपये उनके ईपीएफ खाते में डालेगी। 

इस फैसले के बाद देश में मजीठिया वेतन बोर्ड से जुड़े मामले में केस लड़ रहे अन्य पत्रकारों की उम्मीदें भी बढ़ गई हैं। 

40 वर्षीय कुणाल ने 13 जुलाई 2011 को प्रभात खबर मुजफ्फरपुर यूनिट में बतौर न्यूज़ राइटर नौकरी की शुरुआत की थी। पांच साल में सबसे अच्छा रिपोर्टर मानते हुए कंपनी ने उनके वेतन में विशेष बढ़ोतरी भी की। लेकिन इसी बीच आए एक नए संपादक द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा। इसकी शिकायत उन्होंने अखबार के वरिष्ठ कर्मचारियों को करते हुए 3 दिसंबर 2017 को इस्तीफा दे दिया लेकिन कंपनी ने न ही इस्तीफे को स्वीकार किया और न ही उन्हें वापस नौकरी दी।

दिसंबर 2017 में कुणाल ने मुजफ्फरपुर लेबर कमिश्नर ऑफिस में शिकायत की. जून 2019 में यह मामला लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर में ट्रांसफर हुआ। 8 फरवरी 2020 को उनके पक्ष में आदेश आया और 6 जून 2020 को आदेश की घोषणा की गई। कोर्ट ने कंपनी को दो महीने के अंदर भुगतान करने को कहा, लेकिन कंपनी ने कोई भुगतान नहीं किया।

इसके बाद कुणाल ने औद्योगिक विवाद अधिनियम के सेक्शन 11(10) के तहत लेबर कोर्ट में अवार्ड के प्रवर्तन के लिए आवेदन किया। यहां से मामला सिविल कोर्ट मुजफ्फरपुर भेजा गया, जहां 7 फरवरी 2021 से सुनवाई शुरू हुई। सुनवाई के दौरान कंपनी ने प्रवर्तन की प्रक्रिया पर सवाल उठाए, लेकिन कोर्ट ने पत्रकार की दलीलों को सही मानते हुए 23 जुलाई, 2022 को प्रवर्तन के आवेदन को स्वीकार करते हुए अवार्ड राशि की वसूली प्रक्रिया शुरू करने का फैसला दिया।

प्रभात खबर ने अभी तक कुणाल के इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया है। इस वजह से कुणाल कहीं और भी नौकरी नहीं कर पाए। कंपनी को भेजे नोटिस में उन्होंने कहा है कि नौकरी पर फिर से बहाल किया जाए क्योंकि अभी तक उनके इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया है. हालांकि इस पर अखबार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया।

आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण खुद की पैरवी

कुणाल जब नौकरी कर रहे थे तब वह मुजफ्फरपुर में रहते थे, लेकिन नौकरी छोड़ने के बाद कोई कमाई नहीं होने के कारण वह अपने गांव लौट गए। उनकी आठ व नौ साल की दो बेटियां, 4 साल का एक बेटा और पत्नी उनके साथ गांव में ही रहते हैं। उन्होंने घर चलाने के लिए एलआईसी से 2.5 लाख रुपए का लोन लिया और करीब दो लाख रुपए अपने रिश्तेदारों से लिए।

कुणाल बताते हैं, “पैसे नहीं होने की वजह से खुद पैरवी करने का निर्णय लिया। लेबर कोर्ट से लेकर सिविल कोर्ट तक हर जगह खुद ही पैरवी की। जब मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत कोर्ट में चल रहे मामलों को पढ़ा, तो पाया कि यह केस बहुत लंबे चलते हैं। इतने लंबे समय तक वकील करना मुमकिन नहीं था क्योंकि खुद के खाने के लिए लोन लिया है तो वकील को कैसे भुगतान करते।”

वे कहते हैं, “पत्रकार हैं तो पहले कंपनी के लिए पढ़ते थे अब खुद के लिए पढ़ा। इसके बाद मजीठिया वेतन बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए सभी केसों को पढ़ा, और फिर पैरवी की।

वह कहते हैं कि उन्होंने कई अन्य जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन भी किया, लेकिन इस्तीफा स्वीकार नहीं होने के कारण दूसरी नौकरी नहीं मिल पाई। दूसरी कंपनी सैलरी स्लिप और एनओसी मांगती थी, जो उनके पास नहीं थे। ऐसे में नौकरी नहीं मिली। दूसरा मजीठिया वेतन बोर्ड का केस लड़ने के कारण कोई भी अखबार कुणाल को नौकरी नहीं देना चाहता था। उन्होंने प्रभात खबर को तीन बार नौकरी देने के लिए नोटिस भेजा।

मुजफ्फरपुर जिले से 40 किलोमीटर दूर मेघरतवारा, कुणाल का गांव है। वह केस के सिलसिले में गांव से आया-जाया करते थे। वह बताते हैं, “नौकरी छोड़ने के बाद परिवार ने कभी कुछ नहीं मांगा। छोटे-छोटे बच्चे हैं लेकिन उन्होंने कभी जन्मदिन हो या त्यौहार, हमसे कोई डिमांड नहीं रखी। वह हमेशा कहते थे कि जब आप ऑफिस जाएंगे तो हम जन्मदिन पर पार्टी करेंगे. सबसे छोटा 4 साल का बेटा पूछता है पापा आप ऑफिस नहीं जाते हैं क्या?”

कोरोना काल के दौरान साल 2021 में नौकरी छोड़ने को लेकर कुणाल डिप्रेशन का भी शिकार हो गए थे। करीब 6 महीने दवा लेने के बाद ठीक हुए।

कुणाल कहते हैं, “जब केस चल रहा था तब प्रभात अखबार की तरफ से एक ऑफर दिया गया था। समझौते की प्रक्रिया के दौरान कंपनी ने कहा कि वह सात लाख रुपए और 40 हजार महीने का वेतन देगी। लेकिन उसके लिए नए सिरे से कॉन्ट्रैक्ट करना होगा। लेकिन हमने कहा कि वेज बोर्ड पर बहाली की बात करिए तो हम ज्वाइन कर सकते हैं, लेकिन वह हुआ नहीं”

मजीठिया वेतन बोर्ड के हिसाब से 2017 में कुणाल का वेतन 76 हजार रुपए होना चाहिए था लेकिन कंपनी केवल 40 हजार की पेशकश कर रही थी। जिस पर लेबर बोर्ड के जज ने समझौता कराने से इंकार कर दिया। मई 2022 में एक बार फिर से कंपनी ने कुणाल को ऑफर दिया कि इस बार आठ लाख रुपए देने और उनसे नौकरी व केस, दोनों को छोड़ देने के लिए कहा।

कुणाल का कुल वेतन साल 2011 में 7 हजार रुपए था, जो 2017 में बढ़कर 27 हजार हो गया। जबकि मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत पत्रकार को 76 हजार रुपए महीना मिलने चाहिए थे।

जून 2023 में मजीठिया के बाद इपीएफ की लड़ाई भी जीते कुणाल और उन्हें 10 लाख रुपए मिले।

ऐसा नहीं है सिर्फ कुणाल को इन सभी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। देश में कई पत्रकार मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत वेतन की मांग को लेकर केस लड़ रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से कई सालों तक केस लड़ने के बावजूद पत्रकारों का भुगतान नहीं हो पाया है। वहीं कुछ मामलों में पत्रकारों के हक में फैसला आने के बावजूद भी उन्हें पूरा पैसा नहीं मिला है।

ऐसा ही एक मामला महाराष्ट्र के भंडारा जिले के पत्रकार महेश साकुरे का है. उन्हें मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत 2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पैसा तो मिला, लेकिन अभी तक पूरा पैसा नहीं मिल पाया है। इस बात को लेकर वह फिर से बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचे हैं।

महेश 1996 में भंडारा जिले में बतौर टेलीप्रिंटर ऑपरेटर, लोकमत अखबार के साथ जुड़े. 1998 में कंपनी ने उन्हें मानव सेवा ट्रस्ट के साथ जोड़ दिया लेकिन काम वह अखबार में ही करते थे। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो कंपनी ने उन्हें साल 2000 में, एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर लोकमत मीडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में रख लिया।

जब उनका कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने वाला था, तब उन्होंने जून 2000 में औद्योगिक न्यायालय में शिकायत दर्ज की। जुलाई 2000 में फैसला आया, जिसमें महेश को नौकरी देने को कहा गया, लेकिन कंपनी ने नौकरी पर नहीं रखा। इसके खिलाफ पत्रकार ने एक क्रिमिनल केस, लेबर कोर्ट नागपुर में दायर किया।

केस चल ही रहा था कि कंपनी ने 2001 में महेश को वापस नौकरी पर रख लिया तब से लेकर साल 2011 तक महेश को बतौर वेतन सिर्फ 2000 रुपये मिलते थे. इसमें से ही 240 रुपए उनके पीएफ के भी कटते थे। करीब 10 साल काम करने के बाद 2011 में कंपनी ने उनके वेतन को बढ़ाकर 10 हजार रुपए कर दिया।

महेश ने केस में मांग रखी कि उन्हें प्लानर की जगह, स्थायी नौकरी और छह घंटे काम का समय दिया जाए। लोकमत अखबार ने पहले बॉम्बे हाईकोर्ट में महेश के केस को चुनौती दी, जहां उन्हें हार मिली, फिर हाईकोर्ट की डबल बेंच ने भी महेश के हक में फैसला सुनाया। इसके बाद 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी महेश के हक में फैसला सुनाया।

महेश ने मजीठिया वेज बोर्ड के तहत 70 लाख रुपए की मांग की थी, लेकिन कंपनी ने कहा कि सिर्फ 30 लाख रुपए ही बकाया हैं। इसमें से भी सिर्फ 13 लाख रुपए ही पत्रकार को मिले, बाकी काट लिए गए। इस कटौती के खिलाफ वह फिर से हाईकोर्ट में केस लड़ रहे हैं। वह कहते हैं, “अखबार ने पूरा भुगतान नहीं किया है जिसको लेकर हाईकोर्ट में केस दायर किया है।”

हालांकि उनकी अन्य मांगों को कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मान लिया है। उन्हें प्लानर का पद दे दिया गया, साथ ही अब उनका वेतन मासिक 45 हजार रुपए हो गया है। स्थायी होने के बाद अब वह छह घंटे ही काम करते हैं।

महेश कहते हैं, “सैलरी कम होने के कारण वह परिवार के लिए कुछ कर नहीं पाते थे। बच्चों को अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा पाए, और जितना होता था उसी पैसों में अपना गुजारा करते थे। परिवार में पिता थे तो उनकी मदद से गुजारा हो जाता था।

हिमाचल प्रदेश में अमर उजाला द्वारा एक कर्मचारी को टर्मिनेट किए जाने के मामले में, लेबर कोर्ट ने 31 अगस्त 2022 को मुआवजा देने का आदेश दिया। कोर्ट ने दो लाख रुपए का मुआवजा देने के लिए कहा है.

कंपनी ने मनोज कुमार को 2016 में निकाल दिया था। कंपनी का कहना था कि वे कंपनी के नहीं बल्कि ठेकेदार के कर्मचारी हैं।

मनोज के वकील रविंद्र अग्रवाल कहते हैं, “कोर्ट ने माना है कि वह कंपनी के कर्मचारी हैं। इसलिए गलत तरीके से निकाले जाने को लेकर दो लाख रुपए का मुआवजा देने को कहा। साथ ही इससे यह भी साबित होता है कि वे अमर उजाला के कर्मचारी हैं। अब उन्हें मजीठिया वेज बोर्ड के तहत वेतनमान का लाभ व बकाया एरियर भी मिलेगा।”

देश में हजारों की संख्या में पत्रकार समाचार संस्थानों की मनमानी के खिलाफ केस लड़ रहे हैं। पांच से सात साल बीत जाने के बावजूद इन पत्रकारों के मामलों में आदेश नहीं आए हैं। जिन मामलों पर आदेश आया, उनके खिलाफ भी समाचार संस्थान कोर्ट चले गए ताकि वह पत्रकारों को भुगतान करने से बच जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने दो बार संस्थानों को मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत पत्रकारों को भुगतान करने का आदेश दिया, लेकिन फिर भी संस्थान पत्रकारों को भुगतान नहीं कर रहे हैं।

कुजमिलाकर अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले ज्यादातर पत्रकारों को तारीख पर तारीख ही मिल रही है। कुनाल जैसे एक-दो लोग इस मामले में भविष्य में नजीर बनेंगे लेकिन जिनके हिस्से हक और न्याय आया ही नहीं वे लड़ रहे हैं पर लड़ाई कितनी लंबी चलेगी उन्हें भी नहीं पता। आजीविका और परिवार को एक गरिमामल जीवन देने के लिए कई मजीठिया लड़ाके दूसरे काम भी कर रहे हैं।

 एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं तारीखों का आलम यह है कि किसी को श्रम विभाग से मिल रही हैं तो किसी को श्रम न्यायालय से। शायद वो खुशकिस्मत होंगे जिन्हें हाई कोर्ट से तारीख मिल रही है। वो भी तब जब बामुश्किल पांच फीसद लोगों ने साहस दिखाया और कोर्ट के सुझाए रास्ते को अपनाते हुए वेजबोर्ड की रिपोर्ट की संस्तुतियों के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ मांगा, लेकिन 10 साल बाद उन्हें मिला क्या? मजीठिया वेजबोर्ड को लागू हुए पूरे दस साल से ज्यादा हो गए। मतलब यह कि, 11-11-2011 को लंबी, झेलाऊ और उबाऊ लड़ाई लड़ने के बाद पत्रकारों/गैर पत्रकारोंके लिए गठित वेज बोर्ड ने कानूनी जामा पहना। इसके पहले के सभी के सभी बोर्ड पालेकर, बछावत, मणिशाना सहित अन्य को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया।

अब मजीठिया वेजबोर्ड की ही बात करें तो कम 'पापड़ नहीं बेलने' पड़े इसे कानूनी रूप हासिल करने में। चुनाव सिर पर होने के कारण मनमोहन सरकार ने समय से पहले वेज़ बोर्ड का गठन कर दिया। अर्से बाद रिपोर्ट सौंपी गई तो हीला-हीवाली के बाद यह सदन के पटल पर रखी गई।

लोकसभा-राज्यसभा से पारित होने के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हुए और बन गया कानून। इसी बीच मालिकान सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये।

याद रहे पत्रकार से लेकर संपादक तक श्रमजीवी पत्रकार हैं इनके लिए श्रम न्यायालय है ये भी सीधे श्रम न्यायालय, उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकते। उक्त न्यायालय याचिका खारिज कर देंगे।

पर मालिकान सीधे उच्चतम न्यायालय चले गए और याचिका भी खारिज नहीं हुई। बहरहाल वेजबोर्ड के खिलाफ़ मालिकों की याचिका न ही मंजूर हुई। हर बार मुंह की खाने के बाद तमाम अधिकारों के रास्ते जैसे आदेश को चुनौती, पुनरीक्षण, बड़ी बेंच की शरण में जाना तथा अवमानना के दायरे से गुजरी।

थक-हार कर सर्वोच्च न्यायालय ने वेजबोर्ड को लागू करने की जिम्मेदारी विभिन्न विभागों के श्रम विभाग को सौंप दी। यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन अब श्रम विभाग कराएगा। जो श्रम विभाग अपने नाम पर बने श्रम कानूनों का पालन नहीं करा पा रहा है, श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 (काम के घंटे, काम का प्रकार) नहीं लागू करा पा रहा है अब वह वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू कराएगा।

यहां यह बताना जरूरी है कि जून 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों के श्रम सचिवों को जिम्मेदारी सौंपी थी।

श्रम सचिव ने अपने विभागीय अधिकारियों (श्रम आयुक्त, उप श्रम आयुक्त और सहायक श्रम आयुक्त को पावर  दे दी। आम बोलचाल की भाषा में अपना दायित्व उन्हें सौंप दिया।

अब शुरू होती है श्रम विभाग की कार्यशैली-कार्यप्रणाली। अव्वल तो विभाग के अधिकतर अधिकारियों को पता ही नहीं कि मजीठिया वेजबोर्ड है क्या बला। साल दो साल यहां भी चलता है सुनवाई का नाटक। अंत में विभाग भी इसे औद्योगिक विवाद मान मामले को श्रम न्यायालय के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।

जब वेजबोर्ड की सिफारिशें तमाम दलीलों को खारिज कर कानून का रूप धारण कर चुकी हैं तो औद्योगिक विवाद कहां से हो गया।

श्रम विभाग को ही सीधे RRC जारी करनी चाहिए।

प्रसंगवश एक मामला एक बड़े समाचार पत्र समूह का। इसके सभी कर्मचारी न जाने कैसे किसी कानून जैसे श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 या श्रम कानून की धारा 20-J की चपेट में आ गए।

एक कर्मचारी ने साहस कर मजीठिया वेतन बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए आवेदन किया।

श्रम विभाग ने उसके मामले को खारिज कर दिया। वह हाई कोर्ट गया। हाई कोर्ट ने उसके मामले को श्रम सचिव उत्तराखंड को भेज दिया।

से मामला चला था वहीं आ गया। सुप्रीम कोर्ट ने वेजबोर्ड को लागू करने की जिम्मेदारी विभिन्न विभागों के श्रम सचिव को सौंपी।

मामला हाई कोर्ट पहुंचा, हाई कोर्ट ने श्रम सचिव को सुनकर हल करने को कहा।

ऐसे ही राष्ट्रीय सहारा के तीन कर्मचारियों को नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा श्रम विभाग से श्रम न्यायालय पहुंचा। कर्मचारियों की जीत हुई।

अंतिम तारीख के कुछ दिन पहले प्रबंधन उनमें से एक कर्मचारी के वाद पर श्रम न्यायालय के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है।

हाईकोर्ट ने उक्त मामले को श्रम विभाग के हवाले कर दिया। दो तीन साल से यह मामला श्रम विभाग में है।

अब जब श्रम विभाग ने अब गेंद न्यायपालिका के हवाले कर दिया तो तारीखों के मकड़जाल में इसे भी उलझना था।

बहरहाल. अब देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले की समीक्षा जिला स्तर की अदालतें करेंगी। यानी साल-छह महीने मामला श्रम न्यायालय में चलेगा, फैसला आएगा, उस फैसले के खिलाफ अंतिम तिथि पर नियोक्ता हाईकोर्ट जाएंगे।

हो सकता है कि दो-तीन साल वहां लग जाए और जब फैसला आये तो नियोक्ता उस फैसले के खिलाफ तय अवधि बीतने की अंतिम तारीख में डबल बेंच में चला जाए। मामला हाई कोर्ट की हद से निकले तो कोई भी एक पक्ष जो समझे कि मेरे साथ अन्याय हुआ  वह तय तारीख के अंतिम तारीख पर सुप्रीम कोर्ट चला जाए तो। यानि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट। यहाँ यह भी बताना मौजू है कि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना का मामला सुप्रीम कोर्ट में लगभग दो साल तक चला था, किन्तु आश्चर्य कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे कोर्ट की अवमानना नहीं माना। 11 नवम्बर 2023 को मजीठिया वेजबोर्ड को लागू हुए पूरे 12 वर्ष हो चुके हैं।

 

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट और तमाम आयोग बने सिर्फ रस्म अदायगी।

रस्म अदायगी के तौर पर केन्द्र की हर सरकार 10 वर्ष में एक बार वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट-1955 के अंतर्गत श्रमजीवी पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिये वेतन आयोग का गठन करती है, किन्तु दुर्भाग्य ये है कि किसी भी वेतन आयोग की सिफारिश तमाम कोशिशों के बावजूद अमलीजामा नहीं पहन पाती हैं। आजादी के बाद से अब तक जिन वेतन आयोगों का गठन हुआ उनमें 02 मई 1956 को गठित दिवातिया वेतन आयोगकी 10 मई 1957 को लागू सिफारिशों को एक्सप्रेस न्यूज पेपर ने तो वर्ष 1963/64 में गठित शिन्दे वेतन आयोगकी 27 अक्टूबर 1967 में की गई सिफारिशों को प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देकर लटकाये रखा और उन्हें लागू नहीं होने दिया। इसी प्रकार

वर्ष 1975/76 में गठित पालेकर वेतन आयोगकी 26 दिसम्बर 1980 को लागू सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डालकर श्रमजीवी तथा गैर श्रमजीवी पत्रकारों का हक मारा गया। इसके बाद वर्ष 1985 में बछावत वेतन आयोगका गठन किया गया और उसका भी वही हश्र हुआ जो कि पिछले वेतन आयोगों की सिफारिशों का हुआ। वर्ष 1994 में मनीसाना वेतन आयोगका गठन किया गया जिसकी सिफारिशों को दिसम्बर 2000 से लागू किया जाना था, किन्तु मीडिया माफियाओं की दादागीरी के चलते श्रमजीवी तथा गैर श्रमजीवी पत्रकारों को इसका लाभ नहीं मिल सका। इसके बाद बारी आई वर्ष 2007 में जिसमें केन्द्र सरकार ने 24 मई 2007 को नारायण कुरुप वेतन आयोगगठित कर दिया लेकिन उनके बीच में ही इस्तीफा देने के फलस्वरूप 04 मार्च 2009 को जस्टिस मजीठिया की अध्यक्षता में वेतन आयोगकी कार्यवाही आगे बढ़ी जिसकी प्राप्ति 31 दिसम्बर 2010 को होने के बाद केन्द्र सरकार ने अपने राजपत्र में इसे लागू करने की घोषणा 11/11/2011 को की तब से अब तक इसे लागू कराने के लिये केवल श्रमजीवी पत्रकारों तथा गैर पत्रकारों को ही अदालत दर अदालत चप्पलें घिसना पड़ रही हैं किन्तु एक दशक पूरा होने के बाद भी उन्हें निर्धारित वेतनमान का लाभ नहीं मिल सका है, उल्टे उक्त वेतनमान मांगने पर उन्हें या तो कई प्रकार से प्रताड़ित कर नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या फिर अवैधानिक तौर पर उनका तबादला एक राज्य से दूसरे राज्य में कर दिया गया ताकि वे अपना हक मांगने अदालत तक पहुंच ही न सकें। इतना ही नहीं बेरहम मैनेजमेंट ने कई कर्मचारियों को तो कोरोना काल के संकट की घड़ी में घाटे का बहाना बनाकर संस्थान से बिना कुछ दिये ही विदा कर दिया। इस सबके बावजूद न तो केन्द्र सरकार की नींद खुली और न ही निठल्ली राज्य सरकारों ने ही इन पीड़ित श्रमजीवियों की ही कोई सुधि ली। अब समय आ गया है इसी रस्म अदायगी का, देखना है कि अब सरकार कौन से आयोग का गठन करने जा रही है?

 

मजीठिया आयोग की सिफारिशों पर जो हो रहा है वह त्रासदी का सिर्फ एक सिरा है

प्रसिद्ध समाचार वेबसाईट सत्याग्रह पर वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन जो 2017 में जो लिखते हैं वह बताता है कि त्रासदी धीरे-धीरे हक की लड़ाई लड़ने वाले एक पत्रकार के जीवन में कैसे महात्रासदी बनती जाती है और सिस्टम लाचार होकर सारे पूंजीपति मीडिया मालिकों के आगे घुटने टेकते दिखता है।

मजीठिया आयोग की सिफारिशों पर जो हो रहा है वह त्रासदी का सिर्फ एक सिरा है सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अख़बारों के प्रबंधन अपने कर्मचारियों को मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों का लाभ देंगे, इसमें संदेह है। यह पुराना चलन है कि अक्सर वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों के बाद अखबार अपने ग्रेड में हेरफेर करने की कोशिश करते हैं और अपने कर्मचारियों को कम से कम लाभ देना चाहते हैं। मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों को लेकर तो ज्यादातर अख़बारों ने लगभग ढिठाई भरा रुख़ अख़्तियार किया है। इस रुख का कुछ वास्ता मीडिया उद्योग की नई बन रही कार्यसंस्कृति से है तो कुछ का निजी क्षेत्र में लगातार निरंकुश हो रहे उस पूंजीतंत्र में, जिसमें मज़दूर पहले के मुक़ाबले बेहद कमज़ोर है।

 

150 साल के मजदूर आंदोलन ने जो हासिल किया वह 25 सालों के उदारीकरण से नष्ट होने लगा

जहां तक मीडिया उद्योग का सवाल है, यहां की स्थिति कई स्तरों पर विडंबनापूर्ण है। अरसे तक यह बताया जाता रहा कि पत्रकारिता मिशन है, प्रोफेशन नहीं। जब पहली बार पालेकर अवार्ड आया तो कहते हैं कि कई बड़े संपादकों ने अपने मालिकान के कहने पर बोर्ड के सामने यह कहा कि पत्रकारों को ज़्यादा पैसे नहीं चाहिए। अस्सी के दशक के बाद तस्वीर बदलनी शुरू हुई जब पत्रकारिता कुछ बड़े शहरों और घरानों से निकल कर मुफस्सिल कस्बों और छोटे शहरों तक फैलने लगी। धीरे-धीरे पत्रकारिता के संस्थान भी खुले और ऐसे पेशेवर पत्रकार सामने आए जिनके लिए पत्रकारिता सेवा से कहीं ज़्यादा एक पेशा थी।

 इस स्थिति ने पत्रकारिता को गुणात्मक रूप से किस तरह प्रभावित किया, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। हालांकि इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि कहीं बेहतर प्रशिक्षण और पढ़ाई के साथ पत्रकारिता में आए युवाओं ने अपने उन तथाकथित मिशनरी पत्रकारों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ईमानदारी से काम किया जो बाद में सत्ता से गलबहियां करते पाए गए।

बहरहाल, निस्संदेह वेतन बोर्डों ने पत्रकारिता कर रहे लोगों को पहली बार कुछ सम्मानजनक सेलरी दी। लेकिन नब्बे का दशक आते-आते एक नई प्रक्रिया चल पड़ी। पत्रकारों को अनुबंध पर आने को मजबूर किया गया धीरे-धीरे तमाम बड़े-छोटे संस्थानों के पत्रकार अनुबंध का हिस्सा होकर वेतन बोर्डों की सिफ़ारिशों के दायरे से बाहर हो गए. जितनी सारी नई नियुक्तियां हुईं, सब अनुबंध वाली हुईं। मजीठिया ने एक बड़ा काम किया कि अपनी सिफ़ारिशों में अनुबंध पर काम कर रहे पत्रकारों को भी शामिल किया. लेकिन शायद ही कोई प्रतिष्ठान हो जिसने अनुबंधित कर्मचारियों को इसका लाभ दिया हो- बावजूद इसके कि आयोग की सिफ़ारिशें बाध्यकारी हैं और सुप्रीम कोर्ट दो बार इन्हें लागू करने का आदेश दे चुका है।

जाहिर है, मीडिया मालिक कुछ इस वजह से भी निर्द्वंद्व हैं कि उन्हें अपनी हैसियत का कुछ ज़्यादा गुमान है. लेकिन यह अधूरा सच है। पूरी सच्चाई यह है कि भारत में पूंजीतंत्र का माहौल इन दिनों इतना निरंकुश है कि उसे किसी भी क़ानून, किसी भी आदेश से बेपरवाह रहने में कोई डर नहीं सताता। धीरे-धीरे कानून अपनी ही अवहेलना के प्रति लगातार सदय होता दिख रहा है। अगर ध्यान से देखें तो पिछले 25 सालों में न सिर्फ श्रम कानूनों में ढिलाई दी गई है, बल्कि जो कानून कायम हैं, उन पर भी अमल की परवाह किसी को नहीं है। जिसे सामाजिक सुरक्षा कहते हैं, वह नई नौकरियों से पूरी तरह जा चुकी। नौकरी में काम के घंटे किसी दौर में अहमियत रखते होंगे, नया नियम बस घर से निकल कर दफ़्तर पहुंचने का है, दफ़्तर से निकल कर वापसी का कोई समय नहीं है। इसी तरह पेंशन का खयाल भी अब किसी पुराने ज़माने की चीज़ है। इस लिहाज से कहें तो डेढ़ सौ साल के मज़दूर आंदोलन ने जो हासिल किया, उसे 25 साल के उदारीकरण ने जैसे नष्ट कर डाला है बल्कि वह इस बदली हुई स्थिति को आदर्श बता रहा है।

एक नजर इधर भी उदाहरण के तौर पर समझने के लिए डालें

मसलन, निजी क्षेत्र जिसे बहुत ज़ोर-शोर से अवसरों की सुलभता के तौर पर पेश करता और बताता है कि अब लड़के पहले की तरह किसी एक कंपनी से चिपके नहीं रहते, बल्कि लगातार नौकरियां बदलते रहते हैं- यह भी एक बड़ा झूठ है। सच्चाई यह है कि अपने करिअर के शुरुआती पांच-सात वर्षों में ये लड़के बस कंपनियों में शोषण का सामान बने रहते हैं। वे बहुत मामूली वेतन पर 12 से 14 घंटे लगातार काम करते रहते हैं। अगले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे घिसते हुए वे किसी कंपनी में सम्मानजनक लगने वाली सेलरी हासिल करते हैं तो फिर वहीं टिक जाते हैं। इस बात की तस्दीक उन बहुत सारे लोगों के अनुभव से की जा सकती है जो शुरुआती नौकरियों के फेरबदल के बाद किसी अच्छे संस्थान में पहुंचे तो फिर वहीं बने रह गए। इसका उलटा भी हुआ। जो लोग किसी एक संस्थान में बरसों तक बने रहे, वे उसके बंद होने के बाद लगातार नौकरियां बदलते रहे क्योंकि काम करने वाला माहौल नहीं मिला। इस विडंबना का एक पहलू यह भी है कि आठ-दस साल की करीने की नौकरी के बाद अचानक 45 के आसपास के कर्मचारी पाने लगते हैं कि कंपनी को वे बोझ लगने लगे हैं. प्रबंधन यह महसूस करने लगा है कि उनका वेतन कुछ ज़्यादा हो चुका है और वही काम बहुत कम वेतन पर दूसरों से कराया जा सकता है. धीरे-धीरे छंटनी की एक नई तलवार उन पर लटकने लगती है.यह पत्रकारों के साथ भी होता है। 45 की उम्र के बाद उन्हें नौकरी या तो मिलती नहीं या नौकरी पर टिके रहना मुश्किल होता है।

यह एक बड़ी त्रासदी है जिसे पूंजी की नई दुनिया अवसरों और चुनौतियों की चमकीली पन्नी में लपेट कर पेश कर रही है. इस त्रासदी के और भी सिरे हैं। मसलन ज़्यादातर निजी कंपनियों में नौकरी दिए जाने या छीन लिए जाने के कोई निर्धारित पैमाने नहीं हैं। यह कुछ अफसरों या वरिष्ठ कर्मियों की इच्छा पर निर्भर करता है कि वे किसे नौकरी दें, किसे नहीं। यही नहीं इसमें बहुत बड़ी भूमिका निजी संबंधों, सिफ़ारिशों और वर्गीय पहचानों की होती है। इसका एक नतीजा यह होता है कि जाने-अनजाने अकुशल या कम प्रतिभाशाली लोगों की फौज बड़ी होती जाती है जो वास्तव में काम कर सकने वाले लोगों के श्रेय और अधिकार दोनों चुपचाप हस्तगत करती जाती है। जाहिर है, इसका असर कंपनी के प्रदर्शन पर भी पड़ता है और छंटनियों का सिलसिला शुरू होता है। यहां भी फिर उसी बॉस की चलती है जिसकी वजह से कंपनी का यह हाल हुआ है। जाहिर है, छांटे वे जाते हैं जो इस खेल से दूर खड़े चुपचाप काम करते हैं।

इस स्थिति को बदलने की फिलहाल कोई सूरत नहीं दिख रही. मजदूर संगठन या तो बेहद कमज़ोर हो चुके हैं या फिर प्रबंधन से समझौता करके चल रहे हैं। ज़्यादातर कंपनियों में वे हैं ही नहीं। इन स्थितियों से जो हताशा पैदा हो रही है, उससे कहीं ज़्यादा डरावने नतीजे सामने आ रहे हैं। गुड़़गांव से ग्रेटर नोएडा तक कई कंपनियों में मजदूरों की हिंसा भयावह ढंग से फूटी है। यह अलग बात है कि इसका ख़मियाजा भी मज़दूरों को ही भुगतना पड़ा है। मानेसर में मारुति के कारखाने में हुई हिंसा ने पहले मजदूरों को जानवर बना दिया और बाद में इन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। यह असंतोष आने वाले दिनों में क्या शक्ल लेगा, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता।

अख़बारों में मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफ़ारिशों के बहाने शुरू हुए इस लेख को अगर मौजूदा नौकरियों के बदलते चरित्र से जोड़ने की मजबूरी है तो इसलिए कि इसका असर वाकई बहुत बड़़ा है और सिर्फ निजी क्षेत्रों में नहीं, सरकारी क्षेत्रों में भी दिख रहा है। जहां तक अख़बारों या मीडिया का सवाल है, विडंबना यह है कि वहां चल रहे अन्यायों की, वहां हो रहे शोषण की, वहां हो रही छंटनी की ख़बर कहीं नहीं आती। सवाल फिर वही है- इस विडंबना से कैसे निबटें? जवाब आसान नहीं है- बस यही कहा जा सकता है कि देर-सबेर किसी को यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी- शायद उन्हीं लोगों को जो इसके शिकार बन रहे हैं। कोई बाहर वाला उनके लिए फिलहाल नहीं लड़ेगा।

 

नए कानून में श्रमजीवी पत्रकार की हालत दिहाड़ी मजदूर जैसी

न्यूजपेपर इम्लाइज यूनियन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रविंद्र अग्रवाल लिखते हैं श्रम सुधार के नाम पर सरकार ने अखबार मालिकों के साथ मिलकर श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के वैधानिक अधिकारों का एक तरह से गैंगरेप कर डाला है। पहले से ही मजीठिया वेजबोर्ड की लंबे समय से चली आ रही लड़ाई में कठिन आर्थिक हालातों के बावजूद पूरी रसद के साथ लड़ रहे श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों की पीठ में केंद्र सरकार ने जो छूरा घोंपा है, उसकी पीड़ा से निजात पाने के लिए फिर से एक और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

नए कानूनों में जहां श्रमजीवी पत्रकार की हालत एक दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर कर दी गई है, तो वहीं अन्य अखबार कर्मचारियों को भी आम मजदूरों की श्रेणी में ला खड़ा किया गया है। वो भी तब जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद पहली बार हजारों की संख्या में श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी अपने संशोधित वेतनमान और एरियर के लिए अखबार मालिकों के जुल्‍मोसितम सहते हुए पिछले नौ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ने को एकजुट हुए थे।

हमारी इस एकता को 56 इंच के सीने वाली मोदी सरकार का सीना झेल नहीं सका और अखबार मालिकों के घड़ियाली आंसूओं और चापलूसी के सामने सिकुड़ गया। ऐसे में एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत श्रम सुधारों के नाम पर श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को विशेष अधिकार, केंद्रीय कर्मचारियों के समान वेतनमान और अन्य विशेष रियायतें देने वाले अधिनियमों को ही खत्म कर दिया गया। श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 विधेयकों की रचना एक श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारी को अन्य श्रमिकों से अलग दर्जा, वेतन और विशेष कानूनी अधिकार देने के लिए की गई थी, ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव ना हिलने पाए और पत्रकारिता के प्रोफेशन को पूंजीपतियों की रखैल मात्र बनकर ना रहना पड़े।

हालांकि प्रिंट मीडिया में कार्पोरेट कल्चर आने के बाद से खासकर श्रमजीवी पत्रकार काफी कठिन दौर से गुजर रहे हैं और अब तक किसी भी पार्टी या विचारधारा की सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे में जब सरकार से उपरोक्त श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों में संशोधन करके इन्हें और मजबूत करने की उम्मीद की जा रही थी तो इस सरकार ने इस पर मेहनत करने के बजाय इस मर्ज को जड़ से उखाड़ने के लिए पत्रकारिता के हाथ ही कलम कर दिए हैं।

खासकर अनुबंध अधिनियम के तहत श्रमजीवी पत्रकारों के भविष्य को असुरक्षित करके रख दिया गया था। इस पर रोक लगाने की मांग लंबे अर्से से की जा रही थी। अब हालत यह हो गई है कि अखबार मालिक नए श्रम नियमों के तहत एक श्रमजीवी पत्रकार को कभी भी सड़क पर ला सकते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना में काम करने वाला अन्य कर्मचारी अचानक नौकरी चले जाने पर एक आम मजदूर की तुलना में रोजगार ही प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आम मजदूर को तो कहीं भी मजदूरी करके परिवार चलाने के साधन मौजूद हैं, मगर श्रमजीवी पत्रकार और अखबारों में काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के परिवारों के लिए तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।

अगर ऐसा नहीं है तो उपरोक्त अधिनियमों को समाप्त करने वाली सरकार और उसका सिस्टम ही बताए कि एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य अखबार कर्मचारी के लिए नौकरी जाने के बाद परिवार चलाने को क्या-क्या विकल्प होंगे।

उधर, मौजूदा परिस्थिरतियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया दस्तक दे चुका है, तो ऐसे में उपरोक्त अधिनियमों को और सशक्त बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी।

श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे थे। इन्हें नए श्रम कानूनों में जगह तो दे दी गई, मगर विशेषाधिकार समाप्त करने के कारण इसके कोई मायने ही नहीं बचे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्लंघन पर सख्त प्रावधान करने की भी जरूरत थी, जो किए भी गए हैं, मगर नेकनीयती से नहीं। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्तियों को रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था, मगर ऐसा करके सरकार अखबार मालिकों को नाराज नहीं करना चाहती, भले ही लाखों अखबार कर्मचारी और उनके परिवार सरकार से नाराज हो जाएं। ऐसे में अधिनियमों को सशक्त बनाने के बजाय समाप्त करने का निर्णय केंद्र सरकार की बदनीयती को ही दर्शा रहा है।

यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले (इससे पूर्व के फैसलों सहित) में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान के कारण प्रभावित ना होने पाए।

नए श्रम कानूनों में सभी विशेष अधिकार समेटे गए

सरकार के नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा कोई भी विशेष प्रावधान नहीं शामिल किया है, जो उन्हें उपरोक्त दो अधिनियमों में दिया गया था। इसमें खासकर हर दस वर्ष की अवधि के बाद वेजबोर्ड का गठन, छंटनी की स्थिति में विशेष प्रावधान, काम के घंटे, छुट्टियों की व्यवस्था, पहले से घोषित वेतनमान ना दिए जाने पर बिना किसी समयसीमा के रिकवरी की व्यवस्था और संशोधित वेमनमान के तहत एरियर लंबित होने पर नौकरी से ना हटाए जाने की व्यवस्था शामिल हैं। नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना की परिभाषा तो शामिल की गई है, मगर बाकी सभी विशेष अधिकार छीन लिए गए हैं।

पूर्व के वेजबोर्डों के तहत बकाए की रिकवरी का प्रावधान नहीं

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 निरस्त किए जाने के साथ ही अब इसकी रिकवरी की धारा 17 भी निष्प्रभावी हो जाएगी। ऐसे में नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के 19 जून, 2017 के फैसले के तहत मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संशोधित वेतनमान के एरियर की रिकवरी का वाद (नए मामलों में) दायर करने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं बचेगा, क्योंकि नए श्रम कानूनों में पुराने मामलों में रिकवरी के लिए आवेदन करने की व्यवस्था ही नहीं है। सरकार द्वारा पहले ही पारित की जा चुकी श्रम संहिता 2019 के प्रावधानों के तहत ही रिकवरी की व्यवस्था की गई है। इसमें सिर्फ न्यूनतम वेतनमान के मामलों में दो वर्ष के भीतर रिकवरी के लिए आवेदन करने का प्रावधान है।

ऐसे में जो अखबार कर्मचारी यह सोच कर मजीठिया वेजबोर्ड के तहत रिकवरी नहीं डाल रहे थे कि पहले से लड़ रहे साथियों का फैसला आने पर उन्हें भी घर बैठे नोटों का बैग मिल जाएगा, वो अब कहीं के भी नहीं रहे हैं। इनके लिए अब रिकवरी का केस डालने का अवसर तब तक के लिए ही बचा है, जब तक कि नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन साथियों ने रिकवरी के केस डीएलसी के पास डाल दिए हैं या जिनके विवाद लेबर कोर्ट में लंबित हैं, उन्हें नए श्रम कानूनों के तहत कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उनके ये लंबित विवाद नए कानूनों के तहत गठित होने वाले नए इडंस्ट्रिनयल ट्रिब्यूनल में स्वत: ही शिफ्ट हो जाएंगे।

वेजबोर्ड नहीं अब न्यूनतम मजदूरी पर पलेंगे अखबार कर्मचारी

नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को अब तक मिले वेजबोर्ड के अधिकार को ही समाप्त कर दिया गया है। वो भी ऐसे समय में जबकि मजीठिया वेजबोर्ड के लिए हजारों अखबार कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा कर श्रम न्यायालयों में लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से कोई भी वेजबोर्ड को अक्षरश: लागू नहीं किया है और हर बार इसे माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर मुंह की खाई है।

अखबार मालिक शुरू से ही खासकर वेजबोर्ड को लेकर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों को निरस्त करवाने की कोशिशों में जुटे रहे हैं, मगर किसी भी सरकार ने उनके इस मंसूबे का समर्थन नहीं किया था। नए कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों को न्यूानतम मजदूरी तय करने के लिए एक कमेटी का गठन करने का लॉलीपाप भी दिया गया है, जो दिखावे के अलावा कुछ साबित नहीं हो पाएंगी। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के लिए पहले लीविंग वेजेज के तहत वेजबोर्ड का गठन होता था, जो केंद्रीय कर्मचारियों के समान था। अब मिनिमम वेजेज के सिद्धांत पर दिहाड़ी मजदूरों की तर्ज पर न्यूनतम वेतन तय होगा। वह भी सिर्फ श्रमजीवी पत्रकारों के लिए। अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा प्रावधान कहीं नजर नहीं आ रहा है।

इतिहा को देखें तो….

खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के काम के जोखिम और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें पूंजीपतियों का बंधुआ बनने से रोकने और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने को लेकर देश के आजाद होते ही चिंतन शुरू हो गया था। पहले अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्यक्तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुद्ध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या उद्योगपतियों ने अखबारों को व्यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार (Central Provinces and Berar) प्रशासन ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच के लिए गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्लिसर्श ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्त समझौता किया था। इस तरह व्यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार व अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं भारत के संविधान के अनुच्छेद 43 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) के तहत भी उपरोक्त दोनों अधिनयम संवैधानिक वैधता रखते हैं। ऐसे में इन विधेयकों को इस तरह चोरीछिपे लागू करवाना असंवैधानक है और इसे हर हालत में माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की जरूरत है

इस मामले में कुछ अन्य पत्रकारों से भी राय ली गई, जिसमें यह बात सवाल की तरह निकलकर आई कि भरपूर वेतन और सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के बावजूद सरकारी कर्मचारी जब तब अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन और हड़ताल करके सरकार को झुकने के लिए विवश कर देते हैं लेकिन अफसोस की बात है कि अपना भरपूर दोहन और शोषण होने के बावजूद पत्रकार बिरादरी में इस तरह का साहस और एकजुटता दिखाई नहीं देती और न ही तथाकथित पत्रकार संगठन ही उनके ज्वलंत मुद्दों पर कभी भी आवाज बुलंद करने की जहमत उठाते हैं।

गौरतलब है कि देशभर में मजीठिया वेतनमान को लेकर हजारों श्रमजीवी पत्रकार एवं गैर पत्रकारों को लम्बी कानूनी लड़ाई के बावजूद 12 साल बाद भी उनको अपना हक़ नहीं मिल सका है और मीडिया हाउस में इसका अनुपालन कराने के लिए जिम्मेदार राज्य सरकार भी आंखें मूंद कर और कानों में रुई फंसाकर बैठी है। इतना ही नहीं प्रभावशाली मीडिया मैनेजमेंट के दबाव में आकर श्रम विभाग द्वारा सरकार के इशारे पर नियमविरुद्ध आदेश जारी कर इन पीड़ित शोषित पत्रकारों को प्रताड़ित करने का महापाप किया जा रहा है।

 पत्रकारिता में 4 दशक से ज्यादा का समय गुजार चुके एक पत्रकार कहते हैं कुछ भाग्यशाली पत्रकारों को छोड़कर बाकी सभी को दिया जाने वाला वेतन बहुत कम है। मुंबई जैसे शहर में क्षेत्रीय भाषा प्रकाशन के लिए काम करने वाला एक वरिष्ठ रिपोर्टर, जहां भारत में वेतन का स्तर सबसे अधिक है, इस क्षेत्र में आठ या अधिक वर्षों के बाद आम तौर पर लगभग 30,000 रुपये से 35,000 रुपये का वेतन प्राप्त करेगा। अंग्रेजी भाषा के प्रकाशन बेहतर वेतन देते हैं, लेकिन ये भी फिजूलखर्ची से कोसों दूर हैं।

भोपाल और कानपुर जैसे टियर 2 शहरों में प्रमुख अंग्रेजी राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों के लिए काम करने के वर्षों के अनुभव वाले रिपोर्टर आमतौर पर 30,000 से 35,000 रुपये तक वेतन कमाते हैं। दिल्ली और मुंबई में, पेशे में पांच या अधिक वर्षों के बाद मुख्यधारा के अंग्रेजी प्रकाशन में एक रिपोर्टर या उप संपादक के लिए औसत शुद्ध वेतन लगभग 40,000 रुपये प्रति माह है।

छोटे प्रकाशनों में काम करने वाले पत्रकारों का वेतन बदतर है, और रोज़गार की स्थितियाँ बेहद असुरक्षित हैं। यानि आप निश्चिंत नहीं हो सकते कि आज आप नौकरी का काम खत्म करके जा रहे हैं तो कल भी आपकी नौकरी रहेगी ही।

सुप्रीम कोर्ट के वकील परमानंद पांडे, जो वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस के साथ मजीठिया मामले में कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, कहते हैं, ''पत्रकारों की स्थिति पर कोई अखबार रिपोर्ट नहीं करता है।'' पांडे कहते हैं, कई प्रकाशनों में पत्रकारों को कम से कम 15,000 रुपये प्रति माह पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। वह कहते हैं, ''यह बहुत कम पैसा है।'' "यह एक अपमानजनक राशि है।" इसकी तुलना में, केंद्र सरकार के लिए काम करने वाला ड्राइवर प्रति माह 25,000 रुपये का शुरुआती वेतन कमाता है।

मीडिया कंपनियों में ऐसे कर्मचारी हैं जो वेतन के रूप में एक पैसा भी नहीं कमा पाते। भारत के प्रत्येक प्रमुख प्रेस क्लब में ऐसे प्रकाशनों की कहानियाँ हैं जो केवल संदिग्ध या हताश 'संवाददाताओं' को विजिटिंग कार्ड और पहचान पत्र देते हैं, जिनके उपयोग से उनसे अपने स्वयं के 'वेतन' उत्पन्न करने की अपेक्षा की जाती है।

वेतन बोर्ड का उद्देश्य ऐसी गड़बड़ियों से बचना था।

अपनी सिफारिशें करते समय मजीठिया वेतन बोर्ड ने अनुमान लगाया था कि बड़े अखबारों के लिए वेतन औसत 10 प्रतिशत से बढ़कर सकल राजस्व का लगभग 13.5 प्रतिशत हो जाएगा। बोर्ड ने गणना की थी कि छोटे समाचार पत्रों पर अतिरिक्त बोझ सकल राजस्व का तीन प्रतिशत होगा।

हालाँकि, समाचार पत्र प्रबंधन ने लागत के आधार पर इसकी सिफारिशों को लागू करने का लगातार विरोध किया । एक अहस्ताक्षरित संपादकीय में, टाइम्स ऑफ इंडिया ने उस समय कहा कि “नवीनतम वेतन बोर्ड की सिफारिशों के कार्यान्वयन ने कई प्रिंट कंपनियों को बीमारी की स्थिति में पहुंचा दिया है, क्योंकि पिछली सरकार ने बोर्ड की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया था और अखबारों को वेतन में 45 प्रतिशत की वृद्धि करने के लिए मजबूर किया था।” -50% बकाया राशि के साथ - ताकि चपरासी, क्लर्क और कुछ निश्चित वेतनमान वाले ड्राइवर सहित ब्लू कॉलर स्टाफ को अब भारत में किसी भी अन्य उद्योग में उनकी कमाई से तीन गुना से अधिक भुगतान किया जा सके।''

टीओआई ने कहा कि अब तक लाभदायक बड़े प्रकाशक अस्थिर रूप से उच्च वेतन बोर्ड भुगतान के कारण घाटे में चले गए। “आदरणीय हिंदू ने 2013-14 और 2014-15 में कर-पूर्व हानि की सूचना दी क्योंकि कर्मचारियों की लागत अस्थिर रूप से उच्च वेतन बोर्ड भुगतान के कारण बढ़ गई थी। देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी, गैर-लाभकारी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया भी इसी तरह प्रभावित हुई है, क्योंकि पिछले वर्ष की तुलना में 2013-14 में कर्मचारियों की लागत में 173% की वृद्धि हुई, जिससे परिचालन घाटे में तेज वृद्धि हुई, जो तब से बनी हुई है। उच्च।"

हालाँकि, उन्हीं अखबारों के पास कुछ चुने हुए लोगों को भुगतान करने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है।

दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रकाशक बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड के सार्वजनिक दस्तावेजों से पाया कि 2010-11 में, 551 करोड़ रुपये के वेतन बिल में से 102 करोड़ रुपये सिर्फ 40 कर्मचारियों को भुगतान किए गए थे। औसतन, इन 40 लोगों में से प्रत्येक ने प्रति वर्ष 2.5 करोड़ रुपये से अधिक कमाया।

अधिक वर्तमान आंकड़े आना मुश्किल है, लेकिन उद्योग में यह ज्ञात है कि बड़े समाचार पत्रों में कुछ चुनिंदा लोगों को दिया जाने वाला वेतन 2010 से अब तक और भी अधिक हो गया है। ये व्यक्ति आम तौर पर कॉर्पोरेट या राजनीतिक हितों, या मानव संसाधन प्रबंधन कार्य की ओर से जनसंपर्क करते समय पत्रकारिता पद धारण करते हैं। वे अक्सर अपने मालिकों की ओर से अपने से नीचे के लोगों को नौकरी से निकालकर वेतन बिल कम कर देते हैं, जो हजारों की मामूली कमाई करते हैं। मीडिया की समस्याओं के बारे में बहुत कम जानकारी पाठकों तक पहुंच पाती है, क्योंकि मीडिया अपने बारे में पारदर्शी नहीं है।

मीडिया में मीडिया से जुड़ी खबरों पर रोक लग गई

मजीठिया वेज बोर्ड मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मौजूदा मामला एक अवमानना याचिका है जो फरवरी 2015 में दायर की गई थी। पांडे कहते हैं, इसकी उत्पत्ति मई 2011 में हुई थी, जब आनंद बाजार पत्रिका प्रबंधन वेज बोर्ड के कार्यान्वयन के खिलाफ अदालत में गया था। सिफ़ारिशें. इसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया , इंडियन एक्सप्रेस और दैनिक जागरण सहित अन्य लोगों ने कई याचिकाएं दायर कीं । हिंदुस्तान टाइम्स ने केवल सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया, और मजीठिया वेज बोर्ड और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से बचने के लिए पत्रकारों को "कंटेंट क्रिएटर" जैसे पदनामों के साथ एक नए डिजिटल उद्यम में स्थानांतरित करना शुरू कर दिया। डिजिटल उद्यम और टेलीविजन वर्तमान में अधिनियम के अंतर्गत शामिल नहीं हैं।

 वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 पत्रकारों के लिए सेवा शर्तें निर्धारित करता है। अधिनियम में प्रेस काउंसिल की सिफारिशों का पालन किया गया जिसमें न्यूनतम नोटिस अवधि, ग्रेच्युटी, भविष्य निधि, औद्योगिक विवादों का निपटारा, वेतन के साथ छुट्टी, काम के घंटे और न्यूनतम वेतन शामिल थे। यह छंटनी के मामलों में कर्मचारियों की विभिन्न श्रेणियों के लिए नोटिस अवधि भी निर्दिष्ट करता है, जो संपादक के मामले में छह महीने तक बढ़ सकती है। वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के तहत वेतन का निर्धारण समय-समय पर गठित होने वाले वेतन बोर्डों द्वारा किया जाना था।

अख़बार मालिकों ने इस अधिनियम पर शुरुआत से ही हमला बोला है।

पहले वेज बोर्ड और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के खिलाफ पहला मामला रामनाथ गोयनका के एक्सप्रेस अखबार समूह द्वारा 1957 में दायर किया गया था, जो उस समय देश का सबसे बड़ा अखबार समूह था। हिंदुस्तान टाइम्स, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और फ्री प्रेस सहित अन्य जर्नल ने इसी तरह की याचिकाएँ दायर कीं।

पांडे कहते हैं, ''उन्होंने वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट पर हमला करना शुरू कर दिया।'' उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि केवल प्रिंट मीडिया में ही वेतन तय करने वाला वेतन बोर्ड क्यों होना चाहिए, किसी अन्य उद्योग में नहीं।

वह बताते हैं, ''यदि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को अमान्य घोषित कर दिया जाता है, तो वेतन बोर्ड स्वतः ही समाप्त हो जाता है।''

इस अधिनियम को 1958 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया था, और तब से। हालाँकि, इसका कार्यान्वयन सबसे अच्छा रहा है। यह आम तौर पर उल्लंघन में अधिक देखा जाता है।

मौजूदा मामले की सुनवाई और फैसला भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम ने किया था, जिन्होंने मार्च 2014 में फैसला किया था कि वेज बोर्ड और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को बरकरार रखा जाएगा।

जब यह फैसला आया तो मालिकों को 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 तक की अवधि का बकाया चार किश्तों में चुकाने का मौका मिला।

पांडे कहते हैं, ''अधिकांश अखबारों ने ऐसा नहीं किया।'' "इसलिए फरवरी 2015 में हमने अवमानना याचिका दायर की।" इसी तरह की अन्य याचिकाएँ पूरे देश से उठीं। ये याचिकाएँ पिछले कुछ वर्षों से लटकी हुई थीं।

पांडे कहते हैं, मालिक समय का उपयोग अपने फायदे के लिए करते रहे। बहुत सारे कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हजारों को बर्खास्त कर दिया गया।

उन्होंने बताया कि कई अन्य लोगों को मामले वापस लेने या दंतेवाड़ा जैसी जगहों पर स्थानांतरण का सामना करने की धमकी दी गई थी। इसे अदालत के ध्यान में लाया गया, जिसने श्रम आयुक्तों को रिपोर्ट दाखिल करने को कहा।

नोट:- पत्रकार कोई विशेष अधिकार समाज, सिस्टम से नहीं मांगता, न ही संवैधानिक तौर पर उसे प्रदान किए गए हैं। बावजूद इसके श्रमजीवी और स्वतंत्र पत्रकारों का जीवनयापन ही मुश्किल है। न तो सामाजिक सुरक्षा है, न ही परिवार के भरण-पोषण और के लिए नौकरी कह निश्चित्ता। ऐसे में मजीठिया वेज बोर्ड एक रोशनी की तरह आया था मगर जब पत्रकारों ने हक मांगा तो तबादले किए गए, नौकरियों से बर्खास्त कर दिए गए और कई सालों तक कहीं दूसरे मीडिया संस्थान में नौकरी भी नहीं मिली। बच्चों को अच्छी शिक्षा तक नहीं दिला पाए बाकि सब चीजें तो बहुत बाद में आती हैं। कुलमिलाकर पूरे परिवार के संवैधानिक मूल्यों का ही हनन होता है। ऐसे में अब बहुत जरूरत है कि कोई सख्त कदम उठाए जाएं ताकि पत्रकारों को कम से कम एक सामान्य गरिमामय जीवन, रोजगार और जीवन के अधिकार के साथ तो मिल पाए। शुरूआत भी पत्रकारों को ही करनी होगी। मजीठिया की लड़ाई इसलिए भी मजबूती नहीं पकड़ पा रही क्योंकि इसमें इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया को शामिल नहीं किया गया है। यह सिर्फ अखबारों और समाचार एजेंसियों के लिए है। जिसमें कई बड़ी एजेंसियों ने पत्रकारों के एकमुश्त ड्यू क्लीयर करके कुछ को घर का रास्ता दिखा दिया है जो बचे हैं वे अनुबंध पर हैं।

 

 


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