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नेहरू किसी दौर के सुप्रचार या दुष्प्रचार से ऊपर हैं

मीडिया            May 27, 2025


हेमंत कुमार झा।

अखबार पाठकों की रुचि का परिष्कार नहीं कर रहे, अगर उन्होंने नेहरू की पुण्यतिथि पर सामग्रियां प्रकाशित नहीं कीं तो यह कोई मानक नहीं है, कोई संकेत नहीं है कि जनता की नेहरू में रुचि नहीं है या रुचि कम हो गई है।

बीते अनेक वर्षों से जिस कुप्रचार का सुनियोजित अभियान चलाया गया है और विभिन्न माध्यमों पर नेहरू की छवि धूमिल करने के प्रयास किए गए हैं उनका असर उन्हीं पर पड़ा है जिनका बौद्धिक स्तर बेहद कम है। सत्ता संरचना ने इस स्तर को नीचा करने और नीचे ही बनाए रखने के सुविचारित प्रयत्न किए हैं और बौद्धिक बौनों के इस दौर में उसे कुछ सफलता भी मिली है।

नेहरू के बारे में खूब पढ़ा गया है, खूब पढ़ा जा रहा है और भविष्य में और अधिक पढ़ा जाएगा। मीडिया, चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, अपने नैतिक पतन के सबसे अंधेरे दौर से गुजर रहा है और हम ऐसे बुद्धि जीवियों का भी ज्ञात अज्ञात कारणों से वैचारिक पतन देख रहे हैं जिनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।

पटना के एक बड़े और निस्संदेह अति सम्मानित पत्रकार, जो दिल्ली स्थित किसी जमाने में एक प्रतिष्ठित अखबार के पटना संवाददाता थे, अब अवकाश का जीवन जी रहे हैं, हाल में उन्हें वर्तमान सत्ता के द्वारा अलंकरणों आदि से भी सुशोभित किया गया था, ने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा कि नेहरू की पुण्यतिथि का अख़बारों ने कुछ खास संज्ञान नहीं लिया क्योंकि अखबार देख समझ रहे हैं कि नेहरू में जनता की रुचि नहीं रही।

इस पोस्ट के साथ उन्होंने एक तस्वीर शेयर की जिसमें भीड़ में खड़े नेहरू एक महिला के कंधे पर हाथ रखे हुए हैं, बगल में इंदिरा गांधी खड़ी हैं, थोड़ी दूर पर विजय लक्ष्मी पंडित खड़ी हैं। उस अल्पचर्चित महिला को पहचान पाना कठिन है जिसके कंधे पर नेहरू का हाथ है।

कमेंट में एक सज्जन किंचित शरारती अंदाज में पूछते हैं, "गुस्ताखी माफ, ये मोहतरमा कौन हैं", तो पत्रकार महोदय जवाब देते हैं कि नेहरू की भगिनी। इस पोस्ट के साथ बिना कैप्शन के इस फोटो को डालने का कोई मतलब नहीं बनता। लोग इंदिरा को पहचानते हैं, उनसे थोड़ा कम विजय लक्ष्मी पंडित को पहचानते हैं, उनसे भी कम उनकी बेटी, जो एक लेखिका भी थी, को पहचानते हैं।

अब, आज के दौर में कितने लोग विजय लक्ष्मी पंडित की उस बेटी की फोटो पहचान पाएंगे जो अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका भी रही हैं? नेहरू पर ऐसी पोस्ट लिखने के बाद इस फोटो को बिना कैप्शन के डालने का क्या मतलब?

हम आजकल न जाने कितने बुद्धिजीवियों का वैचारिक स्खलन देख रहे हैं। लेकिन, इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कोई पोस्ट लिखना कि जनता में नेहरू के प्रति रुचि कम हो गई है, वैचारिक स्खलन की सीमा से भी कुछ अधिक लगता है।

दस, बीस या तीस वर्षों के किसी अंधेरे दौर में अगर नेहरू की छवि पर मिट्टी पोतने के सुनियोजित प्रयत्न होते भी रहें तो किसी इतिहास पुरुष की प्रतिष्ठा पर इससे कितना फर्क पड़ेगा?

इसी के बरक्स एक आलेख सोशल मीडिया पर चर्चित हो रहा है जिसे हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संपादकों में से एक रहे स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने 1989 में लिखा था, जब नेहरू का जन्मशती वर्ष था। उस आलेख को भी पढ़ा जाना चाहिए और उस आलोक में इस तथ्य की पड़ताल होनी चाहिए कि क्या यह सही है कि आज के दौर में जनता की नेहरू में रुचि नहीं, इसलिए अखबार वालों ने पुण्यतिथि पर नेहरू को कोई खास तवज्जो नहीं दी।

नेहरू किसी दौर के किसी सुप्रचार या दुष्प्रचार से ऊपर हैं। अखबार, खास कर हिन्दी के अखबार अपने पाठकों की बौद्धिकता के साथ कितना खिलवाड़ कर रहे हैं, यह आधुनिक विमर्शों में अत्यंत चिन्ता के साथ व्यक्त किया जा रहा है।

लेखक पटना युनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं

 

 


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