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अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में स्त्री गरिमा, निजता का हनन करता मीडिया

मीडिया            Sep 18, 2023


 

ममता मल्हार।

महिला मुद्दों की रिपोर्टिंग जजमेंटल रवैया अपनाया जाता है

बिना पति के महिला ने दिया बच्चे को जन्म सात साल से पति नहीं था साथ में। होटल में पकड़ी गई युवतियां, पति को धोखा देकर चार बच्चों की मां भागी। यह वो र्शीषक हैं जो आमतौर पर हमें महिला अपराधों पर होने वाली रिपोर्टिंग। बहुत दूर नहीं जाते ताजा मामला तो उत्तरप्रदेश की एक एसडीएम का है जिसके मामले में इलेक्ट्रॉनिक और डिजीटल मीडिया ने खुद की गरिमा तो ताक पर रख ही दी उस महिला की भी निजता, गरिमा और चरित्र का हनन करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। 

महिला मुद्दों की नकारातम्क रिपोर्टिंग और प्रचार-प्रसार में तमाम मीडिया माध्यमों खासकर समाचार चैनल अपनी गरिमा से तो गिर ही गए हैं मानवीय संवेदनाओं को महसूसने, देखने, समझने का नजरिया भी बेहद सतही और बोथरा हो चुका है। आमतौर पर यह महसूस होता है कि यह सब जो दिख रहा है बात उससे कहीं बहुत आगे की है। बात है उस टीआरपी बिजनस की जो महिलाओं के खिलाफ होने वाली इस रिपोर्टिंग में समाज को खुशी देने जैसा धर्म निभाता दिखाई देता है।

उस समाज में जहां महिलाओं से जुड़े 99 प्रतिशत मामले चटखारे लगाकर गॉसिप करने और समय पास करने माध्यम होते हैं और इसके लिए सामान मुहैया कराने का साधन पहले टीवी चैनल, अखबार, अपराध पत्रिकाएं होती थीं अब सोशल मीडिया इसका मख्य जरिया बन चुका है। आलम यह है कि कई समाचार वेबसाईटों का कंटेंट इसी तरह की खबरें हैं जिनके शीर्षक में फोकस सिर्फ महिला को अपराधी बताने और उसके चरित्र हनन पर होता है।

उत्तर प्रदेश की जिस प्रतिष्ठित महिला का मामला निर्ममता से उछाला गया उस पर मीम बनाए गए यह समाज-परिवार की नैतिकता और संस्कार की दुहाई देते हुए यह इन तमाम खोखले दावों से कहीं ज्यादा मानवीय गरिमा और व्यवहार के विपरीत स्त्री के प्रति घृणा का बड़ा मसला है।

उन महिला पर बनते लगातार बेहूदे रील्स,मीम्स के कंटेंट देखकर इस प्रकरण में सिर्फ एक ही सवाल दिमाग में बार-बार उठ रहा था कि यह मामला इतना तूल न पकड़ता। इस महिला की गरिमा और निजता के यूं चीथड़े न उड़ते अगर मीडिया माध्यमों को ऐसे समाचारों को प्रकाशित करने का तरीका और सोशल मीडिया की भीड़ को ऐसे विषयों पर प्रतिक्रिया देने का सलीका सिखाया जाता। हैरानी की बात थी कि तमाम पुरूष लॉबी के साथ महिलाएं भी उनके खिलाफ अपशब्दों का उपयोग करते हुए कंटेंट प्रसारित कर रही थीं।

समाचार चैनलों तो हद यह कर दी कि उनके बार-बार यह कहने पर कि मैं आपको जवाब देने के लिए जवाबदेह नहीं हूं। मैं या तो कोर्ट के सामने बोलूंगी या अपने परिवार के सामने इसके बावजूद लगातार उन पर दबाव बनाया जाता रहता था कि नहीं आपको तो जवाब देना ही पड़ेगा। मीडिया द्वारा किसी व्यक्ति की निजता और गरिमा का हनन करने का उदाहरण वह भी खुलेआम पूरे देश के सामने करने का इससे बड़ा उदाहरण नहीं मिलेगा। मीडिया अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग किसी को अपमानित करने और प्रताडि़त करने के स्तर तक करता है। यह संवैधानिक मूल्यों के विपरीत आचरण है।

इस संबंध में वेबदुनिया में करीब दो दशक तक काम करती रहीं वरिष्ठ पत्रकार स्मृति पांडे कहती हैं यह समाज की स्त्री के प्रति गलत सोच और दूषित मानसिकता का परिणाम है जो मीडिया जैसे जिम्मेदार पेशे में आकर भी नहीं बदल रहा। वे कहती हैं किसी बच्ची या महिला का रेप होता है, थाने से कोर्ट तक सवालों का सामना करती पीड़िता को मीडिया के सामने ट्रायल के रूप में एक अलग ही तरह की अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है।

पत्रकार रूपम मिश्र लिखती हैं अगर सारे अंदाजों कयासों को एक तरफ रखकर ध्यान से देखा जाए तो मर्दवादी सोच, उनका बनाया हुआ ढांचा बाज़ार का प्रिय क्षेत्र है। समाज में पूंजीवाद और पितृसत्ता की ऐसी जुगलबंदी है कि वह हर हाल में स्त्री को बेचने का हुनर जानता है। जितनी तेजी से स्त्री विरोधी चीजें इस देश की सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं वह इस देश के लोगों के स्त्रीद्वेषी होने का ग्राफ है।

धर्म और शादी की अवधारणा के लिहाज से तो स्त्री के पास अपनी स्वतंत्रता,गरिमा और अस्मिता का कहीं कोई अधिकार ही नहीं है। वे कहती हैं इस केस को लेकर उनकी ये बहसें मनुष्य विरोधी होने के साथ-साथ संविधान विरोधी भी हैं। वे उनके बारे में बात करते हुए ऐसे प्रलाप कर रहे हैं जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो।

रूपम आगे लिखती हैं, किसी भी समाज का स्त्री के लिए इतनी घृणा इतना पक्षपाती होना उस देश का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पिछड़ापन है। ये सनसनीखेज न्यूज चैनल और फूहड़ और अश्लील वीडियो गीत वाली बिरादरी सब मिलकर क्या एक स्त्री को जलील करके अपनी कमाई करने में लगे हैं। एकबारगी देखने से यही लगता है लेकिन बात इससे कहीं आगे की है। इसका इतना ज्यादा प्रचार-प्रसार एक स्त्रीद्वेषी समाज की स्त्री के प्रति घृणा का बड़ा मसला है। सोशल मीडिया के ये सारे वायरल स्त्रियों पर लगाम कसने की पितृसत्तातमक मुहिम है।

वे आगे कहती हैं आप एक स्त्री को देवी, सती साध्वी बनाने के लिए क्यों परेशान हैं अगर वह आपकी तरह मनुष्यगत कमज़ोरियों से बनी है। आप उस बात को अनहोनी की तरह क्यों बरत रहे हैं जिसे इसी समाज का पुरुष वर्ग सदियों से करता आ रहा है। हीरालाल राजस्थानी अपनी कविता में लिखते हैं, “वे स्त्री होने को//प्रकृति के विरुद्ध/सिद्ध करने में लगे हैं/वे अनचाहे ही स्त्रियों को बरगला रहे हैं/वे संविधान को भी स्त्री विरोधी/घोषित कर देना चाहते हैं/जो उनके अपराधी होने पर/बराबर सज़ा देने की क्षमता रखता है।”

आज जब पूरा सोशल मीडिया तमाम तरह के मीम्स ,रील्स और न जाने कितने ऊलजलूल गाने इस केस को लेकर सामने आ रहे हैं तमाम छोटे-बड़े न्यूज चैनल इस केस की खबर ऐसे दिखा रहे हैं जैसे ऐसे में महसूस होता है कि जैसे उन्होंने ऐतिहासिक अपराध कर दिया होआप अखबार की ही खबर देख लें,जिस समाज में प्रतिदिन स्त्रियों की लड़कियों की हत्या की घटनाएं पुरुषों की हत्या से कई गुना अधिक होती हैं उसी समाज में एक स्त्री के चयन को लेकर इतनी नाराज़गी।

स्त्री अस्मिता, गरिमा, निजता को लेकर समाज सदैव से इतना निर्मम रहा है कि दिन पिता या भाई लड़कियों की हत्या करके गर्व महसूस करते हैं। उनकी यौनिकता, उनका चयन उनकी हत्या का कारण बनता है। जहां फोन पर लड़की को किसी अन्य लड़के से बात करने पर लड़का गोली मार देता है, जहां आए दिन विवाहित स्त्री की भी हत्या हो जाती है महज किसी से फोन पर बात करने के कारण।

उसी समाज में एक स्त्री अपने पति से अलग होकर रहना चाहती है ,किसी और से प्रेम करना चाहती है या विवाह करना चाहती है तो उसके लिए पूरा पितृसत्तात्मक समाज हाय-तौबा कर रहा है जैसे इसके पहले कभी ऐसा हुआ ही नहीं हो। इस सबमें आग में घी का काम करता है मीडिया। इसमें भी टीवी मीडिया और सोशल मीडिया तो लगभी पलीता लेकर खड़ा हो जाता है उस महिला के संवैधानिक मूल्यों को खाक करने के लिए।

इस संबंध में जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रभात दीक्षित  ने अपने शोध प्रबंध में लिखा कि

लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में मीडिया की स्वतंत्रता की अपनी विशेष जगह होती है। स्वतंत्र प्रेस की आवश्यकता पर जोर देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने कहा भी था कि व्यापक अर्थ में समाचारपत्रों की स्वतंत्रता केवल एक नारा नहीं है, किन्तु जनतांत्रिक प्रक्रिया की एक आवश्यक विशेषता भी है।3 हालांकि संविधान में मीडिया को अलग से स्वतंत्रता का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। प्रेस की स्वतंत्रता का यह अधिकार वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता(अनुच्छेद 19) में ही निहित है। मीडिया की स्वतंत्रा अपने आप में एक वृहद् अवधारणा है। ऐसा नहीं है कि समाचारपत्र या और अन्य माध्यम अपनी मर्जी के मुताबिक कुछ भी प्रकाशित या प्रसारित कर सकते हैं। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सात तरह के प्रतिबन्ध की भी बात की गयी है।

प्रभात ने आगे लिखा है किह मीडिया को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसके लिए कई नियमावली बनीं हुयीं हैं, लेकिन जिस तरह आज महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग हो रही है उससे लगता है कि ये नियमावलियां सिर्फ कागज़ पर ही रह गयीं हैं। यह कहना दुर्भाग्यपूर्ण है कि ज्यादातर मीडिया इंडस्ट्री ‘रीडरशिप ट्रैप’ के मोह में पड़ चुका है, आजकल समाचार सिर्फ सूचित करने के लिए नहीं बल्कि असंवेदी होकर संवेदनशील समाचारों के विस्तार करना हो गया है।4 जब भी बात मीडिया की नैतिकता की आती है तो एक नाम अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़पेपर एडिटर्स का भी आता है। इस सोसाइटी के आचार संहिता में स्पष्ट रूप से यह लिखा गया है कि समाचारपत्रों का सर्वप्रथम कर्तव्य लोकमत का प्रतिनिधित्व और मानवीय जीवन को उसकी समूची सार्थकता के साथ प्रतिबिंबित करना है। प्रेस परिषद् का गठन भी इसी उद्देश्य के साथ किया गया था7 25 सितम्बर 1953 को अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मलेन की स्थायी समिति ने एक 15-सूत्री आचार संहिता स्वीकार की। इसमें आखिर के कुछ बिंदु दुष्कर्म और अपराध को बढ़ावा न देने वाली सामग्री की वकालत करते हैं। इसके अलावा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (2008) के अनुसार यौन अपराधों खासकर नाबालिग, बालात्कार की पीडि़ता के मामले में मीडिया को उसकी पहचान की सुरक्षा करने का ध्यान रखना जरुरी है। घटना बेशक प्रकाशित की जाये लेकिन घटना की ओर थोड़ा संकेत भर दे दें न की लोगों की ख़ुशी की लिए उसका विस्तार करें।एक अक्टूबर 2004 को मिज्जि़मा जर्नलिस्ट द्वारा एक आचार संहिता अपनाया गया। इसके तहत कहा गया कि, निजता का सम्मान करना चाहिए। एक पत्रकार को किसी व्यक्ति खासकर उसके दुखद समय में निजता का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक पत्रकार को किसी भी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन तब तक नहीं करना चाहिए जबतक वह लोक हित या लोगों की जानने के अधिकार क्षेत्र में न हो। इसके अलावा आई.पी. सी की धारा 228A के मुताबिक पीडि़त की पहचान जाहिर कराना दंडनीय अपराध माना गया है।

एक और उदाहरण से महिलाओं के मामले में मीडिया की क्रूरता और गैरजिम्मेदारी का उदाहरण है हाथरस में क्रूरतापूर्वक सामूहिक बलात्कार और घायल होने के बाद दम तोड़ने वाली दलित महिला के लिए वास्तविक जीवन में विरोध और सोशल मीडिया पर आक्रोश के बीच, एक युवा महिला की तस्वीर वायरल हो गई। कई सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं, जिनमें से कुछ के हजारों फॉलोअर्स हैं, ने गुस्से और शोक व्यक्त करते हुए इसे ट्वीट किया।

हालाँकि, इंडिया टुडे के फैक्ट चेक में पाया गया कि वायरल तस्वीर किसी अन्य लड़की की है, जिसका घटना से पूरी तरह से कोई लेना-देना नहीं है। हाथरस पीड़िता की फर्जी तस्वीर के साथ जनभारत टाइम्स की रिपोर्ट का स्क्रीनशॉट। लैंगिक हिंसा पर बहस के दौरान, मीडिया की भूमिका और कवरेज कैसे हो रही है, इस पर भारी चर्चा हुई।

जबकि कुछ मामलों में, जैसे कि 2012 का 'निर्भया' सामूहिक बलात्कार और हत्या मामला, अथक मीडिया रिपोर्टिंग ने मामले को न सिर्फ हाईलाईट किया बल्कि इस मामले में मीडिया कोर्ट तक साथ खड़ा रहा और अंतत: न्याय का फैसला आया।

यहां यह ध्यान देने की भी जरूरत है कि मीडिया दुष्कृतय के मामलों की रिपोर्टिंग कैसे करता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 228ए बलात्कार के मामलों में पीड़ित या उत्तरजीवी का नाम प्रकाशित करने पर रोक लगाती है, जिसमें सभी श्रेणियों के बलात्कार के मामले शामिल हैं जैसे सामूहिक बलात्कार, अलगाव के दौरान एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ बलात्कार, एक महिला के साथ एक लोक सेवक द्वारा बलात्कार । उसकी हिरासत में. पीड़िता की मृत्यु के मामले में, उसके परिजन एक पंजीकृत कल्याण संगठन को इस आशय का लिखित बयान देकर उसका नाम उजागर करने की अनुमति दे सकते हैं। कानून के अनुसार, विशिष्ट मामलों में पीड़िता की पहचान उजागर की जा सकती है यदि संबंधित पुलिस अधिकारी ऐसा लिखित आदेश जारी करते हैं, या यदि पीड़िता लिखित में कहती है कि उसका नाम उजागर किया जा सकता है।

विशेष रूप से, 2012 की दिल्ली बलात्कार पीड़िता की मां ने यह कहते हुए प्रसारण किया कि उन्हें अपना नाम सार्वजनिक किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है ।

जनवरी 2018 में कठुआ में 8 साल की बच्ची के अपहरण, रेप और हत्या का मामला सामने आया था। सोशल मीडिया पर हैशटैग के साथ संदेशों की बाढ़ आ गई, जिससे उनका नाम सार्वजनिक हो गया और कई समाचार आउटलेट्स ने भी उनके नाम का इस्तेमाल किया। अप्रैल 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया से बलात्कार के मामलों को सनसनीखेज नहीं बनाने और दृश्य विवरण के संदर्भ में विस्तृत कवरेज की चौड़ाई पर एक सीमा बनाए रखने का आग्रह किया।

यह कानून 1983 से लागू किया गया है और 2012 में इसे मजबूती से लागू किया गया था।

आईपीसी के अलावा, मीडिया निकायों द्वारा इसके लिए कई अन्य दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं। उनमें से एक भारतीय प्रेस परिषद के "पत्रकारिता आचरण के मानदंड" की धारा 6 (ii) है।

ये दिशानिर्देश मीडिया रिपोर्टों से बलात्कार पीड़ितों के नाम को छिपाने की आवश्यकता से संबंधित हैं और यह भी दोहराते हैं कि पीड़ितों के नाम, तस्वीरें या उनकी पहचान से संबंधित अन्य विवरण प्रकाशित नहीं किए जाएंगे।

फिर, मीडिया को उन दिशानिर्देशों की याद क्यों दिलानी पड़ती है जिनका उसे पालन करना होता है और उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे किन नैतिकताओं का पालन करना होता है?

नोट:-अंत में निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों में से एक इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया कुलमिलाकर महिला अपराध के केसों में या महिलाओं से जुड़ विषयों में अघोषित रूप से न्यायाधीश बनकर रिपोर्टिंग करते हैं। जिसमें समाचार कम, जजमेंअ और सामाजिक मूल्यों की दूषित आभाषी छवि के साथ महिला की पहचान, निजता, गरिमा का हनन इस हद तक किया जाता है कि कई बार महिला प्रताड़ित होकर समाज से कट जाती है और कई बार तो जीवन लीला ही समाप्त कर लेती है। उस महिला की एक ऐसी छवि गढ़कर पेश कर दी जाती है कि उसका समाज में सामान्य रूप से जीवन गुजारना मुश्किल से मुश्किल होता जाता है और वह अपने मूलभूत मौलिक अधिकारों से ही वंचित होती जाती है।

 


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