पत्रकारिता की रीढ़ आंचलिक पत्रकार:गरिमा, स्वतंत्रता हर पल कसौटी पर

मीडिया            Sep 20, 2023


ममता मल्हार।

 बात 2014-15 की है बालाघाट में एक पत्रकार का जलाकर मार दिया गया। अधमरी हालत में उसे जंगलों में फेक दिया गया। वह पत्रकार उस समय खनन माफिया पर खबरें कर रहे थे और लगातार उनकी खबरें प्रकाशित भी हो रही थीं। पर जब उनको जलाकर मार दिया गया तो जिस संस्थान में वह कई सालों से सेवाएं दे रहे थे उसने उन्हें अपना कर्मचारी मानने से ही मना कर दिया।

  1. मध्य प्रदेश के सीधी में भी पुलिस ने थाने में पत्रकारों के कपड़े उतरवाकर उनकी तस्वीरें सार्वजनिक कीं।
  2. दूसरे लॉकडाउन के समय मुरैना में कुछ लोग किसी मरीज को ट्रैक्टर से लेकर जा रहे थे, एंबूलेंस नहीं मिली थी यह वीडियो वहां के तीन पत्रकारों ने वायरल कर दिया और खबर भी बनाई। इन पत्रकारों पर एफआई करके इन्हें भी फर्जी साबित कर दिया गया।
  3. उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक लगातार परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए। जब पत्रकारों ने यह खबर छापी तो पुलिस ने उनके खिलाफ सख्त धाराएं लगाकर जेल में डाल दिया। इसके विरोध में पत्रकार सड़कों पर आते हैं। जब अदालत ने पुलिस की धाराओं का परीक्षण किया तो पाया कि यह पत्रकारों का उत्पीड़न है और उन धाराओं की जरूरत ही नहीं है। पत्रकारों को इसके बाद छोड़ दिया गया।
  4. कानपुर पुलिस ने एक पत्रकार को निर्वस्त्र करके उसके गले में प्रेसकार्ड डालकर उसे सार्वजनिक रूप से घुमाया।
  5. छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके के पत्रकार कमल शुक्ला पर यदाकदा हमले होते रहते हैं। 2010 तक एक बड़े मीडिया संस्थान की नौकरी कर रहे कमल शुक्ला लंबे समय से स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं और रोज खतरों से सामना करना होता है।
  6. छत्तीसगढ़ में पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज होने के साथ-साथ उन्हें जेल भी भेज दिया जाता है। कईयों के मकान भी तोड़ दिए जाते हैं और परिवार सड़क पर आ जाता है।

 यह कुछ घटनाएं उदाहरण हैं जो बताती हैं कि पत्रकारिता की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले आंचलिक पत्रकार के साथ असल में जमीनी बर्ताव होता कैसा है। कभी भी कहीं भी उन पर पहचान का संकट आ सकता है कहीं भी जीवन खतरे में पड़ सकता है। कहीं भी उनका अपमान कर उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाई जा सकती है और मूलभूत अधिकार जिसे आप सामान्य शब्दों में रोजी रोटी कहते हैं उस पर तो आए दिन संकट बना ही रहता है।

जिन संस्थानों के वे प्रतिनिधि होते हैं वहां से उन्हें पर्याप्त वेतन तो नहीं ही मिलता और कहीं-कहीं से तो मिलता ही नहीं है। हां पर प्रचार-प्रसार से लेकर विज्ञापन कलेक्शन, वसूली का जिम्मा भी इन्हीं के ऊपर होता है।

आप कल्पना कर सकते हैं और यह भी आसानी से समझ सकते हैं कि ऐसे में कहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बचेगी और कैसे पत्रकारिता और पत्रकार की गरिमा बचेगी।

जो मीडिया संस्थान उनसे हर वो काम करवा लेते हैं जो किसी भी सामान्य व्यक्ति से जो काम नहीं हो सकता वह इन आंचलिक पत्रकारों से करवाया जाता है।

इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल कहते हैं भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह दौर क्रूर कथाएं लिख रहा है और इस पवित्र कार्य से जुड़े अधिकतर लोग चुप्पी साधे हुए हैं। समाज के अन्य बौद्धिक तबके भी समर्थन में खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। स्थिति यह है कि पड़ोसी के घर हमला होता है तो हम चुप रहते हैं और जब हम पर आक्रमण होता है तो पड़ोसी चुप्पी साधे रहता है।

वे याद करते हुए बताते हैं, कि 1980 में एक जुलूस पर गोलीकांड की मजिस्ट्रेटी जांच की गोपनीय रिपोर्ट हम लोगों ने प्रकाशित की थी तो पुलिस-प्रशासन हम लोगों के खिलाफ ज्यादतियों और उत्पीड़न की लोमहर्षक दबंगई पर उतर आया था।

हम लोग प्रदेश की राजधानी में भटके थे और उस समय के तथाकथित बड़े पत्रकारों ने हमें कोई समर्थन नहीं दिया था। मुफस्सिल पत्रकारों का संगठन आंचलिक पत्रकार संघ हमारी मदद के लिए सामने आया। मुख्यमंत्री को विधानसभा में न्यायिक जांच का ऐलान करना पड़ा था। 

श्री बादल कहते हैं भारत में पत्रकार उत्पीड़न के मामले में यह पहला केस था, जिसकी ज्यूडिशियल जांच हुई और हम लोग जीते। यही नहीं, प्रेस काउंसिल ने भी अपनी ओर से इसकी जांच कराई थी। उसमें भी जिला प्रशासन को दोषी माना गया था। आमतौर पर किसी एक मामले की दो अर्ध न्यायिक जांचें नहीं होतीं हैं। मगर, इस मामले में हुईं और पत्रकारों दोनों जांचों में जीते। न्यायिक जांच आयोग ने स्पष्ट कहा था कि पत्रकारों को अपना स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 

केंद्र और राज्य-दोनों में उन दिनों कांग्रेस की सरकार थी और पत्रकारों को न्याय मिला था। मुझे याद है कि उस मामले में हमारे समर्थन में समाज का हर वर्ग सड़कों पर उतर आया था। वकील, शिक्षक, व्यापारी, डॉक्टर आदि हमारे साथ खड़े थे। केवल सत्ताधारी विधायक हमारे विरोध में थे और जिला प्रशासन को बचा रहे थे। पर, वह काम नहीं आया। आज तक आजाद भारत का यह अपने किस्म का अकेला मामला है। 

वे आगे कहते हैं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की घटनाएं पत्रकारों के लिए सामूहिक संघर्ष का संदेश देती हैं। यही नहीं, हुक़ूमतों के लिए भी इनमें एक चेतावनी छिपी है। अगर वे इस तरह दुर्व्यवहार करती रहीं तो एक दिन वह भी आएगा, जब उनका सहयोग करने में अवाम भी आगे नहीं आएगी। 

आंचलिक पत्रकार संघ के संस्थापक विजय दत्त श्रीधर कहते हैं कि पूरी भारतीय पत्रकारिता की रीढ़ आंचलिक पत्रकारिता है। ये वे पत्रकार होते हैं जो ग्रामीण और ऐसे स्थानों की सूचना देने के मुख्य स्त्रोत बनते हैं। श्री श्रीधर कहते हैं कि आंचलिक पत्रकारों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब होती है। ये संवाददाता पूर्णकालिक नहीं होते वास्तविक रूप में अंशकालिक भी नहीं होते। ये अपने यहां जिस अखबार का प्रतिनिधित्व करते हैं उसकी तरफ से विज्ञापन कर लेते हैं, एजेंसी भी चला लेते हैं। लेकिन असलियत तो यह है कि ये आर्थिक विकल्प लेकर चलते हैं। यानि कोई किसान है कोई स्थानीय स्तर व्यापारी या आजीविका के लिए इन्हें दूसरे कामों पर निर्भर होना पड़ता है।

पत्रकारों पर एफआईआर और अन्य समस्याओं के बार में श्री श्रीधर कहते हैं कि ऐसे संकट हमेशा रहते हैं। ज्यादातर की अधिमान्यता तो होती नहीं है, हो भी जाए तो उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। पत्रकारों के संगठन भी ऐसे नहीं हैं कि इनकी लड़ाई लड़ सकें। ये जितने के हकदार हैं उतना भी उनको मिला नहीं है।

प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया में बराबर दखल रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं कि पत्रकारिता में आंचलिक पत्रकारों का स्थान अपने आप में महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि जितने भी मीडिया संस्थान हैं वो इन पर निर्भर हैं। दुर्भाग्य की बात ये है कि आंचलिक पत्रकारों को उनके काम की क्रेडिट नहीं मिलती और न ही उन्हें पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है। उन्हें अपने काम के लिए जो रिस्क लेनी होती है, जिंदगी जोखिम में डालकर करनी होती है। लेकिन इसका क्रेडिट मीडिया संस्थानों के मुख्यालय में बैठे लोगों के हिस्से में जाता है। यानि आंचलिक पत्रकार को न तो पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है और न ही उन्हें उनका वाजिब मेहनताना। ऐसे में एक पत्रकार को मूलभूत अधिकार के लिए भी जूझना पड़ता है।

उमरिया के पत्रकार सुरेंद्र त्रिपाठी कहते हैं कि आंचलिक पत्रकार प्राणी तो एक होता है मगर उसपर जिम्मेदारियां कई डाल दी जाती हैं। कुछ न्यूज एजेंसियां और मीडिया संस्थान नाम मात्र का मेहनताना खबर के अनुसार देते हैं जो कि 200 रूपये से 500 तक तय होता है। ज्यादातर बार तो मामला 200 तक ही टिका रहता है। ऐसे में हमें परिवार चलाने के लिए अन्य व्यवसाय पर तो निर्भर होना ही पड़ता है।

अनूपपुर के पत्रकार आशुतोष कहते हैं कि यहां पर ज्यादातर पत्रकार मीडिया के ही एक से ज्यादा काम और एक से ज्यादा बैनर के लिए करते रहते हैं। क्योंकि इसके बिना सामान्य मानवीय मूल्यों के अनुसार जीवन जीना मुश्किल है। 

वरिष्ठ पत्रकार और समागम पत्रिका के संपादक मनोज कुमार कहते हैं आप चार पेज का अखबार प्रकाशित करें या 24 घंटे का न्यूज चैनल चलाएं, बिना आंचलिक पत्रकारिता के आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाचार संकलन से लेकर प्रसार तक में आंचलिक पत्रकारिता की भूमिका अहम होती है। महानगरों की पत्रकारिता देहात से होकर ही जाती है। महानगरों की पत्रकारिता का जो ओज और तेज आपको दिखता है, वह आंचलिक पत्रकारिता की वजह से है।

पीने की पानी की समस्या से लेकर खंदक की लड़ाई आंचलिक पत्रकारिता लड़ती है और इस लड़ने और जूझने की खबर महानगरों की पत्रकारिता के लिए खुराक का काम करती है। हरसूद की कहानी बहुत पुरानी नहीं हुई है, इस पूरी लड़ाई को आंचलिक पत्रकारिता ने लड़ा लेकिन महानगरों की पत्रकारिता ने जब इसे अपनी हेडलाइन में शामिल किया तो वे हीरो बन गए। आंचलिक पत्रकारिता का दुख और दुर्भाग्य यह है कि वह बार-बार और हर बार बुनियाद की तरह नीचे दबा रह जाता है और महानगर की पत्रकारिता कलश की तरह खुद को स्थापित कर लेती है। हरसूद ही क्यों, भोपाल की भीषण गैस त्रासदी को किसी बड़े अखबार ने नहीं बल्कि तब के एक अनाम सा साप्ताहिक अखबार ने उठाया था। आज उस विभीषिका से वास्ता पड़ा लेकिन महानगर की पत्रकारिता छा गई। इस घटना में उस साप्ताहिक की भूमिका को इसलिए दरकिनार नहीं किया जा सका क्योंकि उसके सम्पादक आज के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केशवानी थे। यही अखबार डिंडौरी, सिलवानी, बडऩगर, इछावर, कोतमा या ऐसी किसी जगह से प्रकाशित होता तो शायद आज उसका कोई नामलेवा भी नहीं होता।

कुपोषण को लेकर महानगर के पत्रकार सेसईपुरा, डिंडौरी और मंडला के गांवों में आते हैं और हमारे स्थानीय पत्रकारों की मदद से रिपोर्ट तैयार करते हैं लेकिन उनका नाम कहीं नहीं आता है। देश और विदेश के सारे बड़े नाम और सम्मान महानगर के पत्रकारों के खाते में चला जाता है और हमारा साथी इस बात को लेकर संतोष कर लेता है कि चलो, हमारी समस्या तो सरकार की नजर में आयी। यह आदिवासी इलाकों के पत्रकारों के पीड़ा भी है। देश-विदेश से आए बड़े पत्रकार स्थानीय पत्रकारों की मदद से स्टोरी तैयार करते हैं और जब उसका प्रकाशन-प्रसारण बड़े बैनर पर होता है तो आंचलिक पत्रकार का नाम ही लापता होता हे। किसी भी अखबार की हेडलाइन या किसी चैनल की ब्रेकिंग खबर गांव से निकलकर ही आती है।

 पत्रकारिता की रीढ़ भले ही आंचलिक पत्रकारिता हो लेकिन आंचलिक पत्रकारिता के साथी सबसे ज्यादा समस्याओं से जूझते हैं। यह बात भी तय है कि बुनियाद का यह भाग्य ही होता है कि वह सबका भार उठाये।

 वे आगे कहते हैं कुछेक लोगों की बात छोड़ दें तो पत्रकारिता के लिए समर्पित साथियों के घरों में ना तो ठीक से रहने का इंतजाम है और ना ही उनके बच्चे उन बड़े स्कूलों में पढ़ पाते हैं जिनका सपना हर माता पिता का होता है। अक्सर खबरों को लेकर पटवारी और थानेदार या भी स्थानीय नेता के कोप का भाजन आंचलिक पत्रकार को बनना पड़ता है। इनसे जूझते हुए आंचलिक पत्रकार खबरें जुटाते हैं और बेखौफ लिखते हैं। लोभ-लालच से दूर होने के कारण पटवारी और थानेदारी की आवाज भी भोथरी हो जाती है।

 आंचलिक पत्रकारिता के आय का मुख्य स्रोत है स्थानीय स्तर पर मिलने वाले विज्ञापनों से प्राप्त होने वाला कमीशन, वह भी तब जब विज्ञापनदाता पूरी राशि चुकता कर दे। एक और सोर्स है अखबारों के विक्रय से होने वाला कमीशन लेकिन इसके लिए भी पहले धनराशि जमा कराना होती है। टेलीविजन चैनल ऐसी जगहों पर स्ट्रिंगर बनाते हैं जिनसे बहुत ही मामूली मानदेय मिलता है। अधिकांश स्थानों पर तो खबरों के आधार पर मानदेय का भुगतान किया जाता है।

आंचलिक पत्रकारिता पर पत्रकारिता की कंटीली डगर नामक शीर्षक से किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार गणेश झा कहते हैं।

आंचलिक पत्रकारिता में खतरे भी बहुत हैं आंचलिक पत्रकारिता बड़ी कठिन और रिस्की पत्रकारिता मानी जाती है। ऐसा इसलिए कि इसमें खबरें एजेंसी की तरह कहीं बाहर से नहीं आतीं, खबर आपको खुद निकालनी और लिखनी पड़ती है। अमूमन पत्रकार जहां जिस इलाके में रह रहा होता है वहां की और उसके आसपास की ही खबरें लिखता है। उसकी खबरें किसी को अच्छी लगती है तो कुछ को बुरी भी लगती है। इलाके के लोग पत्रकार को जान रहे होते हैं। इलाके के लोग उसकी इज्जत करते हैं और सूत्र बनकर उसे खबर भी देते हैं। और उसकी लिखी खबर जिसके खिलाफ होती है उससे उसका बिगाड़ भी हो जाता है और कई बार लोगों से दुश्मनी भी हो जाती है। खबर जिसके खिलाफ होती है वह उस पत्रकार को धमकियां भी दे देता है। कई बार पत्रकार पर हमले भी हो जाते हैं। यहां तक कि हत्याएं भी हो जाती हैं। धमकियां मिलना तो बिल्कुल आम बात होती है। यह भी सच है कि धारदार सच्चाई वाली खबरें लिखने वाला पत्रकार हमेशा निशाने पर बना रहता है।

 1 नोट:- अगर आंचलिक पत्रकारों की वास्तविक स्थिति पर बात की जाए तो एक लाईन में यह कहा जा सकता है पत्रकारिता की रीढ़ कहे जाने वाले मीडिया के इस भाग के कर्मियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कदम-कदम पर बाधित है क्योंकि संभवत:ऐसा कोई मूल्य नहीं बचता जिसके हनन होने या चोटिल होने का खतरा इन पर न मंडराता हो। इनकी पत्रकारिता में पहचान के संकट से लेकर आर्थिक परेशानियों की वजह से गरिमामय जीवन और स्वतंत्रता हर पल कसौटी पर होती है।

 2 नोट:-इस कहानी को करने के लिए खंडवा, धार, चंबल एरिया, छतरपुर, ग्वालियर,सागर, दमोह, नरसिंहपुर, खरगोन, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर, इटारसी,सीहोर, इछावर आदि दूरदराज के इलाकों के पत्रकारों से बातचीत की गई। उनकी निजता का सम्मान करते हुए नाम नहीं लिखे जा रहे हैं।

 

 


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