मल्हार मीडिया भोपाल।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल मंगुभाई पटेल का कहना है कि भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर का सामंजस्य का भाव होना चाहिए। इनमें समाई बौद्धिक संपदा का आदान-प्रदान होता है नि:संदेह इससे राष्ट्रीय एकजुटता का भाव तो पैदा होगा ही। हम हिंदी को और भी अधिक समृद्ध कर सकेंगे।
राज्यपाल श्री पटेल आज माधवराव सप्रे संग्रहालय में 'द्विवेदी- सप्रे युगीन प्रवृत्तियां और सरोकार’ विषय पर दो दिनी राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ करते हुए बोल रहे थे। सप्रे संग्रहालय द्वारा समसामयिक सवालों पर विमर्श का यह अनुष्ठान उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में किया जा रहा है।
शुभारंभ सत्र की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. केजी सुरेश ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान की प्रधान संपादक डॉ. अमिता दुबे और आचार्य द्विवेदी स्मृति राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष विनोद कुमार शुक्ल उपस्थित थे। दो दिनी संगोष्ठी में शुभारंभ के अलावा दो सत्रों में विभिन्न विषयों पर विमर्श के सत्र हुए।
राज्यपाल ने आगे कहा कि वर्तमान समय में युवाओं को जागृत करना बहुत जरूरी है। यह कार्य सप्रे संग्रहालय पूरी ईमानदारी के साथ कर रहा है। उन्होंने कहा कि यहां पहले भी मुझे कई आयोजनों में आने का अवसर मिला तब मैंने महसूस किया कि यहां नई पीढ़ी भागीदारी बढ़ाने के प्रयास होते हैं।
यह समाज के लिए बहुत ही श्रेयस्कर है। उन्होंने अमृत काल में सप्रे संग्रहालय की गतिविधियों की सराहना करते हुए, उसे भावी पीढ़ी को राष्ट्र के गौरव से जोड़ने का सेवा प्रकल्प बताया।
उन्होंने कहा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कर्मयोगी माधव राव सप्रे ने बीसवीं सदी के आरंभिक तीन दशकों में समाज का बौद्धिक नेतृत्व किया। उनके महान अवदान से युवाओं को परिचित कराने की पहल सार्थक प्रयास है।
संगोष्ठी राष्ट्रीय एकता के सूत्र के रूप में हिंदी की भूमिका के वैचारिक प्रवाह को तेज करेगी। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रोफेसर केजी सुरेश ने कहा कि आचार्य द्विवेदी और माधव राव सप्रे समकालीन और बहुआयामी व्यक्ति थे।
उन्होंने भारतीय संस्कृति पर गहरी छाप छोड़ी है। युगीन साहित्य की धारा का नेतृत्व किया है। उनकी विशिष्टता थी कि रचनात्मक क्षमता में उनसे बेहतर प्रतिभाओं की रचनाधर्मिता का वे आदर्श थे। उन्होंने कहा कि ऐसा ही बौद्धिक नेतृत्व वर्तमान समय की आवश्यकता है। उन्होंने भी युवा शक्ति को इतिहास के साथ जोड़ने और साहित्य पत्रकारिता की पारस्परिकता की परंपरा को जीवित रखने के लिए सप्रे संग्रहालय के प्रयासों की सराहना की।
आरंभ में संग्रहालय के संस्थापक संयोजक विजयदत्त श्रीधर ने स्वागत् वक्तव्य देते हुए संगोष्ठी के उद्येश्यों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि इसके पीछे हमारा भाव हिंदी की सेवा में अपने आपको अर्पित करने वाली विभूतियां आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और कर्मयोगी माधवराव सप्रे का स्मरण तो करना ही है, साथ ही समसामयिक मुद्दों पर विमर्श का वातावरण भी तैयार करना है।
इस सत्र में उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान की संपादक डॉ. अमिता दुबे ने भी अपने विचार रखे। शुभारंभ सत्र का संचालन संग्रहालय की निदेशक डॉ. मंगला अनुजा ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन विनोद कुमार शुक्ल ने किया।
हमें हमारे पूर्वजों के पथ पर अग्रसर होना होगा
शुभारंभ सत्र के तत्काल बाद डॉ. अमिता दुबे की अध्यक्षता में पहला वैचारिक सत्र हुआ। जिसमें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अवदान पर वरिष्ठ पत्रकार गौरव अवस्थी और कर्मयोगी माधवराव सप्रे के अवदान पर राजेश बादल ने विचार रखे। द्विवेदी जी के योगदान पर गौरव अवस्थी ने कहा कि आज जो हिंदी का वर्तमान स्वरूप है वह आचार्य जी की ही देन है। जब वे सरकारी नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादक बने तब हमारी हिंदी व्याकरण सम्मत नहीं थी। ऐसे समय में उन्होंने हिंदी को सौंदर्य स्थापित करने की दिशा में प्रयास शुरु किये। सरस्वती के माध्यम से हिंदी सौष्ठव बढ़ाया और उसे समृद्ध किया। इसके अलावा उन्होंने उस समय में लोगों को स्वच्छता और ग्रामोद्योग के प्रति जागरुक भी किया। सप्रे जी के योगदान का स्मरण करते हुए राजेश बादल ने कहा कि स्वतंत्रता से पहले हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के विकास में गैर हिंदीभाषियों का बहुत बड़ा अवदान रहा है। इनमें महात्मा गांधी, कन्हैया लाल मानक लाल मुंशी, सी राजगोपालाचारी, प्रेमचंद और सरदार भगत सिंह जैसे नाम अग्रणी हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर यदि किसी का नाम है तो वह है माधवराव सप्रे का ।
सप्रे जी ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी से भी कई बरस पहले पूर्ण स्वराज और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अभियान छेड़ा था। उन्होंने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को हिन्दी केसरी में प्रकाशित कर स्वतंत्रता सेनानियों के पक्ष में वातावरण बनाया। जिसके परिणाम भी उन्होंने और उनके साथियों ने भुगते। लेकिन हिंदी पत्रकारिता की अलख जगाये रहे। सत्र की अध्यक्षता कर रही डॉ. अमिता दुबे ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि आज हम इंटरनेट के युग में जी रहे हैं। तब भाषा और साहित्य की शुचिता पर किसी का ध्यान नहीं है। ऐसे में हम आचार्य द्विवेदी और सप्रे जी जैसे हमारे पूर्वजों के स्मरण के साथ ही कर्मपथ पर भी अग्रसर होना होगा। तभी इस तरह के आयोजनों की सार्थकता है। सत्र का संचालन मल्हार मीडिया की संपादक पत्रकार ममता मल्हार ने किया।
विभूतियों का हुआ सम्मान
इस अवसर पर संग्रहालय द्वारा शिक्षा और सृजनात्मकता के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार भी प्रदान किये गये। इस कड़ी में मुख्यअतिथि राज्यपाल मंगुभाई पटेल ने डॉ. हरिकृष्ण दत्त शिक्षा सम्मान से डॉ. कृपाशंकर चौबे और महेश गुप्ता सृजन सम्मान से आचार्य स्मृति रजत जयंती महोत्सव के संयोजक गौरव अवस्थी को प्रदान किए। सम्मान के तहत शॉल,श्रीफल, कलम और नगद राशि प्रदान की जाती है। कार्यक्रम में राज्यपाल को पुस्तक ज्ञान तीर्थ सप्रे संग्रहालय और चित्र भेंट किए गए।
लोक भाषा के बिना अधूरा है हिंदी साहित्य
पहले दिन हुए वैचारिक सत्रों के दूसरे क्रम में लोक कला मर्मज्ञ शैलेन्द्र कुमार शर्मा की अध्यक्षता में विभिन्न विषयों पर विमर्श हुए। इस सत्र में 'जिस तरह तू बोलता है,उस तरह तू लिख’ विषय पर वीणा के संपादक राकेश शर्मा ने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता की भाषा में अंतर न आने देना चाहिए। भाषा विचारों और भावों की अभिव्यक्ति का ही माध्यम है। उन्होंने सरकार में अन्य विभागों की तरह भाषा मंत्रालय बनने की जरूरत बतलाई ताकि वह भाषा के विकास और उसकी समस्याओं के निदान के कार्य कर सके।
समाचार माध्यमों की भाषा पर वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी ने कहा कि हर माध्यम की भाषा अलग है। उसका अपना वैशिष्ट्य है। उन्होंने कहा कि आज का समय इंटरनेट और सोशल मीडिया का समय है। इस समय में हम इमोजी युग में जी रहे हैं। एक इमोजी बहुत कुछ कह देता है। हम शब्दों से ज्यादा संकेतों में बात कर रहे हैं तो लग रहा है कि हम फिर उसी संकेत के दौर में पहुंच रहे हैं।
जनसंपर्क विभाग के पूर्व अपर संचालक और विचारक लाजपत आहूजा ने कहा कि देश के इतिहास पर हम गौर करें तो जहां साल 1947 हमारी अंगे्रजों से आजादी का साल था तो वर्ष 1991 ने हमें आर्थिक रूप से स्वतंत्र किया। सत्र की अध्यक्षता कर रहे शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने 'हिंदी के प्राण: लोकभाषाएं’ विषय पर कहा कि लोक भाषा यांत्रिक जड़ता को तोड़ती है।
हिंदी साहित्य को समृद्ध करने और उसके सौंदर्य को बढ़ाने में हमारी लोक भाषाएं बड़ी सहायता कर सकती हैं। लोक भाषाओं के बिना हिंदी साहित्य अधूरा है। हमें विदेशी भाषाओं का मोह छोड़कर हमारी इन धरोहरों को बढ़ाने पर विचार करना चाहिए। सत्र का संचालन वरिष्ठ संपादक एवं पत्रकारिता के प्राध्यापक शिवकुमार विवेक ने किया तथा आभार प्रदर्शन फिल्म समीक्षक विनोद नागर ने किया।
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