संजय स्वतंत्र।
दो स्त्रियों से ऐसी बर्बता? ओह! आदिम युग में भी ऐसा नहीं किया होगा। वह दृश्य देख कर सिर शर्म से झुक गया है। हम जैसे पत्रकारों और लेखकों के लिए यह बेहद ही भावुक कर देने वाला पल है। जी कर रहा है कि कलम तोड़ कर रख दूं। बहुत लिख लिया। कंप्यूटर के कीबोर्ड को सरका कर दो बूंद आंसू बहा लूं। जो संवेदनशील हैं उनको कल रात नींद नहीं आई होगी।
कल उस वीडियो को लेकर देशभर के नागरिक सदमे में आ गए। सोशल मीडिया पर खबर आग की तरह फैल गई। पूरे मीडिया में इस खबर को लेकर गहमागहमी है। सचमुच यह अक्षम्य घटना हुई है। अगर इस पर कार्रवाई नहीं हुई तो इंसाफ दम तोड़ देगा। राजनेताओं से लेकर न्यायाधीशों में बेचैनी है। कल इस खबर पर और अीगे के घटनाक्रम पर नजरें गड़ाए पत्रकारों तथा संपादकों में भी उद्विग्नता थी। शीर्ष अदालत की पीठ तक को कहना पड़ा कि वह वीडियो काफी परेशान कर देने वाला है।
देश में जब ऐसी घटना होती है तब हम पत्रकारों के लिए यह बेहद मुश्किल भरा समय होता है कि आपके सामने इसे कैसे रखा जाए। खासतौर से संवेदनशील और नारी की अस्मिता-गरिमा से जुड़ी खबरों के मामले में। कोशिश होती है कि पीड़ित का नाम और वह सभी पहचान हटा दिए जाएं जिससे उसे भविष्य में दिक्कत न हो। और ऐसा निर्देश भी है।
चुनौती तब और गहरी होती है जब यह तय करना होता है कि यह खबर आपको किस तरह दें। हालांकि टीआरपी के लिए बेताब मीडिया ऐसी खबरों को भी सनसनी बना देता है।
पिछले तीन दशकों की पत्रकारिता में मैंने देखा है कि ऐसी खबरें बहुत व्यथित करती हैं। ऐसे समाचार आप तक पहुंचने से पहले हमारा हृदय छलनी होता है। हमें रात-रात भर नींद नहीं आती। पिछले दस-पंद्रह सालों की घटनाओं की सूची रखूंगा तो चर्चा लंबी हो जाएगी।
सच तो यही है कि हम लोग बेहद विचलित मन से ऐसी खबरें आपको देते हैं। कई बार तो उन खबरों के शीर्षक बनाते समय आंखें नम हो उठीं। लेकिन कल का दिन तो वाकई रुला देने वाला था। सभी स्तब्ध थे। क्या जनता और क्या नेता और क्या पत्रकार। सब के सब शर्मसार।
आज जनसत्ता ने शोक की इस घड़ी में कहा है कि अखबार की दुनिया में प्रमुख खबर का शीर्षक हर रोज अपने तरह की परीक्षा है। आज हम निशब्द हैं। देश इक्कीसवीं सदी की दहलीज लांघ कर कई कदम आगे जा चुका है, लेकिन मणिपुर में हैवानियत का जो खेल हुआ, वो हमें आदिम युग में ले गया। विकास के दावे ध्वस्त हो गए और वे सब नंगे हो गए जो इस पर चुप हैं, बोल रहे हैं या खेल रहे हैं। घटना पर देश भर में शर्म है, शोक है। पर इन सब के बीच सियासत का का भी खेल है।
संपादक मुकेश भारद्वाज ने स्वीकार किया है कि उस भयावह घटना पर उनके पास कोई शीर्षक नहीं है, सिवाय नि:शब्द रह जाने के। सचमुच ऐसी घटना पर शीर्षक बनाना हम सभी के लिए अग्निपरीक्षा से कम कभी नहीं रहा। शर्मसार करने वाली जब तक ऐसी खबरें आएंगी, यह चुनौती बरकरार रहेगी। दुनिया भर के पुरुष जब तक स्त्रियों का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक मुझे नहीं लगता कि ऐसी घटनाएं रुकेंगी। यह पुरुषों को तय करना है कि वे ‘जेंटलमैन’ बनना चाहते हैं या ‘जानवर’। समाज में जब तक ऐसे जानवर रहेंगे, ऐसी घटनाएं होती रहेंगी। इन्हें रोकना हम सभी का कर्तव्य है। ... तो सबसे पहले इन जानवरों की आप शिनाख्त कीजिए। यही हमारा पहला कदम है।
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