विजयदत्त श्रीधर!
जयंतियाँ हों या शताब्दियाँ, ये हमें परंपरा के विश्लेषण और आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करती हैं। जब गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ के जन्म का सौवाँ साल हुआ तब ‘जनसत्ता’ में तद्विषयक लेख का शीर्षक दिया गया - एक था ‘प्रताप’ एक थी ‘प्रभा’।
जाहिर है, ‘था’ और ‘थी’ जता रहे थे कि एक सौ साल पहले ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ जन्मे थे, सन 1913 में, अब नहीं रहे। (कदाचित् यह संकेत भी कि वर्तमान पर्यावरण में ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ के लिए गुंजाइश कहाँ?) ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी और ‘प्रभा’ के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी।
दोनों प्रखर संपादक मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के उन्नायक, दोनों पत्रकार-प्रतिभाओं के पुरस्कर्ता, दोनों साहित्य मनीषी, दोनों को हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व का सम्मान मिला, दोनों स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा और दोनों ही मन-वचन-कर्म से अनन्य, सहोदर-सी आत्मीयता से सराबोर।
विद्यार्थी जी के कारागारवासी होने पर चतुर्वेदी जी ने ‘प्रताप’ का संपादन दायित्व वहन किया, तो ‘प्रभा’ के बन्द होने पर विद्यार्थी जी ने उसका पुनर् प्रकाशन किया और संपादन भी।
‘प्रताप’ ने समाचार-विचार प्रधान पत्रकारिता का आदर्श उपस्थित किया तो ‘प्रभा’ ने साहित्यिक पत्रकारिता का मानक रचा। राष्ट्रीयता दोनों का ही मुख्य स्वर, भाव और हेतु रहे।
नौ नवंबर 1913 को जब ‘प्रताप’ का जन्म हुआ तब गणेशशंकर विद्यार्थी 23 वर्ष के युवा थे। उनके पत्रकारी खाते में कुल जमा दो साल का ‘सरस्वती’ और ‘अभ्युदय’ का सह-संपादन का अनुभव था। परंतु इतने अल्प समय में ही उन्होंने अपनी विलक्षण मेधा का परिचय दे दिया था।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपने संस्मरण में इसे रेखांकित किया है। उन दिनों किसी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन करते समय संपादक अपनी नीति और उद्देश्य की घोषणा करते थे। वे उसी पथ पर चलते थे। मार्ग में आने वाली बाधाओं, संकटों और चुनौतियों का मुकाबला करते थे।
स्वाभिमान तथा स्वतंत्रता के लिए बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने को तैयार रहते थे। ‘प्रताप’ ने प्रवेशांक (9.11.1913) में लिखा - ‘‘समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है, और, इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार और सच्चरित्रता की वृद्धि से है। भारत को इस उन्नतावस्था तक पहुँचाने के लिए असंख्य उद्योगों, कार्यों और क्रियाओं की आवश्यकता है।
इनमें से मुख्यतः राष्ट्रीय एकता, सुव्यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगपूर्ण शिक्षा का प्रचार, प्रजा का हित, भला करने वाली सुप्रबंध और सुशासन की शुद्ध नीति का राजकार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों और अत्याचारों का निवारण तथा आत्मावलम्बन और आत्मशासन में दृढ़ निष्ठा है। हम इन्हीं सिद्धांतों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बनाएँगे। हम अपनी प्राचीन सभ्यता और जातीय गौरव की प्रशंसा करने में किसी से पीछे नहीं रहेंगे, और अपने पूजनीय पुरुषों के साहित्य, दर्शन, विज्ञान और धर्मभाव का यश सदैव गाएँगे।
किन्तु, अपनी जातीय निर्बलताओं और सामाजिक कुसंस्कारों तथा दोषों को प्रकट करने में हम कभी बनावटी जोश या मसहल-वक्त से काम न लेंगे, क्योंकि हमारा विश्वास है कि मिथ्याभिमान जातियों के सर्वनाश का कारण होता है।’’
युवा संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी का चिन्तन, युगबोध और सामाजिक सरोकारों से सम्पृक्त संपादकीय निष्ठा कितने प्रौढ़-परिपक्व और गुरु-गंभीर थे, इसका प्रमाण उनके संपादकीय उद्घोष से मिलता है।
यह उद्घोष आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी विरचित इस दोहे के रूप में ‘प्रताप’ के प्रत्येक अंक में मुखपृष्ठ पर शीर्षक के ठीक नीचे लिखा होता था -
‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।’’
जन-पक्षधर पत्रकारिता के कारण ‘प्रताप’ को बारम्बार मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जमानतें माँगी गईं और जब्त की गईं, जेल जाना पड़ा। बीच-बीच में ‘प्रताप’ का प्रकाशन अवरुद्ध भी हुआ। परंतु जिस जन-पक्षधरता के कारण संकट आए उस जनता ने ‘प्रताप’ का साथ देने में कोताही नहीं की।
विद्यार्थी जी ने भी ‘प्रताप’ को ट्रस्ट का अखबार बनाया। वे उन संपादकों में थे जो मानते थे कि संपादक के नाम का उल्लेख एक अंक में एक बार से अधिक नहीं होना चाहिए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन (1930) की अध्यक्षता विद्यार्थी जी ने की।
‘प्रताप’ में इसकी रपट तो छपी पर चित्र छापने की अनुमति उन्होंने नहीं दी। विद्यार्थी जी के संपादकीय आदर्श की अनुकरणीय विशिष्टि है पत्र में छपने वाले एक-एक अक्षर की नैतिक और वैधानिक जिम्मेदारी स्वीकार करना। संवाद लेखक का नाम प्रकट नहीं करना, जेल जाने की कीमत पर भी नहीं।
‘प्रताप’ पत्रकारिता की पाठशाला भी रहा। शहीद-ए-आजम भगत सिंह की क्रांतिकारिता को ‘प्रताप’ में ठाँव मिला। दशरथ प्रसाद द्विवेदी (गोरखपुर, स्वदेश, 1919), श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल (आगरा, 1925, सैनिक) देवव्रत शास्त्री (पटना, 1934, नवशक्ति) प्रभृति स्वनामधन्य संपादकों ने विद्यार्थी जी के सान्निध्य में ही संपादन कला का पाठ पढ़ा था।
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ सर्वांश में विद्यार्थी जी की निर्मिति थे। श्रीराम शर्मा, रमाशंकर अवस्थी, प्रकाश नारायण शिरोमणि, प्रभृति संपादक-पत्रकार ‘प्रताप’ की देन हैं।
चाहे किसानों और मजदूरों का शोषण हो या उन पर अत्याचार, स्वतंत्रता की अभिलाषा हो या पुलिस और फिरंगी हुकूमत की प्रताड़ना का प्रतिरोध, धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों की लूट, विषमताएँ और जाति प्रथा के अभिशाप, भूख, बेकारी, बेगारी, अशिक्षा, बीमारी - इनके कारक और कर्ता, सभी के खिलाफ ‘प्रताप’ ने बेबाक कलम चलाई।
उनकी कथनी और करनी एक थे। विद्यार्थी जी सांप्रदायिकता के विरुद्ध थे। शहीद-ए-आजम भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव की फिरंगियों द्वारा कायराना फाँसी के दो दिन बाद कानपुर में भड़काई गई दंगों की ज्वाला को शांत करने के लिए योद्धा पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी सड़कों पर निकल पड़े। दंगाइयों के हाथों 25 मार्च 1931 को उनका बलिदान हो गया। अपने आदर्शों पर अडिग निष्ठा की इससे बड़ी मिसाल कहाँ मिलेगी?
तभी तो गणेशजी की शहादत पर महात्मा गांधी को भी स्पृहा हुई थी।
विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व का एक और पक्ष विचारणीय है। वह है भविष्य में झाँकने की क्षमता। विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक ‘पत्रकार कला’ (1930) की भूमिका में उन्होंने लिखा - ‘‘यहाँ भी अब बहुत से समाचारपत्र सर्व-साधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं।
एक समय था, इस देश में साधारण आदमी सर्व-साधारण के हितार्थ एक ऊँचा भाव लेकर पत्र निकालता था और उस पत्र को जीवन-क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था। आज वैसा नहीं हो सकता।’’
कुछ ही समय पश्चात यहाँ के समाचारपत्र भी मशीन के सदृश हो जाएँगे, और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुरजे।
व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अन्तर न रहेगा, अन्याय के विरुद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों के बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खिंची हुई लकीर पर चलना।
विद्यार्थीजी पत्रकार के लिए यह कसौटी मानते थे - ‘‘पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है। वह अपने विवेक के अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है।
वह जो कुछ लिखे, प्रमाण और परिणाम का विचार रख कर लिखे और अपनी गति-मति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे।’’
गणेशशंकर विद्यार्थी की विरासत और उस युग के मनीषी संपादकों की सीखों और नसीहतों, चेतावनियों और प्रेरणाओं के आईने में क्या आज की पत्रकारिता, आज का मीडिया, कहीं अपना अक्स तलाश पाएगा? वस्तुतः जरूरत आत्मावलोकन की है।
यह विचार करने की आवश्यकता है कि क्या हम विद्यार्थी जी की परंपरा से अपने आपको जोड़ने के अधिकारी हैं?
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