मल्हार मीडिया भोपाल।
आज चुनाव मनोवैज्ञानिक युद्ध की तरह लड़े जा रहे हैं। जिस तरह युद्ध जीतने के लिए छद्म प्रयास किए जाते थे उसी तरह भ्रमपूर्ण वातावरण बनाकर मतदाता को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित किया जा रहा है। मीडिया की भूमिका सत्यान्वेषक की हो सकती है, पोल या सर्वे के जरिए मतदाता को प्रभावित करने के प्रयास नहीं किए जाने चाहिए।
सोशल मीडिया पर वोटर को भ्रमित करने वाली जानकारी जरूर परोसी जा रही है लेकिन वोटर को भांपना बहुत कठिन है। कभी चुनावों में धनबल और बाहुबल की भूमिका होती थी लेकिन धीरे-धीरे अब बाहुबल बेअसर होता दिख रहा है।
यह निष्कर्ष है मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित माधवराव सप्रे संग्रहालय एवं शोध संस्थान में आज संपन्न हुई विचार गोष्ठी में आये विचारों का। यहां मीडिया और मतदाता विषय पर शहर के प्रबुद्धजनों द्वारा विचा-विनिमय किया गया। जिसमें प्रशासनिक क्षेत्र, पत्रकारिता, साहित्य तथा अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों ने हिस्सेदारी की।
गोष्ठी की शुुरुआत करते हुए टीवी पत्रकार ब्रजेश राजपूत ने विभिन्न राज्यों में चुनावी कवरेज को केन्द्र में रखते हुए कहा कि भले ही आज सोशल मीडिया के जरिए तरह-तरह की सामग्री परोस कर मतदाता को भ्रमित किया जा रहा हो, लेकिन मतदाता की थाह पाना आसान नहीं होता है। किसी सभा या रैली में भीड़ जुटना उसके समर्थकों की संख्या का पैमाना नहीं मान सकते।
वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत नायडु ने भी अपने ऐसे ही अनुभवों के आधार पर कहा कि हर राज्य की चुनावी परिस्थतियां अलग होती हैं और पत्रकारों को उस हिसाब से स्वयं को ढालना होता है। मीडिया पर प्रेशर तो आते रहते हैं और आएंगे भी उनके बीच से ही अपना दायित्व निभाते हुए वोटर के सामने सही स्थिति रखनी चाहिए ताकि वह अपना मत सही व्यक्ति को दे सके।
सेवा निवृत्त पुलिस अधिकारी अरुण गुर्टू ने भी एक सरकारी अधिकारी के रूप में किए कार्यों के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि आज स्थितियां बहुत बदल गईं हैं। किसी समय में धनबल और बाहुबल का चुनावों में बड़ा रोल होता था लेकिन अब बाहुबल उतना असरदार नहीं रहा। अब जेल में रहकर चुनाव नहीं जीता जा सकता।
उन्होंने कहा कि मीडिया चुनाव लड़ रहे दोनों पक्षों की स्थिति समाज के सामने लाता है यही उसकी ताकत है। मीडिया का रोल बहुत महत्वपूर्ण है।
वरिष्ठ पत्रकार राकेश पाठक का मानना था कि मीडिया सत्यान्वेषक की भूमिका निभा सकता है लेकिन मीडिया घरानों को सर्वे या एक्जिट पोल आदि के जरिए मतदाता के विचारों को प्रभावित करने के प्रयास नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भले ही सोशल मीडिया द्वारा भ्रमित करने की बातें आ रही हो लेकिन जब सोशल मीडिया नहीं था तब इमरजेंसी के बाद जिस तरह पूरे देश ने अपना एक जैसा निर्णय दिया वह मतदाता की समझ का सबसे बड़ा प्रमाण है।
श्री पाठक ने भी स्वीकारा कि मतदाता शिक्षित हो या अशिक्षित उसे मीडिया आसानी से नहीं भांप पाता है।
वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र हरदेनिया का कहना था कि हर चुनावों में बुनियादी फर्क आते हैं। आज करीब 10 करोड़ नए मतदाता आये हैं, सोशल मीडिया की चपेट में सबसे ज्यादा यही वर्ग है।
सोशल मीडिया पर बेसिर-पैर की बातें प्रसारित कर भ्रम का वातावरण बनाकर मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जा रहा है। आज चुनाव भी मनोवैज्ञानिक युद्ध की तरह लड़े जा रहे हैं।
चर्चा में हिस्सा लेते हुए प्रो. रत्नेश ने भी माना कि आज बाहुबल कम हुआ। जगदीश चंद्रा ने प्रत्याशी के बारे में सही-सही जानकारी वोटर के सामने लाना मीडिया का दायित्व बतलाया। साहित्यकार रामवल्लभ आचार्य ने कहा कि आज जनता से जुड़े मुद्दों को स्पष्ट नहीं किया जा रहा है, इससे वह भ्रमित है।
पत्रकार शशांक दुबे ने सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की जरूरत पर बल दिया। सुशील केडिया ने मीडिया को सरकारी दबाव से बचने की सलाह दी।
वेब पत्रकार ममता यादव ने भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह वेब मीडिया को नियंत्रित किए जाने पर चिंता जताई।
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी रमाकांत दुबे ने कहा कि मीडिया मतदाता के सामने प्रत्याशी की सही तस्वीर सामने लाये।
चर्चा में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्रों ने सवाल-जवाब के जरिए अपनी जिज्ञासाओं का समाधान किया।
आरंभ में सप्रे संग्रहालय के संस्थापक-संयोजक विजयदत्त श्रीधर ने कहा कि आयोजन के पीछे हमारा उद्देश्य इतना ही है कि मीडिया मतदाता जाग्रत होने के साथ सही दिशा में प्रेरित करने की भूमिका निभाये। गोष्ठी का संचालन पत्रकार राकेश दीक्षित ने किया।
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