राकेश कायस्थ।
उन दिनों पत्रिकाएं चाहे जितनी भी पुरानी हो जायें संजोकर रखी जाती थी। घर में कई पत्रिकाएं आती थीं लेकिन मेरे मतलब की पत्रिका सिर्फ धर्मयुग हुआ करती थी, क्योंकि उसमें ढब्बूजी के अलावा क्रिकेट पर कुछ ना कुछ ज़रूर हुआ करता था।
पुरानी पत्रिकाओं के बीच रविवार का एक अंक सामने आया। ब्लैक एंड व्हाइट पन्नो को पलटते हुए एक लेख पर नज़र पड़ी जिसका शीर्षक था `दुसाध्य वीणा'
पढ़ने की कोशिश की लेकिन पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा। थोड़ा बड़ा हुआ तो पत्रिकाओं के ढेर में पड़े रविवार के उसी अंक पर नज़र पड़ी। दोबारा पढ़ने की कोशिश की। सरस्वती पूजा के आसपास वाले अंक में शिक्षा और संस्कृति पर प्रांजल हिंदी में लिखा गया कोई निबंध था, लेकिन समझ में तब भी कुछ ज्यादा नहीं आया। लेकिन लेखक का नाम ज़रूर याद हो गया-- राजकिशोर।
उसके बाद वह दौर आया जब मेरे बडे़ भाई बहनो ने घर पर लोकल अखबार बंद करवाकर नवभारत टाइम्स और जनसत्ता शुरू करवाया। रांची में दोनो अख़बार शाम को आते थे। पाठक के रूप में राजकिशोर से मेरा परिचय सही मायने में उसी दौर में शुरू हुआ।
बचपन में मैने उन्हे जितना दुरुह माना था,उसके मुकाबले बहुत सरल और सहज भाषा में लिखने वाले लेखक थे। पाठक की उंगली पकड़कर उसे तार्किकता की गलियारे में आहिस्ता-आहिस्ता
कब ले जाते थे, यह पढ़ने वाले को पता नहीं चलता था।
पढ़ता गया और मुरीद होता गया। राजकिशोर के अनगिनत लेख अब भी गाहे-बेगाहे जेहन में दस्तक देते हैं। 26 जनवरी की परेड देखने एक नौजवान आसपास के किसी गांव से दिल्ली आया था। पब्लिक टॉयलेट होता नहीं था, उस वक्त। सड़क के किनारे कहीं शौच के लिए बैठा और दिल्ली पुलिस की गोली का शिकार हुआ था। राजकिशोर ने एक बेहद मार्मिक लेख लिखा था-- हत्यारे शहर में दिलीप।
घीसू, माधव और प्रेमचंद शीर्षक से लिखा गया राजकिशोर का लेख स्मृतियों में अभी तक ताजा है। यह लेख हिंदी लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि उस लेख के जवाब में लिखा गया था, जिसमें यह कहा गया था कि जनवादी और मानवीय होने के बावजूद प्रेमचंद अपनी कुछ रचनाओं में जातिवादी लगते हैं।
तर्क राजकिशोर के लेखन की सबसे बड़ी ताकत थी। भाषा का प्रवाह अनोखा था। व्यंग्य में बहुत पैनापन था, जिसका इस्तेमाल वे बहुत कम और काफी सतर्कता से किया करते थे। राजकिशोर परंपरागत अर्थ में साहित्यकार नहीं थे और शायद होना भी नहीं चाहते थे। लेकिन साहित्य को लेकर उनकी समझ बेहद गहरी थी।
हिंदी की मशहूर कृतियों पर लिखी गई उनकी टिप्पणियां किसी किताब में संकलित थी। जयशंकर प्रसाद के नाटक ध्रुवस्वामिनी पर लिखी गई टिप्पणी अब भी याद है। उन्होने एक उपन्यास भी लिखा था, जिसका अंश इंडिया टुडे ने छापा था। उनके संपादन में प्रकाशित आज के प्रश्न सीरीज़ के कई अंक आज भी दिल्ली के मेरे घर में मौजूद हैं।
ग्रेजुएशन का इम्तिहान देकर रिजल्ट का इंतज़ार किये बिना दिल्ली आ गया और सीधे टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग की ग्लैक्सी में गिरा। जो बड़े-बड़े नाम सुनता आया था, वे सब एक जगह मौजूद थे। वहीं वरिष्ठ सहायक संपादक राजकिशोर का भी केबिन था।
पहला लेख लेकर पहुंचा तो उन्होने बिना सिर उठाये जवाब दिया-- छोड़ जाइये, देखकर बताउगा। दो दिन बाद पहुंचा और लेख के बारे में पूछा, उन्होने जवाब दिया-- नहीं छप पाएगा।
मैंने पूछा-- वजह बता देंगे तो मेरे लिए बेहतर होगा।
उन्होने सपाट आवाज़ में कहा-- अख़बार देखते रहिये वजह आपको खुद समझ में आ जाएगी।
कई लेख रिजेक्ट करने के बाद जब उन्होने पहली बार कुछ छापा तो लगा कि लॉटरी लग गई है।
लेकिन नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर छपना एक संघर्ष था। संघर्ष, राजकिशोर जी का सामना करने को लेकर भी था, जिनसे ना जाने क्यों डर सा लगता था।
उन दिनों नवभारत टाइम्स में फोकस नाम का एक पन्ना हुआ करता था। वहां मुझे लगातार मौका मिलने लगा। मैं खुश होता था चलो राजकिशोर जी के पास नहीं जाना पड़ेगा।
नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और हिंदुस्तान हिंदी के तीन बड़े अख़बार थे, जिनमें मुझ जैसे ना जाने कितने नौजवान अपना भविष्य तलाशा करते थे।
सहायक संपादकों की अलग दुनिया थी। चेले-चेलियों से घिरे संपादक, अपनी कविता पर दाद बटोरते सहायक संपादक। लाल बत्ती जलाकर ध्यान मग्न होने की घोषणा करने और अंदर घंटो हा-ही करने वाले सहायक संपादक।
राजकिशोर इस जमात में बिल्कुल अलग थे। मैंने उन्हे कभी खाली नहीं देखा। कम बोलते थे, लेकिन हमेशा खरी बात करते थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दुनिया में दाखिल होने के बाद संपादकीय पन्नो के लिए लिखने का सिलसिला कम होता चला गया। लेकिन पाठक के रूप में राजकिशोर से रिश्ता बना रहा।
कोई दो महीना पहले मैं चौका, जब राजकिशोर जी का एक ई मेल मेरे पास आया। हिंदी लेखक अनिल यादव का एक संस्मरण मैने अपने वॉल पर शेयर किया था, जिसे इंदौर की किसी पत्रिका ने उठाकर अनिल यादव की जगह मेरे नाम से छाप दिया था।
मैने इस बात पर एतराज करते हुए पत्रिका के संपादक को मेल लिखा और फेसबुक पर भी इस बात का जिक्र किया। राजकिशोर जी ने मुझे मेल लिखकर बताया कि वे इस पत्रिका के संपादक रह चुके हैं लेकिन करीब एक साल पहले अलग चुके हैं। वे सफाई इसलिए दे रहे हैं, ताकि मुझे कोई भ्रम ना हो जाये कि यह कांड उनके संपादक रहते हुए हुआ है।
मैंने उन्हे आश्वस्त किया कि आपके प्रति मन में ऐसा कोई पूर्वाग्रह नहीं है, क्योंकि फेसबुक के साथी संजय कुमार सिंह आपके पत्रिका से अलग होने की सूचना मुझे दे चुके हैं। उन्होने जवाब दिया-- शुक्रिया अब मैं राहत महसूस कर रहा हूं।
कुछ ही समय बीता होगा कि उनके बेटे की असमायिक मृत्यु का समाचार आया। दिल्ली के दोस्तो ने बताया कि राजकिशोर जी और उनकी पत्नी ने अभूतपूर्व संयम का परिचय दिया। आज राजकिशोर जी के निधन का समाचार मिला। अपने प्रिय लेखक के जाने पर अंदर से एक अजीब सा खालीपन महसूस कर रहा हूं। अगर तार्किक ढंग सोचने का थोड़ा-बहुत जो कुछ सलीका है, उसमें राजकिशोर जी जैसे लेखकों का बहुत बड़ा योगदान है।
फेसबुक वॉल से
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