मल्हार मीडिया ब्यूरो पटना।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार (समाचार संपादक, दूरदर्शन) की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘मीडिया : महिला, जाति और जुगाड़’ का लोकार्पण बिहार संगीत नाट्य अकादमी के निदेशक आलोक धन्वा, वरिष्ठ पत्रकार व जगजीवन राम शोध संस्थान के निदेशक श्रीकांत, प्रभारी हिंदुस्थान समाचार की वरिष्ठ पत्रकार श्रीमती रजनी शंकर, वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार अवधेश प्रीत कथाकार मदन कश्यप और प्रभात प्रकाशन के पीयूष कुमार ने 8 फ़रवरी को पटना पुस्तक मेला में प्रभात प्रकाशन के स्टॉल पर किया।
लोकार्पण के बाद चर्चित कवि आलोक धन्वा ने कहा कि मीडिया को मै सकारात्मक रूप में देखता हूँ। यह चौथा खम्भा है और भविष्य में भी आगे ही बढेगा। हालाँकि कई बदलाव हए है और आगे भी होंगे। श्री धन्वा ने कहा कि आज जो विषय आया है गंभीर है और इस पर विमर्श की जरुरत है।
वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत ने कहा कि पुस्तक का यह विषय चुनना काफी साहस का काम है। साथ ही काफी बोल्ड है। उन्होंने कहा कि मीडिया भी समाज का ही आइना होता है और सही तस्वीर आईने में दिखनी चाहिए।
वहीं चर्चित कवि मदन कश्यप ने कहा कि सरकारी नौकरी में रहते हुए भी ऐसे बोल्ड विषयों पर किताब लिखना ही काफी चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, जिसे संजय कुमार ने कर दिखाया है। जाने माने कथाकार अवधेश प्रीत ने कहा कि आज मीडिया का भी कारपोरेटीकरण हो चुका है और इस दौर में मीडिया भी सिर्फ बाजार की दौड़ में ही शामिल है। मीडिया हॉउस खबर को वस्तु के तौर पर देखता और बेचता है।
पत्रकार श्रीमती रजनी शंकर ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि महिलाओं के लिए मीडिया में राह बनाना और उसपर आगे बढ़ते रहना अधिक मुश्किलों भरा होता है। उनमें काबिलियत होते हुए भी अक्सर कनिष्ठ पुरुष कर्मी प्रमोशन पा जाते है। उन्होंने कहा कि पुस्तक का नाम ही काफी कुछ बयान कर देता है।
क्या है पुस्तक में
लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सध: प्रकाशित पुस्तक, ‘मीडिया : महिला, जाति और जुगाड़’, पुस्तक एक आइना है जो मीडिया की तस्वीर को दिखाने की एक कोशिश है। किस तरह से पत्रकारिता, मिशन से व्यवसाय और फिर सत्ता की गोद में बैठ गयी,सब जानते हैं। सिद्धांतों को ताक पर रख जनता की भावनाओं से खुलेआम खेलने का काम जारी है। सरकारी और गैर सरकारी वर्जनायें हर जगह टूट रही हैं। दूसरों पर हमला बोलने वाले मीडिया पर भी हमले हुए, बल्कि जारी है। ताकतवर होती मीडिया पर जातिवादी होने, महिला प्रेमी होने और जुगाड़ संस्कृति को हवा देने का आरोप हाल के कई घटनाओं ने प्रमाणित किया है।
मीडिया महिला प्रेमी होने का आरोप लगता रहा है। मीडिया के अंदर महिलाओं के साथ होने वाला व्यवहार चौंकाता है। मीडिया में नौकरी देने या ब्रेक देने के नाम पर यौन शोषण की कई घटनाएं बदनुमा धब्बे की तरह हैं। सोशल मीडिया और वेब मीडिया पर आने वाली ऐसी खबरें मीडिया के चरित्र पर सवाल उठाती है।
भारतीय मीडिया कितना जातिवादी है, इसका खुलासा मीडिया के राष्ट्रीय सर्वे से साफ हो चुका है। 90 प्रतिशत से भी ज्यादा द्विजों के मीडिया पर काबिज होने के सर्वे ने भूचाल ला दिया था। भारतीय मीडिया में दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यकों की भागीदारी नहीं के बराबर होने के पीछे उन्हें एक साजिश के तहत मीडिया में घुसने नहीं देने की मानसिकता को दोषी करार दिया गया। निजी मीडिया की तरह ही सरकारी मीडिया में भी इनकी भागीदारी नहीं के बराबर दिखती है। हालांकि आरक्षण के आधार पर यहां दस से बीस प्रतिशत दलित-पिछड़े दिख जाते हैं।
दलितों के मीडिया में प्रवेश को लेकर सवाल उठते रहे हैं। दलित मीडिया एडवोकेसी को लेकर आंदोलन चल रहा है। हालांकि, गोलबंदी के बावजूद बात बनती नहीं दिखती है। पूरे मामले पर नजर दौड़ायी जाये तो मामला साफ दिखता है, मीडिया का जातिवादी होना। भारतीय मीडिया पर घोर जातिवादी होने के आरोपों को सर्वे ने प्रमाणित किया है। संपादक/मालिक अपने संस्थान में अपनी ही जाति के लोगों को मौका देते हैं। यही वजह है कि दलित-पिछड़े अवसर पाने से वंचित हो जाते हैं।
भारतीय जीवन में जुगाड़ एक ऐसा शब्द है जिससे हर कोई वाकिफ है। इस शब्द से मीडिया भी अछूता नहीं है। इसका प्रभाव यहां भी देखा जाता है। जुगाड़ यानी जान-पहचान या संबंध जोड़ कर मीडिया में घुसपैठ। इससे योग्यता व अयोग्यता का सवाल खड़ा होता है। जुगाड़ के राजपथ पर योग्यता और अयोग्यता के प्रश्न पीछे छूट जाते हैं। मीडियाः महिला, जाति और जुगाड़ के अलावा भी कई पहलू हैं। भ्रष्टाचार ने भी मीडिया को अपने कब्जे में ले रखा है।
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