डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
'औरों में कहां दम था' भौत सई पिच्चर हे भिया!एकदम 'एक दूजे के लिए' माफिक ! आजकल कौन बनाता है ऐसी सात्विक, सरल लव- स्टोरी वाली फ़िल्में। पर इसमें रोमांस के साथ ट्विस्ट भी है और पर्दे पर कलाकारों की सादगी भी है।
संगीत अच्छा है और एक ही गाने में मुंबई की जन्माष्टमी, दीपावली और होली निपटा दिए गए हैं। जिस किसी ने भी अपने जीवन में कभी प्रेम किया होगा, समंदर की लहरें गिनी होंगी, रातें बेचैनी में बिताई होगी, उसे फिल्म पसंद आएगी।
यह अजय देवगन और तब्बू की दसवीं फिल्म है। इसमें तब्बू जिस तरह सीने में राज छुपाये और मांग में सिन्दूर भरे अजय देवगन से मिलती है ना, कसम से, दर्शकों को रेखा और अमिताभ याद आ जाते हैं।
हम दिल दे चुके सनम जैसा भाव आ जाता है। जया बच्चन और काजोल खलनायिका लगने लगती हैं (जो वे नहीं हैं)। अजय देवगन और तब्बू की एक्टिंग ऐसी है कि वह एक्टिंग लगती ही नहीं, दोनों सचमुच कृष्णा और वसुधा लगते हैं ! सई मांजरेकर के हाव भाव, उनका शर्माना, मुस्कुराना, ठिठकना, बालों की लटें सहेजना बीते दौर की अभिनेत्री नूतन जैसा है।
इस फिल्म में रोमांस तो है ही, मुंबई भी है - मुंबई यानी चाल का सहजीवन, मुंबई यानी समुंदर, मुंबई यानी मैरीन ड्राइव और नरीमन प्वाइंट, मुंबई यानी अट्टालिकाएं और साथ ही मुंबई हाड़तोड़ मेहनत, सपने और सपनों का साकार और फ़ना होना।
इस सबके बीच - दिल जो न कह सका, वही राज ए दिल, कहने की रात आई और अच्छी आई। इसमें नफ़रत और लड़ाई-झगड़े नहीं, मासूम प्रेम और त्याग है, यानी यह फिल्म लव और केयर का प्रोडक्ट है और प्रेम तो कभी मरता नहीं।
इस फिल्म में जवान अजय देवगन का रोल शांतनु माहेश्वरी ने और युवा तब्बू का रोल सई मांजरेकर ने निभाया है और उसी इंटेंसिटी से निभाया है। यह उन निर्देशकों को सबक है जो बुढ़ाते हीरो को भी जवान दिखाने में लगे रहते हैं। जवान तो कोई भी बीस- बाइस साल में हो जाता है, पर बूढ़ा होने में बचपन और जवानी दोनों खर्च हो जाती है।
यह देखनीय फिल्म है। माटुंगा, मुंबई के मैसूर कैफे की इडली जैसी। स्पाइसी चम्पारण चिकन के शौकीन दूर ही रहें।
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