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फिल्म समीक्षा:काजोल का पर्सनल बेटी बचाओ आंदोलन - मां

पेज-थ्री            Jun 28, 2025


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

काजोल की ‘मां’  फिल्म  रिलीज हुई। यह माइथोलॉजिकल हॉरर फिल्म नाम पर काजोल का वैसा ही व्यक्तिगत बेटी बचाओ आंदोलन है, जैसा श्रीदेवी का मॉम और रवीना टंडन का मातृ फिल्म में था। यह वृद्ध होती अभिनेत्रियों की किटी पार्टी है, जिसमें पतिदेव की वीएफएक्स कंपनी को भी काम मिल जाता है। घर का पैसा घर में और टर्नओवर भी बढ़िया! फिल्म का नाम माँ नहीं, 'पुरानी हवेली का शैतान' होना था, जैसा हॉरर जॉनर के पायनियर रामसे ब्रदर्स की फिल्मों का नाम होता था- बंद दरवाजा, पुराणी हवेली, पुराना मंदिर, वीराना, तहखाना आदि!

विशाल फुरिया के निर्देशन में यह काजोल का हॉरर जॉनर में पहला प्रयास है, कहानी एक माँ, अंबिका (काजोल) और उसकी बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक शापित गांव में फंस जाती हैं, जहां रहस्यमयी और राक्षसी ताकतें उनकी जिंदगी को खतरे में डालती हैं। काजोल  प्रोटेक्टिव मां  के किरदार में हैं, उनकी एक्टिंग बढ़िया है। पर समझ में नहीं आता कि गाँव की हवेली में जब शैतान रजस्वला होते ही कन्याओं को उठा ले जाता है तो वे मां-बेटी दरवाजे और खिड़कियां बंद करके, सारी बत्ती जलाके, चाकू या गन रखके, चौकीदार को बाहर तैनात करके रात को क्यों नहीं सोतीं?

फिल्ल्म का शैतान भी इतना बड़ा ईडियट है जो अपार शक्तियों के कारण तीनों लोकों पर राज तो  करना चाहता है, लेकिन उसकी नज़र काजोल की पुरानी खानदानी हवेली की बिक्री और कमीशन पर है। अबे, उल्लू के पट्ठे तू शैतान है या प्रॉपर्टी ब्रोकर?  सरपंच का चुनाव लड़ता है। मतलब साफ़ है कि या तो शैतान छुटभय्या है या कहानीकार ! फिल्म की कहानी न तो काजोल से न्याय करती है, न विभा रानी के से और न ही दर्शकों से। यह भी खटकता है कि शैतानी ताकतों से बचने के लिए मां-बेटी गाँव  के जंगलों से गुजरने वाले रास्ते से कोलकाता जाने के लिए कार लेकर निकल पड़ते हैं, बिना किसी ड्राइवर, हथियार या सुरक्षा इंतजाम के, उस रास्ते पर जहाँ तीन महीने पहले ही काजोल के पति की कार में संदेहास्पद हालत में मौत हो चुकी होती है!

फिल्म में डरावने और रहस्यमयी माहौल को धुंध से ढके गांव, जंगल, पुरानी हवेली और प्रतीकों का इस्तेमाल बाखूबी किया गया है। डर को चीखों के बजाय सन्नाटे और प्रतीकों के ज़रिए रचने की कोशिश की है, सिनेमैटोग्राफी और प्रोडक्शन डिज़ाइन माहौल को और जीवंत करते हैं। फिल्म के लिए विभा रानी को चार चार घंटे के प्रोस्थेटिक मेकअप करना पड़ा, जिसे छुड़ाने में भी एक घंटे का वक्त लगता होगा! इसके बावजूद कमजोर कहानी और भर्ती के गीत-संगीत ने पटिया उलाल कर दिया ! आधी फिल्म तो भूमिका बनाने में ही निकल जाती है और दर्शक हर सीन के आगे का सीन सोच लेता है। दर्शक को पता है कि ऐसी फिल्म में ऐसे सीन के बाद क्या होगा। फिल्म के कुछ वीएफएक्स बहुत सजीव हैं और बहुतेरे ऐसे हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि उन्हें इंटर्न या ट्रेनी डिजाइनरों से बनवाया गया होगा। लगता है कि फिल्म की एडिटिंग ढीली है!

तमाम कारणों से फिल्म को माता काली भी नहीं बचा पायेगी। रक्तबीज की कहानी में विजुअल इफेक्ट भी इफेक्ट नहीं डाल पाए हैं। गाँव, काली पूजा, बेटी को दोइत्तो (राक्षस) के सामने कुर्बानी देने की प्रथा, बेटी को  बचाने के लिए तरह-तरह के जतन और एक मां का सफल बेटी बचाओ अभियान फिल्म की रेसिपी है। यह फिल्म न तो पौराणिक है और न ही हॉरर!

झेल सको तो झेल लो ! यूँ भी (फिल्म देखने) जाने वालों को कोई रोक सका है भला?

 

अझेलनीय ! मत जाना।

 


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