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नय्यरा नूर दक्षिण एशियाई संगीत को बेनूर करके चली गईं!

पेज-थ्री, वामा            Aug 23, 2022


पंकज पाराशर।

नामचीन पाकिस्तानी गायिका नय्यरा नूर 21 अगस्‍त को इस नश्वर संसार से चली गईं! महज 72 बरस की उम्र अब कोई लंबी उम्र नहीं मानी जाती.

ग़म इस बात का और भी ज़्यादा है कि आज़ादी के तीन बरस बाद नवंबर 1950 में भारत के पूर्वी शहर गुवाहाटी में पैदा हुईं नय्यरा सन् 1957-58 तक तो हिंदुस्तान में ही रहती थीं! उनकी नाल तो हिंदुस्तान में गड़ी थी!

अफ़सोस कि भारत के लोगों को उनके बारे में जितना जानना चाहिए, उतना लोग उन्हें नहीं जानते. उनके सीधेपन और चेहरे से टपकती मासूमियत की मिसालें दी जाती थीं.

संगीत की दुनिया में उनका आना एक करामात-जैसा ही था. सन् 1968 का वाकया है.

नय्यरा लाहौर के नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट में टेक्स्टाईल डिजाईनिंग में डिप्लोमा कर रही थीं. उसी दौरान कॉलेज के एक जलसे में इस्लामिया कॉलेज के प्रोफ़ेसर इसरार ने इन्हें गाते हुए सुना, जिसे सुनकर इसरार साहब इतने मुतास्सिर हुए कि उनसे रेडियो पाकिस्तान के लिए गाने का आग्रह किया.

उसके बाद तो जो सिलसिला शुरू हआ, तो उन्होंने दोबारा कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

नय्यरा नूर के वालिद साहब मूल रूप से पंजाब के अमृतसर शहर के रहनेवाले थे, जो अपने बिजनेस के सिलसिले में गुवाहाटी जाकर बस गए थे. वहाँ वह मुस्लिम लीग की सियासत में भी हिस्सा लेते थे. हिंदुस्तान के बँटवारे के 10-11 बरस तक भी नय्यरा के घरवाले हिंदुस्तान में ही रहे, लेकिन साल 1958 आते-आते आख़िरकार पाकिस्तान चले गए.

सन् 1971 तक नय्यरा ने टेलीविजन और फिल्मों के लिए गाना शुरू कर दिया था. 'घराना' और 'तानसेन'-जैसी फिल्मों से उन्हें खूब शोहरत मिली.

पीटीवी के एक कार्यक्रम 'सुखनवर' में बहज़ाद लखनवी की गज़ल 'ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज मुक़ाबिल आ जाए/ मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए'.

इसे सुरों में पिरोया था मास्टर मंज़ूर हुसैन ने. इस ग़ज़ल की लोकप्रियता ने नय्यरा को शोहरत की बुलंदियों पर पहुँचा दिया. नय्यरा, अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ बेगम अख़्तर की गायकी से मुतास्सिर थीं.

बेगम अख्तर की गायिकी का उनके ऊपर इतना असर था कि वह बेग़म की गज़लें पुराने तरीके से आर.एम.पी. ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड प्लेयर्स पर ही सुनना पसंद करती थीं.

जबकि ऑडियो कैसेट्स बाज़ार में आ गए थे. नय्यरा ने अनगिनत गज़लें गायी हैं, जिनमें से कुछ हैं, 'आज बाज़ार में पा-बजौला चलो', 'अंदाज़ हू-ब-हू तेरी आवाज़-ए-पा का था', 'रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई, 'ऐ इश्क़ हमें बरबाद न कर', 'कहाँ हो तुम', 'वो जो हममें तुममें करार था', 'रूठे हो तुम, तुमको कैसे मनाऊँ पिया! नय्यरा पाकिस्तान के जाने-माने गायक और संगीत-निर्देशक मियाँ शहरयार ज़ैदी की बीवी थीं.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच आज चाहे जितनी सियासी खाइयां हों, तहजीब और मौसिकी के अनेकानेक दस्तूर दोनों के यहाँ एक समान हैं.

और हो भी क्यों ना, आखिर इन दोनों मुल्कों के दरम्यान सियासी तकसीम हुए अभी तो कुल जमा 75 साल ही हुए हैं. उससे पहले तो हम एक ही सांस्कृतिक परंपरा के हिस्सा थे.

चंद बरसों का फासला और राजनीतिक तनाव इस साझा नियति को जड़ से नहीं उखाड़ सकते.

 फनकारों की निजी शैली अपनी जगह, लेकिन भारतीय और पाकिस्तानी ग़ज़ल गायकों की गायकी को सुनकर कोई भी दोनों में फ़र्क नहीं कर सकता.

गायकी की अनेक शैलियां दोनों मुल्कों में समान हैं. खान-पान, पहनावे, बोली-बानी के लिहाज से भी दोनों देशों में अनेक समानताएं हैं.

भारत में बनी पोशाकों की पाकिस्तानी लड़कियां दीवानी हैं, लेकिन अफसोस कि वे भारतीय पोशाकों को तब तक नहीं पहन सकतीं, जब तक कि उन पर अबूधाबी का ठप्पा नहीं लगा दिया जाता.

कारण, पाकिस्तान में भारतीय सामान अबूधाबी के मार्फत ही पहुंचते हैं.

उसी तरह, पाकिस्तान में निर्मित फल उत्पाद भारत में जर्मनी के रास्ते पहुंचते हैं.

 जर्मन और स्विस एयरलाइंस में पेश किए जाने वाले फ्रूट जूस मुख्यत: पाकिस्तानी फलों से निर्मित होते हैं. एक वैश्वीकृत दुनिया में, एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधे दो देशों के बीच आप इस तरह से कितनी चीजों पर रोक लगा सकते हैं?

नय्यरा नूर पूरी ज़िंदगी इन फासलों के बीच एक सांस्कृतिक पुल बनने की कोशिश करती रहीं!

 



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