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जन्मतिथि पर विशेष:दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

पेज-थ्री            Jul 09, 2017


अशोक जोशी।
संयोग से इस साल गुरू पूर्णिमा के दिन ही गुरु दत्त का जन्म दिन है। गुरु दत्त एक संवेदनशील अभिनेता थे जिन्होंने 10 अक्टूबर 1964 को अल्पायु में दुनिया से यह कहते हुए रूखसत हो गए कि ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' उन्होंने बाजी, जाल, मिस्टर एंड मिसेज-55, प्यासा और कागज के फूल जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। 9 जुलाई 1925 को बैंगलुरू में जन्में गुरु दत्त अपने आपमें एक संपूर्ण कलाकार बनने की पात्रता रखते थे। वे विश्व स्तरीय फिल्म निर्माता और निर्देशक थे। साथ ही में उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक हमें उनकी सभी फिल्मों में दिखती ही है। वे एक अच्छे नर्तक भी थे, क्योंकि उन्होंने अपने फिल्मी जीवन का आगाज प्रभात फिल्म्स में एक कोरियोग्राफर की हैसियत से किया था।

अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नहीं रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे। उन्होंने 'प्यासा' के लिए पहले दिलीप कुमार का चयन किया था। वे एक रचनात्मक लेखक भी थे और उन्होंने पहले पहले इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया में कहानियां भी लिखी थी। ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ जैसी क्लासिक फिल्मों के सृजक गुरु दत्त हमेशा चुप और गंभीर रहते थे। लेकिन, उनके भीतर एक मस्ती करने वाला बच्चा भी था। वे पतंग उड़ाते, मछली पकड़ते और फोटोग्राफी भी करते थे। गुरु दत्त को खेती करना भी काफी सुहाता था। लोनावला में उनका फार्म हाउस था जहां वो हर साल जाकर खेती करते थे। उन्हें फिशिंग में भी दिलचस्पी थी। पवई झील में जॉनी वॉकर और गुरु दत्त खूब मछली पकड़ा करते थे। एक बार उन्हें एक स्कूटर पसंद आ गया। वे उसे चलाते हुए स्टूडियो जा रहे थे तभी सिग्नल के पास गाड़ी रुकी तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया। वे किसी तरह से गाड़ी से वहां से निकले। एक दिलचस्प किस्सा है कि कश्मीर में उन्होंने एक शिकारा देखा तो वे उस शिकारा को कश्मीर से खुलवाकर पवई झील ले आए।

कोलकाता में शिक्षा के बाद गुरु दत्त ने अल्मोड़ा स्थित उदय शंकर की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वे पुणे चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फिल्म बाजी (1951) देवानंद की नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फिल्म जाल (1952) बनी, उसमें भी देवानंद और गीता बाली ही थे। इसके बाद गुरुदत्त ने बाज (1953) फिल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभा संपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फिल्मों में प्रदर्शित हुआ।

गुरु दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फिल्में थी प्यासा (1957), कागज के फूल (1959) और साहब, बीबी और गुलाम (1962)। हालांकि साहब, बीबी और गुलाम का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरु दत्त की कृति थी। उन्होंने ने 'सीआईडी' से वहीदा रहमान का फिल्म जगत् से परिचय कराया और फिर 'प्यासा' और 'कागज के फूल' जैसी फिल्मों से उन्हें कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय-वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपुण शैलीकारों में ला खड़ा किया।

गुरु दत्त ने अपने फिल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए जैसे, फिल्म 'बाजी' में दो नए प्रयोग किए । इस फिल्म के लिए 100 एमएम के लेंस का क्लोज अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया, करीब 14 बार। इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नहीं आया, कि उन दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुजरना पडा। तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरु दत्त शॉट पड़ गया। उन्होंने ही पहली बार गानों का उपयोग कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया गया। वैसे 'कागज के फूल' देश में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फिल्म थी। इस फिल्म के लिए गुरु दत्त कुछ अनोखा, कुछ हटके प्रयोग करना चाहते थे, जो आज तक भारतीय फिल्म के इतिहास में कभी नहीं हुआ। संयोग से तभी एक हालीवुड की फिल्म कंपनी 'टवेंटीएथ सेंचुरी फाॅक्स' ने उन दिनों भारत में किसी सिनेमा स्कोप में बनने वाली फिल्म की शूटिंग खत्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे। जब गुरु दत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमेंटोग्राफर वीके मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किए। रशेस देखे और फिर फिल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया।

इसी फिल्म में गीता दत्त की आवाज में गाए और फिल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फिल्माए गए इस गीत 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम' में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में अपने बेहतरीन लाइटिंग की खूबसूरत संयोजन की वजह से विख्यात हुआ! गुरु दत्त इस क्लाईमेक्स के सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ और रियल लाईफ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे। ब्लैक एंड व्हाईट रंगों से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी, रिक्तता, यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज में फिल्माना चाहते थे। जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की उनके फोटोग्राफर वीके मूर्ति ने उन्हें वेंटिलेटर से छनकर आती धूप की एक तेज किरण दिखाई, तो गुरुदत्त बेहद रोमांचित हो उठे। उन्होंने इस इफेक्ट को ही उपयोग करने का मन बना लिया। वे मूर्ति को बोले, मैं शूटिंग के लिए भी सनलाईट ही चाहता था, क्योंकि जिस प्रभाव की मैं कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्कलाईट से या कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आएगा। फिर दो बड़े-बड़े आईने स्टूडियो के बाहर रखे गए, जिनको बडी मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया, जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है। साथ में चेहरे के क्लोज अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते है एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिती से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते है, एकाकार हो जाते है।

कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है। लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती। सिर्फ 39 बरस की उम्र में 10 अक्टूबर 1964 में खुदकुशी कर लेने वाले गुरु दत्त की वैसी मौत अब सिर्फ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है। लेकिन, उनकी प्यासा, कागज के फूल और साहब, बीबी और गुलाम सरीखी फिल्में दक्षिण एशियाई सिनेमा के इतिहास में अमर हैं और आज भी फिल्मकार इन्हें फिल्मी पाठयपुस्तकों की तरह पढते हैं। गुरु दत्त वाकई में फिल्म निर्माण विधा के गुरु ही थे।

 

 



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