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फिल्म समीक्षा:बद्री की दुल्हन, तो वैदही का दूल्हा क्यों नहीं?

पेज-थ्री            Mar 10, 2017


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
भारत एक विवाह प्रधान देश है। यहां विवाह का औसत यूरोप के देशों की तुलना में कम है, लेकिन विवाह के बारे में सोचने और तैयारी करने में ही आम भारतीय की जिंदगी बीत जाती है। बॉलीवुड इसीलिए विवाह, दुल्हन, फेरे जैसे विषयों पर फिल्में बनाता है। बॉलीवुड की फिल्मों का एक जेनर विवाह भी कहा जा सकता है।

आमतौर पर विवाह को लेकर बनी फिल्में खूब धंधा करती है। बद्रीनाथ की दुल्हनिया भी भारतीय दर्शकों की इसी आदत को भुनाने के लिए बनाई गई है। झांसी और कोटा की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म में मुंबई और सिंगापुर की घटनाओं को भी प्रमुखता से दिखाया गया है। फिल्म देखते वक्त लगता है कि यह पूरी फिल्म उत्तर प्रदेश खासकर झांसी के लोगों की बेइज्जती है। झांसी के लोगों को जिस तरह परंपरावादी और मूढ़मती दिखाया गया है, वह अशोभनीय है। आज के दौर में दहेज जैसी कुप्रथा काफी हद तक खत्म हो चुकी है, लेकिन दहेज के बहाने इस फिल्म में भाषणबाजी का मौका निर्देशक ने नहीं छोड़ा। समाज में लड़कियों की महत्ता बताने वाला निर्माता निर्देशक खुद पुरूषवादी है, वरना इस फिल्म का नाम बद्रीनाथ की दुल्हनिया नहीं, वैदही त्रिवेदी का दूल्हा रखता।

हिन्दी पट्टी को बॉलीवुड जिस तरह से देखता है, उसी तरह की कहानी इस फिल्म में बनाई गई है। ब्राह्मण, बनिया, व्यापारी, नौकरीपेशा सभी लोग कितनी रूढ़ियों में फंसे हैं। यही बात फिल्म में दिखाई गई है। प्रगतिशीलता के नाम पर हीरो को दब्बूनुमा मूर्ख और हीरोइन को विदुषी और चतुर बताया गया है। एक ऐसी लड़की की कहानी, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी की भी बेइज्जती करने में संकोच नहीं करती। इंटरवल के पहले तक जब बद्रीनाथ की कहानी प्रमुखता से चलती है, हंसी-मजाक के नए-नए प्रसंग आते रहते हैं। इंटरवल के बाद यह फिल्म वैदही त्रिवेदी का दूल्हा बन जाती है और कहानी के कारण अझेलनीय लगने लगती है।

फिल्म में दहेज की समस्या को इस तरह दिखाया गया है कि उससे बचने के लिए निर्माता को डिसक्लेमर दिखाना पड़ता है। फिल्म कई बार तर्कों से परे चली जाती है। किसी तरह दसवीं की परीक्षा देने वाला बद्रीनाथ और उसका दोस्त हीरोइन का पीछा करते-करते सिंगापुर पहुंच जाता है और बगैर अंग्रेजी जाने वे दोनों वहां सर्वाइव करते हैं। इतना ही नहीं, वे सिंगापुर में फर्राटे से कार घुमाते है, अपहरण और मारपीट तक कर डालते है और फिर भी बचा लिए जाते हैं।

घर से भाग कर मुंबई जाने वाली हीरोइन एयर होस्टेज बन जाती है। निर्माता यह बताना भूल गए कि हर रोज मुंबई में 300 लोग रोजी-रोटी के लिए आकर बसते है और उनमें से 90 प्रतिशत झोपड़पट्टी में रहने को बाध्य है। फिल्म खत्म होते-होते चमत्कार हो जाता है। बेटियों को महत्व न देने वाले पुरूष उनको सम्मान देने लग जाते है। डेढ़ लाख रुपए महीने की एयर होस्टेज की नौकरी छोड़कर हीरोइन झांसी जैसे शहर में एयर होस्टेज बनने के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोल लेती है। सपने बेचने के व्यवसाय में यह फिल्म सफल होती है और दर्शकों की जेब से पैसे निकलवाने में कामयाब हो जाती है।

फिल्म में इतना हाई ड्रामा है कि हंसी आने लगती है। फिल्म के क्लाइमेक्स की कल्पना दर्शकों को पहले ही हो जाती है, लेकिन मजाकिया लहजे में बोले गए डायलॉग दर्शकों का अच्छा मनोरंजन करते है। ‘चुटकी में शादी.कॉम’ का संचालक कहता है कि मैं एनआरआई लोगों की शादी नहीं कराता, यह देशद्रोह है, क्योंकि हमारे देश के ही कई भाइयों की शादी नहीं हो रही है, तो मेरी प्राथमिकता उनकी शादी कराने की है। फिल्म में जय माता दी के संक्षिप्तीकरण को लेकर जेएमडी गाना भी है और यह बताया गया है कि भारत में आने वाले हार्टअटैक का एक प्रमुख कारण दहेज है।

दो साल पहले आई हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया से यह अलग कहानी है। हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया में भी वरुण धवन और आलिया भट्ट थे, इसमें भी यही जोड़ी है, लेकिन यह फिल्म हम्पटी शर्मा की सिक्वल नहीं है। फिल्म में गौहर खान सिंगापुर की पुलिस अधिकारी है, जिसका नाम सुजी है। छोटे से रोल में वह प्रभावित करती है। बद्रीनाथ के पिता के रूप में गिरीश कर्नाड और श्वेता बासु प्रसाद ने बद्रीनाथ की भाभी उर्मिला के रूप में अच्छा काम किया है। 1990 की फिल्म थानेदार का गाना तम्मा-तम्मा का री-मैक भी इसमें है। नारी पात्र को प्रमुखता देने वाली इस फिल्म का नाम अगर वैदही का दूल्हा होता, तो बेहतर था।



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