 राघवेन्द्र सिंह।
राघवेन्द्र सिंह।
मध्यप्रदेश की सियासत को समझने के लिए एक राजा का किस्सा बताते हैं। धर्म और नैतिकता पर राज्य चलाने के लिए मशहूर एक राजा अपने इन्ही सतगुणों के कारण कमजोर हो जाते हैं। मसलन दान धर्म के कारण उनका खजाना खाली हो जाता है। एक-एक कर दरबारी,मंत्री,सेनापति और यहां तक की उनकी रानी भी साथ छोड़ देती है। राजा को महल त्यागना पड़ता है और वे जंगल में झोपड़ी बनाकर रहने लगते हैं। एक दिन धर्म भी उनसे कहता है आपके पास कुछ है नहीं इसलिए अब मैं भी चलता हूं।
तभी राजा धर्म का हाथ पकड़कर कहते हैं आपकी मर्यादा के पालन मैंने राजपाट तक छोड़ दिया। आप मुझे कैसे छोड़ सकते हैं। ऐसा कह राजा ने धर्म का हाथ पकड़ अपने साथ ही रखा। धर्म के साथ रहने से राजपाट सेनापति,मंत्री,रानी सब वापस आ गए। कुल मिलाकर धर्म आधारित राजनीति के चलते सब लौट आता है। लेकिन आज के सियासत में राजनीति से धर्म की बिदाई हो रही है और पाखंड प्रतिष्ठित हो रहा है। इसके चलते सत्ता कमजोर हो रही है और कल तक जो प्रतिपक्ष धर्म से बचता था अब वह धर्म के रास्ते पर है।
समझने के लिए काफी है जो धर्म पर चलेगा अर्थात ईमानदारी,संवेदनशीलता और जो कहा सो किया के रास्ते पर चलेगा सियासत में वो दूर तक दिखाई देगा।
मध्यप्रदेश में कभी मिस्टर बंटाधार के नाम से मशहूर रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा पर धर्म का जितना रंग चढ़ रहा है भाजपा और सरकार में उतनी घबराहट बढ़ रही है। दिग्विजय सिंह परिक्रमा में जितने कदम आगे बढ़ रहे हैं कांग्रेस सत्ता के उतने निकट जाते दिखलाई दे रही है। जब यह यात्रा संपन्न होगी कुछ हो न हो कांग्रेस दिग्विजय के बिना राजनीति नहीं कर पाएगी। यह सफलता होगी दिग्विजय सिंह की।
दरअसल कांग्रेस जितना शिवराज से डरती है उतना भाजपा से नहीं। ठीक वैसे ही भाजपा जितना दिग्विजय सिंह से चमकती है उतनी कांग्रेस से नहीं। इसलिए कांग्रेस मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की जननायक किसान और महिलाओं के साथ बच्चों के मामा की इमेज को डैमेज करने की रणनीति पर काम करती है। इसी तरह भाजपा जब जब दिग्विजय सिंह राज्य में सक्रिय होते हैं तब 2003 के समय की उनकी बंटाढार छवि को याद दिलाकर जनता को डराने की कोशिश करती है।
अब मामला थोड़ा पलटता दिखलाई दे रहा है। भाजपा की चौदह साल की सरकार में पिछले चार साल के कामों में भ्रष्टाचार,नाफरमान नौकरशाही और दीवालिया होती आर्थिक स्थिति ने संघ से लेकर भाजपा संगठन और सरकार सबके तार ढीले कर दिए हैं। जब समय खराब आता है तो कुनबे में कलह होती है। सीधे दांव भी उलटे पड़ने लगते हैं। जो हीरो होते हैं अक्सर वे जीरो दिखाई देने लगते हैं। लीडर के कमजोर होने पर जीत को उपजे संदेह अविश्वास के साथ बगावत और भगदड़ पैदा करता है।
कमोवेश चौदह साल से अपराजित भाजपा कुछ इसी किस्म के दौर से गुजर रही है। ऐसे में दूर से निगरानी करने वाला संघ भी चिंतित तो है मगर कुछ कर नहीं पा रहा है। असल में भाजपा में उसके द्वारा भेजे गए प्रचारक और पूर्णकालिक कार्यकर्ता सत्ता की चकाचौंध में अंधे से हो गए हैं। वे सत्ता की सांझ ढलने के साथ रतौंधी के शिकार हो गए हैं। भाजपा में संघ के पदाधिकारी गुटबाजी में फंस गए हैं। उन्हें मंहगे मोबाईल हीरे की अंगूठियां और ब्रांडेड सामानों के इस्तेमाल का चस्का लग गया है। यह घुन संघ सुप्रीमो के भी काबू में आता नहीं दिख रहा है।
प्रदेश में संघ के प्रमुख पदाधिकारियों में ऐसे भी हैं जो सत्ता का लाभ भाजपा कार्यकर्ता और स्वयंसेवक के बजाए अपने परिजनों को दिलाने में लगे हैं। यह काम लंबे समय से हो रहा है। जिसकी अनदेखी अब इस बीमारी को लाइलाज कर रही है। संघ के नेताओं को भाजपा कार्यकर्ता पहले सियासत के संत की तरह देखता था और उनपर अंध न सही अगाध श्रध्दा रखता था। भोपाल से लेकर सागर,रीवा,सतना, मालवा और महाकौशल तक में संघ से भेजे गए आदर्श नेताओं का टोटा है। अभी तक इसमें सुधार के कोई लक्षण नजर नहीं आ रहे हैं।
प्रदेश संगठन महामंत्री के पद पर सुहास भगत की ताजपोशी के बाद थोड़ी उम्मीद बंधी थी मगर जैसे जैसे समय बीत रहा है निराशा और गहरी होती जा रही है। इसका जितना इलाज किया जा रहा है मर्ज और बढ़ता जा रहा है। हालत ये है कि एक विज्ञापन था सिलवेनिया लक्ष्मण बल्व का जिसमें कहा जाता है पूरे घर के बदल डालो। संघ में कमोवेश हालत कुछ ऐसे ही हैं। अब भाजपा की तरफ रुख करते हैं।
संगठन महामंत्री सुहास भगत के सहयोग के लिए संघ ने अतुल राय को भेजा। पिछले दिनों हुए उन्नीस नगरीय निकायों के चुनावों में इन दोनों नेताओं ने प्रदेश अध्यक्ष नंदूभैया के बंगले पर लंबी माथापच्ची के बाद पार्षद और अध्यक्ष उम्मीदवारों के टिकट तय किए। असल में चित्रकूट विधानसभा उपचुनाव में सुहास एंड कंपनी ने प्रत्याशी तय किया था और भाजपा का वहां बेड़ागर्क हो गया। उम्मीदवार अपने ही गांव से हार गया। इससे घबराए संगठन ने अध्यक्ष को साथ लिया ताकि हार का ठीकरा सब पर फूटे।
हम यहां बताना ये चाहते हैं कि संगठन की पकड़ मंडल स्तर से छूट गई है। सारा मामला इवेन्ट का हो गया है। खांटी कार्यकर्ता उपेक्षित है और घर बैठ गए हैं। इसलिए धामनोंद में भाजपा के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी को पार्टी कार्यकर्ताओं ने जनसंपर्क के दौरान जूते की माला पहना दी। धार जैसे महत्वपूर्ण इलाके में नगरपालिका प्रत्याशी को लेकर बगावत हो गई।
संगठन सरकार उसे मैनेज नहीं कर पाया। नतीजा 19 निकायों के चुनाव में बीजेपी 2 सीटें खोकर ऐसी लुढ़की कि कांग्रेस की बराबरी पर आकर ठहर पाई। अंजड़ कस्बे में तो भाजपा का सूपड़ा ही साफ हो गया। अध्यक्ष से लेकर सभी पन्द्रह पार्षद बीजेपी हार गई। ये कुछ हांडी के चावल हैं जो बता रहे हैं संघ,भाजपा और सरकार की हालत जनता के बीच ठीक नहीं है।
कांग्रेस कमजोर है ऐसा मानकर चलने वाले नीरो उसी तरह चैन की बंसी बजा रहे हैं जैसा कि रोम के जलते समय नीरो कर रहा था। अभी तक भाजपा के प्रदेश प्रभारी तय नहीं हुए हैं। जो हैं उन्हें दिल्ली में दूसरा महत्वपूर्ण मिल गया है। आठ महीने बाद प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होना है और प्रभारी का कोई पता नहीं है।
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा भले ही निजी स्तर पर हो रही हो, लेकिन कांग्रेस को इसका माइलेज मिलना शुरू हो गया है। नगरीय चुनावों में उन्नीस में से नौ सीटों पर कांग्रेस का जीतना इसी बात का संकेत देता है। ज्यादातर चुनाव नर्मदा पट्टी में ही हुए हैं। कल तक दिग्विजय सिंह को जो लोग मुल्ला दिग्विजय सिंह कहते थे वे अब उनकी नर्मदा परिक्रमा को देखते हुए राय बदलते दिख रहे हैं।
यात्रा के समापन पर बहुत संभव है दिग्विजय धर्म परायण लोगों के दिल में जगह बना लें। यहीं से कांग्रेस की बढ़त के संकेत मिलते हैं। कांग्रेस में गुटबाजी के बावजूद अब एक बात चर्चाओं में आ गई है कि आगे कोई भी रहे पहले हमारी सरकार बने। मुख्यमंत्री कौन होगा ये बाद में तय कर लिया जाएगा। नर्मदा परिक्रमा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में एक तरह से जान फूंक दी है। इसलिए पार्टी चुनाव में चेहरा तय करने के मुद्दे से बच रही है। लेकिन कांग्रेस संगठन को लेकर हाईकमान भी नीरो की तरह व्यवहार कर रहा है।
अरुण यादव राहुल गांधी के पसंदीदा नेताओं में हैं लेकिन चुनाव उनके बूते पार्टी जीतेगी इस बात पर लगभग सभी को संदेह है। तो कुल मिलाकर संघ से लेकर कांग्रेस तक में नीरो की कमी नहीं है। मगर सत्तर साल के दिग्विजय सिंह एक उम्मीद बनकर जरूर उभरे हैं।
 
                   
                   
             
	               
	               
	               
	               
	              
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