बिपेंद्र विपिन।
व्यक्ति केन्द्रित राजनीति ने अपने देश मे राजनीति की दिशा बदल दी है। गांधी ने नीचे से ऊपर की ओर जाने वाली राजनीति की कल्पना की थी।
लेकिन आज उल्टा हो रहा है, ऊपर का नेतृत्व ही इसतरह हावी है कि स्थानीय नेतृत्व पूरी तरह गौण हो चुका है।
राजनीति या चुनाव में स्थानीय जनता की सहभागिता बस वोट डालने तक सिकुड़ कर रह गई है।
अभी दिल्ली नगर निगम के चुनाव होने हैं, नगर-महानगर की सबसे छोटी इकाई है नगर निगम।
लेकिन इस चुनाव के प्रचार में भी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता हावी हैं, वोट उनके नाम पर मांगा जा रहा है।
अधिकांश मतदाताओं को अपने वार्ड के उम्मीदवार का नाम तक नहीं पता, उम्मीदवार का नाम, काम सब गौण है।
ऐसे में स्थानीय स्तर की राजनीतिक सक्रियता या सहभागिता की गुंजाइश कहाँ बचती है।
गुजरात विधानसभा चुनाव की भी यही स्थिति है, ऐसा लग रहा वहां भी वोट मोदी, नेहरू गांधी परिवार या केजरीवाल को देना है।
उम्मीदवारों से मतलब ना के बराबर । सारा चुनाव अभियान इन्हीं तीन पर केंद्रित है।
और तो और राजनीतिक दलों से बाहर जो शक्तियां जनभागीदारी की पक्षधर रही है वो भी चुनाव के वक्त अलग से कुछ नहीं करतीं।
कारण जो भी हो वे भी राजनीतिक दलों की कार्यशैली का अनुकरण करने लगी है, अपने स्तर से वैकल्पिक पहल ना के बराबर है।
ये स्थितियां निश्चित तौर पर लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए घुन की तरह हैं।
इस घुन की छंटाई करने की उम्मीद मुख्यधारा के किसी राजनीतिक दल से नहीं की सकती।
वैकल्पिक पहल जनता को खुद करनी होगी।
हालात इतनी बिगड़ चुके हैं कि लंबा समय लगेगा, इसके लिए तात्कालिकता के मोह से भी उबरना होगा। राहत नहीं बदलाव के प्रयास से सूरत बदल सकती है, वरना स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती ही जाएगी।
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