मुकेश भारद्वाज।
उमा भारती के साथ न सिर्फ हिंदू होने बल्कि हिंदू पहचान को धारण करने वाले नेता को सत्ता में स्थापित करने का नाकाम प्रयोग योगी आदित्यनाथ के साथ सफल हो गया।
गर्वित हिंदू की पहचान के साथ योगी जनता को श्रेष्ठताबोध के गढ़ में ले आए।
धार्मिक पहचान हर पहचान से बड़ी हो चुकी है और जनता महंगाई को विकास का प्रतीक कह न्यायोचित ठहराने से पीछे नहीं हट रही। वह सरकारी नौकरी को रेवड़ी बता रही।
जनता नर्म धर्म को पीछे छोड़ गर्म धर्म के महिमामंडन में लगी है।
धार्मिक पहचान का प्रयोग इतना सफल रहा है कि दूसरे दल भी मंदिर के दर पर जाने को मजबूर हैं, लेकिन वहां उनका मुकाबला ‘असली’ से करवाकर उन्हें मजबूरी में राम-राम कहने वाला बताया जा रहा है।
जनता को लग रहा, अतीत में कितना भी पीछे जाकर सब कुछ ठीक कर सकती है।
धार्मिक पहचान वाले नेता के साथ श्रेष्ठताबोध से भरी अतीत की लड़ाई लड़ रही जनता पर बेबाक बोल।
बजरिए ज्ञानवापी मस्जिद आस्था एक बार फिर से अदालत में है।
पूजा के अधिकार को नागरिक अधिकार मानते हुए अदालत का रुख रहा कि इसमें किसी तरह का दखल नागरिक प्रकृति का विवाद खड़ा करेगा।
ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर प्रार्थना करने की पांच महिलाओं की याचिका को सुनवाई योग्य मान लिया गया।
इस याचिका को 1991 के उपासना स्थल विधेयक (विशेष प्रावधान) कानून के खिलाफ नहीं माना गया।
अदालत में याचिका के एक कदम आगे बढ़ने की जिस तरह से राजनीतिक प्रतिक्रिया आई है, उसने आगे बनने वाला संभावित दृश्य खड़ा कर दिया है।
हर सजग राष्ट्र का अपना एक वैचारिक बोध होता है और वह अपने बीते हुए कल से सीख लेता है।
इस देश में आस्था आधारित एक लड़ाई लड़ी गई और उसका अंजाम बड़े राजनीतिक परिवर्तन के रूप में दिखा।
उस लड़ाई के अपने राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या आने वाले लंबे समय तक ऐसी कोई न कोई लड़ाई खड़ी की जाती रहेगी?
मंदिर-मस्जिद की लड़ाई का संबंध हमारे ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक अतीत से है। अतीत और वर्तमान के सतत संबंध को नकारा नहीं जा सकता है।
लेकिन क्या हर बार उसे इसी तरह अदालतों में ले जाकर राजनीतिक कथ्य स्थापित किया जाएगा?
अदालतों में मामलों की इतनी लंबी सूची है कि 1984 के दंगों में दोषी अधिकारी 79 साल के हो गए, और अब कहा जा रहा है कि उन्हें सजा क्यों न दी जाए।
जहां 1984 के मामलों का निपटारा नहीं हो पाया है, वहां एक ऐसे मामले में अदालती कार्रवाई का रास्ता खोल दिया गया है जो पता नहीं आगे के कितने चुनावों को प्रभावित करेगा।
ज्ञानवापी जैसे हर मामले के सामुदायिक सौहार्द के स्तर पर सुलझाए जाने की पूरी संभावना होती है, ऐसी कोशिश हुई भी है।
लेकिन सौहार्द को समस्या का हल बनते दिखने की संभावना के साथ ही उसकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है, क्योंकि यह दोनों पक्षों के राजनीतिक लक्ष्य के लिए बाधा बन सकता है।
लोकतंत्र में वोट लेना अहम है, लेकिन शासन प्रणाली की धरती पर अब तक की सबसे सुंदर व्यवस्था को महज वोट लेने तक ही सीमित नहीं कर दिया जाना चाहिए।
अब तो बस वोट लेने के लिए मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से सफेद है वाली बात ही रह गई।
हम कोई चीज मुफ्त में दें तो जन-कल्याण और तुम अगर कोई चीज मुफ्त में दो तो राजनीतिक अभिशाप।
ज्ञानवापी पर अदालत का फैसला आते ही मथुरा के मुस्कुराने जैसे बयान आने लगे।
इसके पहले देश इस बात का गवाह बन चुका है कि जनता के उग्र धार्मिक जागरण ने पूरी राजनीतिक संरचना का तख्ता-पलट कर दिया।
दूसरी बार भी जनता धर्म के मुद्दे पर उतनी ही उग्र रही। लेकिन धार्मिक ध्रुवीकरण से एक लक्ष्य पूरा होते ही तुरंत दूसरा लक्ष्य तय कर लिया जा रहा है।
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यही लक्ष्य लोगों के जीवन का ध्येय बना दिया जा रहा है। धार्मिक भावना का उफान इस चरम पर है कि लोगों को लगता है कि उनका वजूद आगे का लक्ष्य पूरा करने पर ही बचेगा।
चाहे हिंदू हो या मुसलमान दोनों नश्वर आत्मा अपने परमात्मा को बचाने के लिए लड़ रही हैं।
दोनों तरफ लोग अति पर हैं, कोई मंदिर को बचाना चाहता है तो कोई मस्जिद को।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लंबे समय से यह कोशिश थी कि देश की सत्ता के ऊपर जो व्यक्ति बैठे वह न सिर्फ धार्मिक हिंदू हो बल्कि धार्मिक हिंदू जैसा दिखे भी।
हालांकि, यह प्रयोग सबसे पहले उमा भारती के साथ किया गया था जो नाकाम रहा।
उमा भारती की कमी यही रही कि वे जनता में हिंदू होने का अहंकार और उग्रता पैदा नहीं कर पाईं।
इसलिए हिंदुत्ववादी पार्टी और लोगों ने उन्हें एक वाकये की तरह भुला दिया।
उमा भारती के निर्माण का दौर नर्म धर्म और नर्म राष्ट्रवाद का था, इसलिए वे मुख्यमंत्री का पद पाने के बाद जनता को धार्मिक गर्व के गढ़ में स्थापित नहीं कर पाईं।
देश के इतिहास में यह नया दौर दर्ज हो रहा जब जनता महंगाई को न्यायोचित ठहरा रही
योगी आदित्यनाथ ने खुद को हिंदू धर्म के उग्र चेहरे के रूप में स्थापित किया।
गर्व और उग्रता के मिश्रण से ही धार्मिक राजनीति परवान चढ़ती है और वह वोट के रूप में तब्दील हो पाती है।
आदित्यनाथ के हिंदू जनता को दिए श्रेष्ठताबोध ने बंपर बहुमत जुटाने के साथ जनता को अपनी राजनीति के अनुकूल भी बनाया।
देश के इतिहास में यह नया दौर दर्ज हो रहा जब जनता महंगाई को न्यायोचित ठहरा रही। जो कह रही, महंगाई विकास का प्रतीक है।
हमने सस्ते पेट्रोल के लिए हिंदुत्त्ववादी सरकार नहीं चुनी है।
जनता का बड़ा वर्ग सरकारी नौकरी को मुफ्तखोरी और रेवड़ी मान निजीकरण की राह पर गर्व के साथ चलने को तैयार दिख रहा है।
आप हिंदू हैं इसलिए अन्य से श्रेष्ठ हैं, अब लोगों के धर्म को उनकी निजी पहचान से ऊपर कर दिया गया है।
जनता तो हिंदू-मुसलिम पहचानों में विभाजित हो ही गई है, नेताओं की भी राजनीतिक पहचान धर्म तक सीमित हो गई है।
आज जो सत्ताधारी अगुआ हैं, उन्हें जनता किसी खास पार्टी के नेता नहीं, बल्कि एक हिंदू नेता के रूप में पहचानती है।
नेता की वृहत्तर पहचान यही है कि हमारे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री मंदिर जाते हैं, हिंदू आस्था का खुल कर प्रदर्शन करते हैं।
राजनेता अपनी इस सिकुड़े पहचान के साथ खुश हैं, यह उन्हें अपनी कुर्सी बचाने का सबसे आसान रास्ता लगने लगा है।
उन्हें अपनी चरित्रगत अन्य विशेषताओं से कोई मतलब नहीं है।
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी पहचान छोटी हो गई है।
छोटी पहचान से वे इसलिए संतुष्ट हैं कि इसके कारण जनता चुनावी मैदान में किए उनके उन बड़े वादों के बारे में नहीं पूछेगी जिन्हें सत्ता मिलते ही वे भूल गए थे, या जिन्हें पूरा करना मुमकिन ही नहीं था।
राजनीतिक शुचिता को खोने और राजनीतिक पारदर्शिता न होने के बावजूद नेता यह अनुमान लगा कर खुश हैं कि फिलहाल उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं है।
पहले उनकी राजनीतिक संपदा यही थी कि वे जो कहते थे, उसे पूरा करने की कोशिश करते हुए दिखते थे।
लेकिन अब वे खुश हैं कि लोगों ने कथनी और करनी के भेद पर सवाल पूछना बंद कर दिया है। वे इसलिए खुश हैं कि दूसरे दलों को भी उनके जैसा बन जाना पड़ा।
उनके गर्म के सामने कोई नर्म हिंदू होने को तैयार हो गया तो किसी ने खुद को भगवान हनुमान का सबसे बड़ा भक्त बता दिया।
धार्मिक पक्ष की तरफ जनता के झुके अक्ष को देख विपक्ष को लगा कि लोहा ही लोहे को काट सकता है।
मंदिर के जवाब में मंदिर ही जाना पड़ेगा, अब सब मंदिर की ओर जा रहे हैं।
जो वामदल इस राह पर नहीं जा सके, उनके लिए हर रास्ते बंद दिख रहे हैं।
धर्म को नकारने वाले वाम-दलों का जहां अस्तित्व बचा भी है, वहां कब संकट आ जाए कोई नहीं कह सकता।
लेकिन अब जनता को ही समझना होगा कि उसका भविष्य कैसे बनेगा।
अतीत को किसी भी तरह से दोबारा लौटाया नहीं जा सकता।
अगर आप अतीत को लौटाने की कोशिश करेंगे तो आपके वर्तमान का खाता खाली ही रहेगा।
मंदिर ही तो आखिरी सवाल नहीं है, जनता आखिर किस-किस बिंदु पर वापसी के जागरण पर जगी रहेगी।
जीवन के संदर्भों में धर्म एक अहम पक्ष है। हम धर्म के मामले में भी सुधार करने वाली कौम रहे हैं।
हमने औरतों और हाशिए पर पड़े लोगों के हक में जोड़ा और घटाया भी है।
अतीत चाहे जो भी हो, कितने भी शासक आए, लेकिन उसके बाद सभ्यता-संस्कृति आगे बढ़ी है।
आज आधुनिक युग में हमारे पास एक इतिहास बोध भी है।
उस दौर में तो फिर भी कह सकते हैं कि इतिहास-बोध नहीं था, वहां स्मृतियां थीं।
आज स्मृति, इतिहास और बोध सब है, इस बोधिवृक्ष के नीचे बैठ हम सब समझ सकते हैं कि किसी का भी अतीत में लौटना संभव नहीं है।
अतीत के आह्वान में जनता खुद को ‘डोरेमान’ (कार्टून चरित्र) जैसा समझने लगी है जो एक जादू से सब कुछ बदल देगा।
लेकिन ‘टाइम मशीन’ में बैठ कर डोरेमान चीजों को पलट सकता है, आम जनता नहीं।
देखते हैं, जनता कब तक राजनीति के धार्मिक चैनल पर रमी रहती है।
लेखक जनसत्ता के कार्यकारी संपादक हैं।
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