राकेश दुबे।
भारत में जो चल रहा है, वो ठीक नहीं लग रहा। यह सब समाज में वर्षों दबी या दबाई गई भावनायें हैं,इन्हें सही दिशा में ले जाने में कोई अड़ंगा है तो वो राजनीतिक विचारधारा है।
जो देश हित को भूल अपने-अपने ऐजेंडे पर चल रहीं हैं।
देश में यह प्रवृत्ति घातक स्तर तक जाती दिख रही है। परिणाम लोकतंत्र की रक्षा के लिये बने कानूनों का दुरुपयोग होता दिख रहा है।
हमेशा से ऐसा नहीं था, कई प्रेरक व सुखद प्रसंग याद आते हैं, जैसे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के तेरह दिन बाद सरकार बनाने से पीछे हटने की घोषणा की थी।
तब उन्होंने कहा था कि सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी जाएंगी, पार्टियां बनेंगी बिगड़ेंगी, यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए।
यह भावना आज तिरोहित होती जा रही है,इन दिनों में राजनीतिक दुराग्रह से मनमानी व्याख्याओं का दौर है।
दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल ऐसे आरोपों से परे नहीं है, लेकिन कुछ दलों ने मर्यादा व सहिष्णुता की सभी सीमाएं लांघ दी हैं। तो कहीं से विपक्षी दलों व सचेतक आवाजों के दमन की बातें सामने आ रही हैं।
देश के सामने अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण 1975 है, जब तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करके देश में आपातकाल लागू किया गया था।
आज इस हमाम में सभी राजनीतिक दल एक जैसे नजर आ रहे हैं, कुछ स्वतः: वस्त्रविहीन हैं तो कुछ के कपड़े-लत्ते बिना किसी कारण के रोज़ खींचे जा रहे हैं।
बारपेटा, असम के सत्र न्यायाधीश की टिप्पणी गौर करने लायक़ है, उन्होंने कहा है कि इतनी मुश्किलों से अर्जित लोकतंत्र को पुलिस राज में बदलने की बात सोची भी नहीं जा सकती, ऐसा कैसे और क्यों हो रहा है?
दूसरा उदाहरण पंजाब है, जहां आप सरकार द्वारा सत्ता ग्रहण करने के बाद पुलिस के जरिये कुमार विश्वास, अलका लांबा, तजिन्द्र बग्गा के खिलाफ की गई कार्रवाई प्रश्नाधीन है।
महाराष्ट्र राजनीतिक दुराग्रह से सांसद नवनीत राणा एवं उनके विधायक पति को राजद्रोह के साथ-साथ अन्य जेल भेज दिया गया,जो लोकतांत्रिक परम्पराओं के खिलाफ है।
दरअसल, सत्ता ने नेताओं को असहिष्णु बना दिया है। इतिहास तो आजादी के बाद के कुछ दशकों में पक्ष व विपक्ष के संबंध सहिष्णुता व सद्व्यवहार का रहा है।
तब विपक्ष की स्वस्थ आलोचना का सम्मान किया जाता था, राष्ट्र के हित सर्वोपरि थे।
1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा पहुंचे तो उस समय जनसंघ के कुल तीन सदस्य थे, तब पं. जवाहर लाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री थे।
अटल बिहारी वाजपेयी अपनी वाकपटुता व विदेश नीति के ज्ञान के चलते सरकार की कटु आलोचना करते थे। जवाहर लाल नेहरू तब इस युवा सांसद से इतने प्रभवित थे कि उन्होंने लोकसभा में यह कह दिया था कि एक दिन यह युवा सांसद देश का प्रधानमंत्री बनेगा।
सबसे छोटी पार्टी जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी, उसका सत्ता में आना व उसका नेता प्रधानमंत्री होना किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था।
एक बार वाजपेयी ने नेहरू से बेबाक़ कहा था कि आपका व्यक्तित्व दोहरा है,आज तो आलोचना दुश्मनी को आमंत्रण देने जैसी है।
26 जनवरी, 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में 3 हजार स्वयंसेवकों को पूर्ण गणवेश में शामिल होने का मौका पंडित नेहरू ने ही दिया था।
1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई।
इस सभा में स्वर्गीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘गुरु जी’को हेलिकाप्टर भेज नागपुर से बुलाया गया।
1971 भी याद कीजिए,जब राजनीतिक दल इंदिरा गांधी का विरोध कर रहे थे तो जनसंघ ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय का दायित्व बनता है कि संकट की घड़ी में सभी प्रधानमंत्री का साथ दें।
1977 में वाजपेयी विदेश मंत्री बने और साऊथ ब्लाक के गलियारे में लगी जवाहर लाल नेहरू की फोटो गायब मिली तो वाजपेयी ने तुरंत अधिकारियों को बुलाया और निर्देश दिया कि जवाहर लाल नेहरू की फोटो वहीं पर लगाई जाए।
1996में जब वाजपेयी ने जब शपथ ली थी तो पीवी नरसिम्हा राव, एपीजे अब्दुल कलाम से वाजपेयी मिले थे। पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था कि सामग्री तैयार है, आप आगे बढ़ सकते हैं।
संदर्भ सब जानते हैं और भारत एक परमाणु शक्ति बन गया। भारत विश्व का लोकतंत्र एक अनूठा लोकतंत्र है, इसकी दिलो-जान से सबको रक्षा करनी चाहिए ।
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