Breaking News

गठबंधन राजनीति के कायदे-कानून, पेंडुलम से हिलते विधायक और सरकारें

राजनीति            Jan 17, 2019


राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ बड़ी मुश्किल है, लोकसभा चुनाव के लिए चमकदार चेहरो की खोज करना वर्तमान माहौल चुनौती बनता जा रहा है। दोनों ही दलों के जीते विधायकों की रूचि संसद में जाने की नहीं है।

कांग्रेस को इस प्रयोग में सरकार खोने का डर सता रहा है तो भाजपा के पास विधानसभा चुनाव के पिटे मोहरे ही बिसात पर हैं।

भाजपा को कर्नाटक सा नाटक प्रदेश में दिख रहा है उसका दांव लोकसभा चुनाव से पहले प्रदेश में कर्नाटक जैसे हालात पैदा करना है सफलता का राजनीति में अर्थ कुछ भी और कैसे भी करना ही रह गया है।

पहले कर्नाटक की बात। पेंडुलम की तर्ज पर हिलते विधायकों के कारण कर्नाटक एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता से घिरता दिख रहा है।

इसका अंदेशा तभी उभर आया था जब विधानसभा चुनाव बाद सीटों के मामले में तीसरे नंबर की पार्टी जनता दल-एस ने दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी।

हालांकि पहले नंबर पर आई और साधारण बहुमत से दूर रही भाजपा ने भी जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। मध्यप्रदेश में भी वर्तमान सरकार जैसे तैसे बनी और रोज नई धमकी के धक्के खाते हुए चल रही है।

वास्तव में जब जनादेश निर्णायक न हो तो ऐसा ही होता है। सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दलों को या तो जोड़-तोड़ करनी पड़ती है या फिर धुर विरोधी दलों को एक साथ आना पड़ता है। दोनों ही स्थितियों में जनादेश का निरादर होता है।

खंडित जनादेश! कर्नाटक जैसे कई अन्य राज्यों में भी है। सच तो यह है कि केंद्र में भी ऐसी स्थिति आ चुकी है।

बावजूद इसके इस सवाल का जवाब खोजने की कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही है कि त्रिशंकु जनादेश की स्थिति में साफ-सुथरे तरीके से सरकार का गठन कैसे किया जाए जिससे राजनीतिक अस्थिरता से मुक्ति मिलने के साथ ही आयाराम-गयाराम की राजनीति को पनपने का अवसर न मिले, पर कोई प्रयास नहीं करना चाहता।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि निर्णायक जनादेश के अभाव में सरकार गठन का कोई तर्कसंगत उपाय इसीलिए नहीं खोजना ही लक्ष्य है जिससे जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के अवसर बने रहें।

इसका दुष्परिणाम केवल यह नहीं है कि सरकारें राजनीतिक अस्थिरता से घिरी रहती हैं और वे विकास एवं सुशासन पर बुरा असर डालती हैं, बल्कि यह भी है कि राजनीतिक मौकापरस्ती और सौदेबाजी को बल मिलता है।

आमतौर पर यह सौदेबाजी भ्रष्टाचार और कुशासन को फलने-फूलने का ही मौका देती है। शायद राजनीतिक दलों को इसमें ही अपना हित दिखता है। गले नहीं उतरती ये बातें, जैसे कर्नाटक के मुख्यमंत्री के अनुसार उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं और वहां के भाजपा नेताओं पर यकीन करें तो उनके विधायक और चुनाव की रणनीति बनाने के लिए कहीं और आए हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सच कुछ और ही हो सकता है।

अगर कर्नाटक में नए सिरे से राजनीतिक समीकरण बनते-बिगड़ते हैं और उसके फलस्वरूप वहां नई सरकार बनती है तो इससे जोड़-तोड़ की राजनीति को ही बल मिलेगा। इस नई सरकार को भी राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है। इस सबसे अगर कोई घाटे में रहेगा तो वह होगी कर्नाटक की जनता। ऐसा ही अन्य जगह भी हो सकता है।

यदि राजनीतिक दलों को जनता के हितों की तनिक भी परवाह है तो उन्हें गठबंधन राजनीति के कायदे-कानून बनाने और त्रिशंकु जनादेश की हालत में एक सक्षम सरकार बनाने के तौर-तरीके तय करने के लिए आगे आना चाहिए।

 


Tags:

army-train

इस खबर को शेयर करें


Comments