राकेश दुबे।
भाजपा में एक तरफ सदस्यता अभियान जोरों पर है, दूसरी तरफ उसके भीतर हुए निर्णयों के चर्चा जोरों पर है। भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा या उनके इशारे पर लिए गये निर्णय उस कहानी की ही पुष्टि कर रहे हैं कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
यह बात भी साफ़ होने लगी है कि भाजपा में संघ के अतिरिक्त कोई और शक्ति भी काम करती है जो भाजपा की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है।
जंगल की उस कहानी तरह जिसमें एक समान अपराध के लिए बड़े बख्श दिए जाते हैं और पेड़ पर बैठा तोता इसलिए दंडित कर दिया जाता है कि उसने दृश्य का वर्णन किया था।
यही सब तो हुआ भाजपा में पिछले दिनों। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, अनंत कुमार हेगड़े, नलिन कतील और अनिल सौमित्र सबके उपर एक ही आरोप था कि पार्टी की नीति के विपरीत बयान और गोडसे की महिमा का मंडन।
फैसले अलग हुए किसी को संसद की महत्वपूर्ण समिति में जगह मिली, किसी से पूछताछ तक नहीं हुई और किसी को सुने बगैर सजा सुना दी गई। सजा से ज्यादा बड़ी तोहमत लगी।
संघ के किसी स्वयंसेवक को कम्युनिस्ट कहना सबसे बड़ी तोहमत है। भाजपा के साथ संघ के अनुषांगिक सन्गठन में अहम भूमिका निभाते पूर्व प्रचारक पर ऐसी तोहमत के बारे मे क्या कहा जाये?
तोहमत लगाने वालों की बुद्धि पर तरस आता है और निर्णयकर्ताओं की बुद्धि पर पर स्वमेव प्रश्नचिंह लगता है।
भाजपा के शीर्ष पर जो जोड़ी काम कर रही है, उसके द्वारा या उसकी मंशा के अनुरूप ही प्रज्ञा ठाकुर,अनंत हेगड़े ,नलिन कतील और अनिल सौमित्र के मामले में निर्णय किये या करवाए गये हैं।
आकाश विजयवर्गीय और छतीसगढ़ बल प्रयोग करने वाले पार्षद पर भी इसी प्रक्रिया से निर्णय होगा यह बात सहज समझ आती है। अब इस निर्णयों की समीक्षा करें तो साफ समझ आता है कि उपर के इशारों का मनमाना अर्थ नीचे निकाला जाता है।
यह अर्थ जंगल की उस कहानी की याद दिलाता है जिसमें समान अपराध पर बड़े जानवर को बख्शा गया और सही बोलने वाले तोते को मृत्यु दंड इस कारण मिला कि उसने गलत को गलत और सही को सही कहा था।
भाजपा के सारे निर्णयों में संघ का नाम घसीटना एक शगल बन हुआ है। इन निर्णयों को बारीकी से देखें तो इसमें संघ से इतर किसी और शक्ति का आभास होता है।
संघ के अधिकारी भी इन मामलों में यह कह कर मुक्त नहीं हो सकते की ये निर्णय भाजपा के हैं वो जानें।
इस विषय के आदि और अंत में की भूमिका में प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध तो है ही। यह सम्बन्ध भाजपा के आंतरिक लोकतन्त्र की सेहत भी दर्शाता है।
यह भारत है, पाकिस्तान नहीं। यहां लोकतंत्र का राज चलता है, जो दल के भीतर भी अपेक्षित है।
हो सकता है कि कभी कभार झूठे प्रचार, और गलत जानकारी में कोई निर्णय गलत हो जाए, और यह भी हो सकता है कि निर्णय करते समय आंखों पर कभी कभार की पट्टी बांध दी जाए, लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सकता कि लोकतंत्र की चेतना जागृत ही न हो और उसकी आंखें न खुलें।
भाजपा में इन दिनों “खुदा” होने का गुरुर भी कुछ लोगों में आ गया है। ‘खुदाई’ का नशा बुरी लत है। यह जल्द उतरता नहीं। संगठन और शासन चलाना ऐसा ही काम है कि अगर शीर्ष उलझन में पड़े तो वह खुद को बचाने के लिए वो क्या नही करता है, सब करता है।
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