जीत के तो सब माई बाप पराजय अक्सर अनाथ रहती है

राजनीति            Jun 13, 2022


राघवेंद्र सिंह।
कुशाभाऊ ठाकरे द्वारा तराशी गई मध्य प्रदेश भाजपा इन दिनों अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है।

दरअसल भाजपा संगठन शक्ति के कारण दूसरे दलों से अलग मानी जाती रही है। संघ से संस्कारित उसके संगठन महामंत्री और संगठन मंत्री गुटबाजी से परे रहते थे।

विचारों के प्रति समर्पण व निष्ठा और उच्च आदर्शों के चलते निजी पसंद नापसन्द से अलग कार्यकर्ताओं के अभिवावक बन नेताओं को नियंत्रित कर करते रहें हैं।

लेकिन ठाकरे जन्म शताब्दी वर्ष में एक-एक कर उनकी बनाई व्यवस्था टूट रही हैं।

कहां तो पहले 33 क्षेत्रिय संगठन मंत्री और उसके बाद संभाग से लेकर जिले तक संगठन मंत्रियों की टीम प्रदेश के संगठन महामंत्री को मदद करती थी।

लेकिन सुहास भगत जी विदाई के बाद प्रदेश संगठन महामंत्री के पद पर प्रमोट हुए नए नवेले हितानन्द शर्मा को अकेले ही नैतिक पतन, गुटबाजी, भृष्टाचार, जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा है।

नगरीय निकाय चुनाव में भोपाल इंदौर ग्वालियर मैं महापौर प्रत्याशी का चयन नहीं होने से गिरावट और गुटबाजी के रुझान भी मिलने लगे हैं।

माथापच्ची की हालत यह है कि इन शहरों के मेयर उम्मीदवार का चयन दिल्ली में हाईकमान की निगहबानी के बाद होगा।

ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि विवादों में कोई नही पड़ना चाहता।

जीत का श्रेय तो मिलेगा नही लेकिन 'हार' के लिए उनका गला जरूर इस्तेमाल हो जाएगा।

जीत के तो सब माई बाप मगर पराजय अक्सर अनाथ रहती आई है।

चुनाव के लिए नामजदगी 11 जून से पर्चे दाखिल होना शुरू हो गए हैं लेकिन 12 जून तक सभी 16 नगर निगमों, 76 नगर पालिकाओं और 298 नगर परिषदों के मेयर से लेकर अध्यक्ष व पार्षदों के प्रत्याशी तय नही हो सके हैं।

अनिश्चितता और अव्यवस्था का ऐसा दौर जो कभी कांग्रेस में होता था अब भाजपा में सिर चढ़ कर हो रहा है। ज्यादातर उलटा पुलटा हो रहा है।

देर से ही सही प्रदेश की चुनाव समिति का पहले जिले और संभागीय चुनाव समितियों का गठन बीते दो चार दिन में ही हुआ है।

पूरे प्रदेश के दावेदारों में अजीब सी बेचैनी रही,वे किसे और कैसे अपना बायोडाटा दें ?

पहले संभाग और फिर जिले के संगठन मंत्री पूरे समय कार्यकर्ताओं के कामकाज और उनकी ईमानदारी पार्टी के प्रति वफादारी का आंकलन करते रहते थे।

उसी हिसाब से पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक के प्रत्याशी बिना किसी शोरशराबे के तय हो जाया करते थे।

कौन किस चुनाव के लिए और संगठन के लिए कितना काबिल है उसका निर्णय सहमति और आवश्यकता पड़ी तो समझा बुझा कर लिया जाता था।

इसमें गणेश परिक्रमा वालों के लिए अवसर बहुत मामूली हुआ करते थे।

फैसला आम सहमति से हो और उसे मथने के लिए बैठकों के कई दौर भी होते थे।

पहले दिमाग का दही नही होता था, जिला व संभागीय इकाइयां दूध का दही बना उसमें मख्खन निकाल दावेदारों की साफ सुथरी सूची प्रदेश नेतृत्व और चुनाव समिति को सौंपती थी।

इतने पर भी किसी योग्य दावेदार की अनदेखी हुई हो तो उसके पक्ष को भी सुनने की व्यवस्था होती थी।

फैसले कम ही बदले जाते थे लेकिन आवश्यक हुआ तो यदाकदा परिवर्तन भी किए जाते थे।

भाजपा में कहा जाता था निर्णय के पहले खूब तर्क—वितर्क और दलील हो जाए लेकिन एक बार जो फैसला हो फिर सब उसे सफल करने में जुट जाएं।

इस परिपाटी के चलते बहुत विरोध करने वाले भी पार्टी को जिताने के लिए जी जान एक कर देते थे।

पार्टी में नेता- कार्यकर्ताओं इस तरह की आदत के पीछे सादगी भरे संगठन मंत्रियों के मजबूत चाल, चरित्र- चहरे की भूमिका सबसे अहम होती थी।

भाजपा में आदर्श संगठन मंत्री अब लगता है गुजरे जमाने की बात हो गई है।

एक समय था जब प्रदेश के संगठन महामंत्री ने मुख्यमंत्री से यह कहते हुए इस्तीफा ले लिया था कि विधायक दल में आप विश्वास खो चुके हैं।

ऐसे ही एक राष्ट्रीय संगठन महामंत्री ने जिन्ना की प्रशंसा कर पाकिस्तान से स्वदेश लौटे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष से एयर पोर्ट पर त्यागपत्र देने के लिए कह दिया था।

अभिवाजित मध्यप्रदेश में एक समय तीन क्षेत्रीय संगठन मंत्री की व्यवस्था थी।

छत्तीसगढ़ बनने के बाद प्रदेश में एक संगठन महामंत्री के साथ संभागीय संगठन मंत्री और इसे विस्तारित कर जिलों में संगठन मंत्री बनाए जाने लगे।

लेकिन सत्ता व संगठन की चकाचौन्ध में फिसलने वाले संगठन मंत्रियों के आचरण और व्यवहार पर सवाल खड़े होने लगे।

शिकायतों का परीक्षण और आचरण का आकलन करने बाद कुछ महीने पहले जिले और संभागीय संगठन मंत्रियों की व्यवस्था समाप्त कर दी गई।

इसके बाद संगठन में कोई नई व्यवस्था नही बनी। तदर्थवाद के चलते कार्यकर्ता और नेताओं पर नजर रखने वाली एजेंसी समाप्त हो गई। धीरे-धीरे इसके दुष्परिणाम दिखने शुरू हुए।

बुरी बात ये भी हुई कि जिन पर संगठन के काम में आरोप लगे थे उन्हें दण्डित या हाशिए पर डालने के बजाए सत्ता में हिस्सेदारी दे दी गई।

इससे कार्यकर्ता चकित था, उसे उम्मीद थी कि कोई साफ सुथरी नई व्यवस्था बनेगी।

इससे भाजपा में चिंता और हारी हुई बाजी जिताने वाले जमीनी नेताओं व कार्यकर्ताओं में मायूसी है।

ऐसे ही कारणों से नगरी निकाय और पंचायत चुनाव में भी बीजेपी का संगठन बिखरा—बिखरा चलेगा।

यही वजह है कि जालसाज की पत्नी को टिकट मिल रहा है,विधायक और सांसदों के हुक्म की तामील करने वाले चहेते पार्षद और यस मेन नेताओं को।

मेयर प्रत्याशी बनाने की प्रेशर पॉलिटिक्स काम कर रही है।

जब संगठन के उम्मीदवार नहीं हैं, इसलिए वफादारी जिताने वाले संगठन के बजाए टिकट दिलाने व्यक्ति, सांसद- विधायकों के प्रति होने लगी है।

आम कार्यकर्ता चुनाव लड़ना चाहता है लेकिन, संगठन और सरकार में उसका कोई पेरोकार नहीं है।

इस सबके चलते पिछले हफ्ते भाजपा के राष्ट्रीय संगठन अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था की पार्टी किसी नेता के परिजन को टिकट नहीं देगी उनके ही गाइडलाइन को कई जगह टूटा हुआ देख सकते हैं।

नगरी निकाय चुनाव में जब यह हाल है तो विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी चयन को लेकर पार्टी को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। सबसे खास बात निर्णय के बाद उपजे असंतोष को कौन करेगा?

ना तो जिला-संभाग में संगठन मंत्री हैं और ना ही प्रदेश के संगठन महामंत्री को भाजपा में उठापटक और चुनावी सिस्टम का तजुर्बा है।

प्रदेश के संगठन महामंत्री पार्टी में अपने दायित्व में घर मे आई उस नई बहू की तरह हें जिसके हाथ की अभी मेहंदी और पांव की महावर भी नहीं छूटी है।

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कांग्रेस में दिग्विजय संगठन मंत्री की भूमिका में ...
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेस में अघोषित संगठन मंत्री की भूमिका में हैं। कार्यकर्ताओं से सतत संपर्क संवाद और उनके दांवों की बारीकी से जांच फिर उस पर निर्णय ने कांग्रेस को एकदम बदल सा दिया है। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के साथ मिलकर दिग्विजय सिंह का प्रबंधन कांग्रेस को नगरी निकाय के चुनाव में पहले दौर में बढ़त दिलाई हुए भाजपा प्रत्याशी चयन में बहुत सतर्कता बरत रही है लेकिन निर्णय में देरी और गलत निर्णय को ठीक करें के लिए समय का भाव भाजपा को कमजोर साबित कर रहा है यही वजह है कि जो कांग्रेसी पिछले चुनाव में पूरी 16 नगर निगम में महापौर के उम्मीदवार हार गए थे। अब उनका दावा है कम से कम आधी सीटें जीतने का। कांग्रेस इस दिशा में मजबूती से आगे भी बढ़ रही है। शुरुआती दौर में न्यूनतम गुटबाजी के निर्णय करने की कांग्रेस की यही ताकत भाजपा नेताओं को चिंता में डाले हुए है।

 



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