राघवेंद्र सिंह।
मध्यप्रदेश में सत्ता और विपक्षी दल अजीब सी कश्मकश में है। कांग्रेस-भाजपा दोनों ही अब तक के सबसे कठिन दौर से गुजरते लग रहे हैं। कहीं नेता-कार्यकर्ता उपेक्षा और असंतोष की आग में जल रहे हैं तो कहीं अवसाद में डूबते दिख रहे हैं। कुछ बागी हो रहे हैं तो कुछ आत्महत्या तक कर रहे हैं।
हालात विस्फोटक हैं और चिंता की बात यह है कि जिम्मेदार कम्बल ओढ़ कर मजे ले रहे हैं। मनोनीत जिला अध्यक्ष में कई ऐसे हैं जो पार्टी की सेवा में कम प्रदेश भाजपा के दिग्गज नेताओं के ऐसे निजी व पारिवारिक कामों में ज्यादा मसरूफ रहते हैं आमतौर पर जो एक नौकर कर सकता है। स्वाभिमानी कार्यकर्ता बस यही पिछड़ जाता है।
इंदौर जिला भाजपा में कांग्रेस में रहे नेता को आईटी सेल का जिला संयोजक बनाने से असंतोष की जो आग भड़की तो उसे अनुशासन और शोकाज नोटिस के पानी से बुझाने की कोशिश हो रही है।
प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता उमेश शर्मा ने नाराजगी जताते हुए कहा था हम अनुशासित हैं लेकिन गुलाम नहीं है। यह बात भले ही उमेश शर्मा के मुंह से निकली हो लेकिन यह लाखों भाजपा कार्यकर्ताओं के मन की बात है।
इसे जितनी जल्दी भाजपा नेतृत्व समझेगा नुकसान उतना ही कम होगा।
कांग्रेस को देखें तो वहां पूर्व मुख्यमंत्री रहे दो नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच दरार में पार्टी को चिंता में डाल दिया है। अभी ये दोनो नेता पूर्व पश्चिम हैं लेकिन हालात नही सुधार तो दोनो में आंकड़ा 36 का भी हो सकता है।
भाजपा इवेंट की पार्टी बन रही है उसमें मैनेजर और मीडिया मेडिएटर अर्थात दलालों और दल बदलूओं का बोलबाला है। बस इसी चिट्ठी को तार समझने की जरूरत है। इंदौर की ही बात करें तो युवा के नाम पर गौरव रणदिवे जिला अध्यक्ष बना दिए गए।
दिग्गजों से भरपूर इंदौर में लोकसभा अध्यक्ष रही सुमित्रा महाजन, कैलाश विजयवर्गीय, उषा ठाकुर, रमेश मेंदोला मालिनी गौड़ गोविंद मालू गोपीकृष्ण नेमा जैसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है इन सबके बीच रणदिवे को संतुलन बना कर चलना नटगिरी से कम नहीं है।
सारे दिग्गजों के बीच समन्वय के लिए उनकी काबिलियत भी दाव पर लगी थी। दुर्भाग्य से रणदिवे इसमें कामयाब नहीं हो पाए ऐसा लिखना एक तरह से उनकी योग्यता पर निर्णय सुनाना नहीं है लेकिन भाजपा के लिए यह नुकसान जरूर है। इसमें रणदिवे की गलती कम उन्हें चुनने वालों की शायद ज्यादा है।
यहां से उनका राजनीतिक कैरियर आगे के लिए टेक ऑफ करने वाला था लेकिन जो हालात हैं उसके हिसाब से उन्हें इमरजेंसी लैंडिंग मोड पर आना पड़ सकता है। पार्टी ने जिद्दी रवैया अपनाया तो हो सकता है जिलाध्यक्ष का फायदा हो लेकिन संगठन को जरूर खामियाजा उठाना पड़ सकता है। पिछले दो-तीन साल मे देखें तो कई जगह भाजपा ने रणदिवे तैयार कर लिए हैं।
नौसीखिए और रंग रूटों की तरह अनाड़ी भी साबित हो रहे हैं। अभी तो ठीक चुनाव में इससे भारी दिक्कत होने वाली है। नई नवेले नेताओं को पार्टी की परिपाटी और परंपराओं का ज्ञान कम है इसलिए उन्हें सबको साथ लेकर चलने में अपने पद और अहंकार से समझौता करना कठिन हो रहा है।
यही वजह है कि ऐसे नए नेताओं के कामकाज को लेकर असंतोष बगावत तक जाता दिख रहा है। ये भाजपा प्रवक्ता उमेश शर्मा की मुखरता ने उन्हें पार्टी में हाशिए पर लाए जा रहे नेताओं की आवाज बना दिया हैं।
संक्षेप में कहा जाए तो भाजपा का निष्ठावान और स्वाभिमानी कार्यकर्ता वर्ष 2003 के बाद से जब पार्टी सत्ता में आई तब से उपेक्षित महसूस कर रहा है। पार्टी में दल बदल कर आए कार्यकर्ताओं को जब उनसे ऊंचा ओहदा दिया जाने लगा तो उसे यह सहन करना मुश्किल लग रहा है। लेकिन यह बात जिम्मेदारों की समझ में कम आ रही है और वह उसका यह दुख दूर करने में असहाय और असमर्थ लग रहे हैं।
भाजपा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समूह सिर्फ मतदान के दिन वोट घर से निकालने और उन्हें मत डलवाने तक सक्रिय रहता है और उसके बाद वह अपने काम में लग जाता है उससे पार्टी और नेताओं की रोजमर्रा की गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं होता है।
भाजपा कार्यकर्ताओं की दूसरी श्रेणी ऐसे समूह की है जो चुनाव का ऐलान होते ही पार्टी को जिताने में खुद संगठनों और नेताओं के पास जाकर जिम्मेदारी लेता रहा है और चुनाव प्रचार कर मतदान के बाद वह अपने रोजगार धंधे में लग जाता है तीसरी श्रेणी उन कार्यकर्ताओं की है जो 365 दिन पार्टी के लिए काम करते हैं उन्हें पद से कम अपनी पार्टी और नेताओं की चिंताओं से ज्यादा मतलब रहता है।
ऐसे कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को देखकर पार्टी मंडल और जिलों में संगठन के पद देकर काम कराती है और कभी कभी पार्षदों के टिकट देकर उन्हें चुनाव भी लगाती है आमतौर से इन्हीं में से जो कार्यकर्ता पार्टी की कसौटी पर खरा उतरता था उसे विधायक और अन्य चुनाव उम्मीदवार बनाया जाता था।
दूसरी पार्टी छोड़कर आने वाले नेतागण कम से कम उस वफादार नेता से ऊपर नहीं होते थे। इसके अलावा जनता से जुड़े कामों और कभी-कभी उसके नीचे काम भी प्राथमिकता से संगठन और सरकार में कराए जाते थे। लेकिन 2003 के बाद धीरे धीरे पार्टी के वफादार कार्यकर्ता किनारे होते गए और दल बदलू, दलाल, चापलूस नेताओं की भरमार हो गई।
ऐसे अवसरवादी नेताओं को जब सरकार के साथ संगठन में पद मिलना शुरू हुए तो अनुशासन में रहने वाला देव दुर्लभ कार्यकर्ता बगावत करने के साथ आत्मघात जैसे कदम उठाने लगा। कार्यकर्ताओं की अनदेखी पर पहले वरिष्ठ नेता और संगठन मंत्री उनकी तरफदारी किया करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। अधिकतर अपना हित साधने और इज्जत बचाने में लगे हैं।
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