हेमंत कुमार झा।
उन्होंने ऐतिहासिक तीर्थ की पवित्र नदी में डुबकियां लगाईं, फिर आंखें बंद कर ईश्वर वंदन किया। यह उनकी निजी आस्था थी, लेकिन इस दृश्य को 55 कैमरों द्वारा शूट कर देश-विदेश में उसके सीधे प्रसारण ने निजी आस्था को सरकारी पाखंड में बदल दिया।
फिर, उनकी पार्टी के तमाम मुख्यमंत्रियों और उप मुख्यमंत्रियों ने एक साथ अयोध्या जा कर पार्टी अध्यक्ष के नेतृत्व में राम लला के 'दर्शन' किये।
फिर...सामूहिक रूप से 'सरयू आरती' की...'पूजा अर्चना' की।
न्यूज चैनलों के एंकर भक्ति भाव से इन तमाम कार्यक्रमों के विवरण दिखाते-बताते रहे।
निरन्तर छल-प्रपंच में रमे राजनेताओं को कभी भगवान के दरबार में भी जाना ही चाहिये। वहां वे अपने अंतःकरण को टटोल सकते हैं।
लेकिन...कैमरों की चकाचौंध और सार्वजनिक प्रदर्शन की कामना से प्रेरित स्नान, डुबकी, दर्शन, आरती आदि आस्था नहीं, तमाशा है।
राजनीति में यह सब भी होता ही है।
हालांकि, जब से वे आए हैं, यह सब अधिक होता है, बल्कि बहुत अधिक होने लगा है। इतना...कि सीधे-सीधे इसे फूहड़ राजनीतिक छद्म कहा जा सकता है।
जीवन से जुड़े जरूरी सवालों से मुंह चुरा कर दर्शन-आरती का सार्वजनिक छद्म बेरोजगारी, महंगाई और कारपोरेट लूट से त्राहि-त्राहि कर रही जनता के साथ धोखा है।
जब वे डुबकी लगाने के बाद आंखें मूंदे ईश वंदना में लीन थे, जब दर्जनों कैमरे अलग-अलग एंगल से तत्परता के साथ उनकी फोटो-वीडियो ले रहे थे, जब एक साथ न जाने कितने चैनल इसके सीधे प्रसारण में लगे थे, जब हवाएं रुक गईं थीं, सूर्य ठहर गया था और देवता गण अपना-अपना काम छोड़ कर मुग्ध भाव से आकाश से यह सब देख रहे थे...तब...सत्य भी वहीं कहीं ठहर गया था।
सत्य...जिसकी गूंज को कुछ समय के लिये किसी कृत्रिम कोलाहल के बीच अनसुना तो किया जा सकता है लेकिन वह फिर-फिर लौटता है...सवाल बन कर, चुनौती बन कर।
वे इन सवालों से शुरू से ही बचते रहे हैं। इसलिये मसखरों और कीर्तनियों को कुछेक इंटरव्यू उन्होंने जरूर दिए, लेकिन कभी भी किसी पत्रकार अपने आसपास फटकने नहीं दिया।
किन्तु, सवाल तो अपनी जगह कायम हैं, जो उनकी प्रायोजित कृत्रिमताओं पर भी अब भारी पड़ रहे हैं।
वे नदी की शांत धारा के बीच खड़े थे, उनकी आंखें बंद थीं लेकिन उनका कैमरा उत्सुक भाव उनके भीतर की सजगता की चुगली कर रहा था। कैमरे के प्रति इतना उत्सुक, इतना आग्रही नेता और किस देश में होगा, यह अनुसंधान का विषय है।
प्रायोजित तमाशे सम्भवतः उन्हें वोट दिलवा दें, उनकी विफलताओं के सत्य को नकार नहीं सकते।
वे अभी इतिहास नहीं बने हैं लेकिन उनकी विफलताएं इतिहास में दर्ज हो रही हैं। रिकार्ड पर रिकार्ड बनाती उनकी नाकामियां अब लोगों पर बेहद भारी पड़ने लगी हैं।
नाकामियों की इन दरारों को वे अपने फूहड़ तमाशों से भर नहीं सकते। उसके लिये विजन चाहिये, विजनरी टीम चाहिये। समय ने साबित किया है कि अपने वोटरों के जीवन को संवारने के विजन का अभाव उनमें तो है ही, उनकी टीम तो और भी माशा अल्लाह है...जो किसी नदी किनारे लाइन में खड़े होकर आरती की थाली तो घुमा सकती है, लेकिन अपने समय की चुनौतियों का सामना नहीं कर सकती।
तख्त पर आसीन होते वक्त उन्होंने सालाना दो करोड़ नौकरियों के वादे के साथ बेरोजगारी से लड़ने का संकल्प दिखाया था। लेकिन, उल्टे...अब उनके राज में बेरोजगारी बीते 45-50 वर्षों का रिकार्ड तोड़ चुकी है।
अपने भाषणों में वे आक्रामक भाव-भंगिमाओं से दोहराते रहते थे कि स्विस बैंक में जमा होने वाले धन पर वे अंकुश लगाएंगे। खुद स्विस बैंक ने जानकारी दी कि उनके राज में पिछले वर्ष भारतीय धनपतियों ने इतने पैसे जमा कराए कि बीते 13 वर्षों का रिकार्ड टूट गया।
महंगाई को लेकर वे अपने भाषणों में खास तौर पर जनता से मुखातिब होते थे। अखबार में छपी खबरें बता रही हैं कि उनके राज में महंगाई की बढ़ती दर ने पिछले 30 साल का रिकार्ड तोड़ दिया है।
सरकारी बैंकों को चूना लगाने में कारपोरेट ने भी लगे हाथ रिकार्ड ही बना दिया उनके राज में। उनके आर्थिक सलाहकार आंकड़ों की कलाबाजी दिखाते रहे और भारतीय बैंकिंग सिस्टम चरमराने की हद तक पहुंचने लगा। नतीजा, ये शुल्क, वो शुल्क के नाम पर आम जमा कर्त्ताओं की जेब काटने में बैंक लग गए।
कारपोरेट लूट की भरपाई आम जनता की जेब काट कर करने में माहिर होता गया उनका तंत्र। नतीजा, हर क्षेत्र में टैक्स की दरें असहनीय होती गईं।
उनके राज में आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकारी सम्पत्तियों को बेचने का सिलसिला तब तेज हो गया जब पूरी दुनिया में ऐसी नीतियों के प्रति सन्देह बढ़ने लगे थे।
वे एक पूरी पीढ़ी की आकांक्षाओं के प्रतीक बन कर राष्ट्रीय पटल पर धूमकेतु की तरह उभरे थे, भले ही इसकी पृष्ठभूमि में कारपोरेट शक्तियों के बरसों के जतन रहे थे।
उन्होंने इन आकांक्षाओं में जम कर पलीता लगाया। सत्य का सामना तमाशों से नहीं किया जा सकता
वे नदी की शांत धारा में बेहद शांत मुद्रा में नजर आने की कोशिशें करते दिख रहे थे, लेकिन, वे भी महसूस कर रहे होंगे कि ओढ़ी गई शांति अब उनका भी सत्य नहीं है। चीजें तेजी से फिसल रही हैं उनके हाथों से।
कारपोरेट लूट को तो वे अपने तमाशों और वाकचातुर्य के साथ ही अपने पालतू मीडिया के सहारे से ढक लेंगे, लेकिन बेरोजगारी और महंगाई के विकराल होते ग्राफ को वे अधिक समय तक नहीं ढक पाएंगे।
। भले ही इसे करने-करवाने में कोई कितना भी माहिर हो।
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