मल्हार मीडिया भोपाल।
नदियाँ तभी तक नदियाँ हैं जब तक बहती रहें। उन्हें बांध कर हम नदियों को तो मार ही रहे हैं, मानव सभ्यता के लिए भी संकट बढ़ाते जा रहे हैं। नदियों को बचाने के लिए गंभीर चिंतन और उपाय का यही वक़्त है अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।
इसी मुख्य सरोकार को लेकर कुछ वन अधिकारियों, पर्यावरणविदो, जल विशेषज्ञों और पत्रकारों में सार्थक बातचीत हुई। जगह थी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित माधवराव सप्रे समाचारपत्र संग्राहलय एवं शोध संस्थान। सभी इस बात पर एकमत दिखे कि नदियों को सतत प्रवाहमय बनाये रखने के लिए बेहतर होगा कि सरकारें और उनके कारिंदे नदी किनारे रहने वालों से संवर्धन के उपाय सीखें न कि उन्हें सिखाएं।
प्रसिद्ध जल विशेषग्य डॉ नारायण व्यास ने विषय प्रवर्तन करते हुए नर्मदा में घटते जल प्रवाह पर चिंता जाहिर की। प्रकृति नदियों को दो तरह से प्रवाहमान बनाये रखती है।एक, उनकी रेत समुद्र तक पहुंचाती है और, दूसरा, उनके कछारों को साफ रखती है।
नर्मदा नदी पर बने बाँधों का उदाहरण देकर डॉ व्यास ने बताया की हमने प्रकृति की राह में बाधा खड़ी की। नतीजतन, नर्मदा का जलसंचय बरगी से लेकर इंदिरा सागर बांध तक उत्तरोत्तर घटता गया।
वरिष्ठ भारतीय वन सेवा अधिकारी एवं नर्मदा पर लिखी पुरुस्कृत किताब के लेखक डॉ पंकज श्रीवास्तव ने पर्यावरण संरक्षण के प्राचीन उपायों की अनदेखी को नदियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार बताया।
आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक वराह मिहिर की वृहद् संहिता के हवाले से डॉ श्रीवास्तव ने रोचक जानकारी दी कि किस तरह मनुष्य के शरीर की तरह पानी की अलग अलग शिराएँ होती हैं। स्थान विशेष में भूमिगत जलस्त्रोत की प्रकृति का वंहा पर पौधों के फलने- फूलने से स्पष्ट अंदाज़ लग जाता है। जैसी मिट्टी होती है वैसा वंहा का पानी होता है। शमी, पलाश ,बेर के पेड़ यहां तक कि दीमक की बाम्बी, देखकर उस जगह के भूमिगत जलस्तर की पहचान सम्भव है।
नर्मदा घाटी विकास अभिकरण के पूर्व अधिकारी राधेश्याम कश्यप की चिंता नदियों के जल की घटती गुणवत्ता को लेकर थी। अपर्याप्त संरक्षण और रेत की अंधाधुंध निकासी ने नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि अब उनका पानी खेती की सिंचाई लायक नहीं बच पा रहा है।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से लम्बे समय से जुड़े कार्यकर्ता और पत्रकार राकेश दीवान ने तल्ख़ लहजे में सरकारी नीतियों को नर्मदा नदी की बर्बादी का दोषी बताया। उन्होंने सरकारी दावों को गुमराह करने वाला बताया कि बड़े बांधों के बनने से कृषि और बिजली उत्पादन में ख़ासी बढ़ोत्तरी हुई है।
स्वयंसेवी श्याम बोहरे का जोर नदी किनारे रहने वालों को संरक्षण अभियानों में अगुवा बनाने पर था। समाज सरकार को दिशा दे तो ही नदियाँ बचेंगी पर हो इसका ठीक उल्टा रहा है।
सेमिनार में संग्रहालय के संस्थापक निदेशक विजय दत्त श्रीधर, पत्रकार चंद्रकांत नायडू , जल विशेषज्ञ एवं लेखक डॉ डीआर तिवारी और राकेश दुबे ने भी अपने सुझाव रखे।
एकमत से तय हुआ कि इसी विषय पर अगला सेमिनार अगले महीने के पहले शनिवार को रखा जायेगा।
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