प्रकाश भटनागर।
क्या वो मजमा लगाने वाला याद है, जो पूरा समय कहता था कि किसी शख्स को चाकू से मारकर उसे फिर जिंदा कर देगा। एक सांप को नेवले के मुंह में डालकर उसे नयी जान दे देगा। सब जानते थे कि यह सिरे से छलावा है। न इंसान को मरना है और न ही सांप को।
फिर भी मजमेबाज की अदायगी ऐसी होती थी कि भीड़ तल्लीन होकर उसका तमाशा देखती और अंत में बेवकूफ बनकर जेब ढीली कर वहां से चली जाती थी।
आज फेसबुक पर एक पोस्ट देखी। घनघोर रूप से कांग्रेस समर्थक की। उस पर शिवराज सिंह चौहान का छायाचित्र लगा था। लिखा था, ई-टेंडर घोटाले में शिवराज की गिरफ्तारी तय है।
इधर नाना कारणों (जिनमें ईर्ष्या और घास न डाले जाने का दर्द भी शामिल है) से कई लोग यह ज्ञान पेलने में भी जुट गये हैं कि कमलनाथ के दिन लदने वाले हैं। उनका सितारा अस्त होने जा रहा है।
यह सब भी किसी मजमेबाज की कलाकारी से अधिक और कुछ नहीं है। न ई-टेंडर में शिवराज को गिरफ्तार होना है और न ही ताजा आयकर छापों के बाद कमलनाथ की सेहत पर कोई असर होना है।
माफिया की एक खास कार्यशैली होती है। किसी भी अपराध में वह सीधे हाथ नहीं डालता। इसके लिए भाड़े के लोग लिए जाते हैं। काम वो करते हैं और नाम माफिया का होता है। अपराध करने वाला पकड़ा जाए, तब भी यह साबित करना सबसे कठिन होता है कि इसके लिए माफिया सरगना ने आदेश दिया था।
बिहार के गिरोहबाज राजनेताओं में शामिल आनंद मोहन सिंह और मोहम्मद शाहबुद्दीन ने हेकड़ी में यह सावधानी नहीं बरती। सिंह ने खुद एक कलेक्टर की हत्या की और शाहबुद्दीन ने भी दो सगे भाइयों की जान लेने के काम को अपने सामने अंजाम दिया। लिहाजा दोनो जेल में सड़ रहे हैं। लेकिन बाकी सरगना ऐसा नहीं करते। वे चाहे घोषित अपराध जगत से हों या फिर हों अघोषित अपराध जगत यानी राजनीति से।
गलत काम में वे कारिंदों की मदद लेते हैं। ऐसा करते समय उनके चेहरे पर उस आदमी की तरह का भाव होता है, जो मुर्गा खाने की चाह में उसकी दुकान पर जाता है। खाने लायक जिंदा मुर्गे का चयन करता है। लेकिन उसे काटे जाते समय वह निगाहें फेर लेता है।
चेहरे पर ऐसे ही भाव रखकर किसी ई-टेंडरिंग घोटाले को अंजाम दिलवाया गया और कक्कड़ तथा शर्मा जैसे चेहरों को हर तरह का संरक्षण प्रदान किया गया। इसलिए यहां भी फंसेंगे केवल वे, जिन्होंने गड़बड़ी को किसी के कहने पर अंजाम दिया। लेकिन वह यह साबित ही नहीं कर सकेंगे कि इस गड़बड़ी के लिए उनसे वाकई कहा गया था।
अपने जीवनकाल का एक सच्चा वाकया साझा कर रहा हूं। एक अधेड़ सज्जन तत्कालीन मंत्री के ओएसडी थे। मंत्री के कहने पर उन्होंने लाखों के वारे-न्यारे किए। घोटाले सामने आये। मंत्रीजी साफ बच निकले। क्योंकि किसी भी लेन-देन के लिए उनके लिखित आदेश नहीं थे।
सज्जन की नौकरी जाती रही। जीवन के अंतिम समय तक वे एक प्राइवेट दफ्तर में बाबू का काम करते हुए किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हुए इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये।
कालांतार में आप पाएंगे कि ई-टेंडरिंग हो या फिर हों आयकर के छापे, इन दिवंगत सज्जन वाले मामले की ही तरह मलाई चाटने वाले आराम से बैठे रहेंगे और उनके लिए लाई गई मलाई के कुछ टुकड़े खाकर खुश हो जाने वाला वर्ग पिसकर रह जाएगा।
तो इन सियासी मजमों में भी न किसी इंसान को फिर जिंदा करने के लिए मारा जाना है और न ही किसी सांप के साथ ऐसा होना है। फिर भी हम मंत्रमुग्ध होकर सारा तमाशा यूं देख रहे हैं, गोया कि वाकई शिवराज गिरफ्तार हो जाएंगे या फिर सचमुच ही कमलनाथ खेत रहेंगे।
व्यवस्था के अनगिनत सुराखों, कानून की भयावह अंधी और अंधेरी गलियों तथा तंत्र को कमीनेपन के मंत्र से अपने वश में कर लेने की कला के धनी, यह सब जब तक कायम हैं, तब तक मजमेबाज पूरी तरह सुरक्षित हैं और हम ऐसे हर खेल के बाद अपनी जेब ढीली होते देख खुद को बेवकूफ समझने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।
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