हालांकि यह कोर्ट के विवेकाधिकार का विषय है लेकिन मीलार्ड क्या यह वाकई न्याय है?

वामा            Nov 14, 2022


ममता मल्हार।

रेप संदिग्ध हो सकते हैं, क्या गैंगरेप भी संदिग्ध हो सकते हैं? जबकि लड़की को मार दिया गया हो। बड़ी उम्र की महिलाओं लड़कियों से रेप संदिग्ध हो सकते हैं क्या 5 महीने से 5 साल 10 साल तक की बच्ची के रेप भी संदिग्ध हो सकते हैं? 

दरअसल सवाल कुछ और आ रहे थे मगर सवालों में भी सवाल होते हैं।

गैंगरेप के तीन आरोपी जिन्होंने 19 साल की लड़की से गैंगरेप किया, शरीर दागा, आंख में एसिड डाली सुप्रीम कोर्ट से रिहा हो गए। क्योंकि अदालत का मानना है कि सिर्फ सन्देह के आधार पर किसी को सजा नहीं दी जा सकती।

एक 3-4 साल की बच्ची के रेपिस्ट को इसलिए रिहाई मिल गई क्योंकि उसने रेप के बाद बच्ची को मारा नहीं जिंदा छोड़ दिया।

न्याय की आस में लोग निचली अदालत ऊपर की अदालतों में जाते हैं पर इस तरह के फ़ैसले तो पीड़ित के परिवार पर चौतरफा मार जैसे होते हैं।

ये समाज किस हद तक बीमार हो चुका है कल आई एक खबर से साबित होता है और ऐसी खबरें हमारी आदत में शामिल होती जा रहीं हैं।पढ़-देखो- स्क्रॉल करो, रटे-रटाये डायलॉग मारो भूल जाओ।

खबर ये थी कि एक ऐसा अपराधी जो 10 साल पहले अपनी ही 4 साल की भतीजी से दुष्कर्म के अपराध में जेल गया था, वह एक महीने पहले जेल से रिहा हुआ।

इन 10 सालों में भी कुछ नहीं बदला उसने जेल से छुटने के बाद फिर एक 9 साल की की बच्ची को शिकार बनाया।

दो महीने पहले मध्यप्रदेश के ही रीवा में जमानत पर जेल से रिहा होने के बाद नाबालिग युवती से दोबारा दुष्कर्म को अंजाम दिया गया। 

यह कोई अकेले मामले नहीं हैं जिनमें यह सब दोहराया जा रहा है।

अकेले मध्यप्रदेश की ही बात करें तो साल में ऐसी 7 घटनाएं हुई हैं, जिनमें आरोपी जमानत पर जेल से छूटकर आया और उसने फिर से उसी पीड़िता को या किसी और नाबालिग को अपनी हवस का शिकार बनाया हो।

साल 2022 में प्रदेश में महिलाओं और नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म की 4789 एफआईआर दर्ज हुई हैं, जबकि महिला अत्याचार से जुड़े 131 आदतन अपराधियों पर पुलिस ने हैबिचुअल ऑफेंडर एक्ट लगाया है।

लेकिन गंभीर बात यह है कि जांच में लापरवाही, आधे-अधूरे साक्ष्य और कोर्ट में लंबे समय तक केस लंबित रहने से अपराधी को सजा नहीं हो पाती और वह जमानत पर छूट जाते हैं।

पर दिल्ली के छावला इलाके के गैंगरेप मामले में तो सबकुछ था फिर भी....! हालांकि यह कोर्ट के विवेकाधिकार का विषय है।

मध्यप्रदेश में  बीते एक साल में महिलाओं के खिलाफ बार-बार गंभीर वारदात करने वाले 131 आरोपियों के अवैध अतिक्रमण तोड़ने की कार्रवाई की है।

महिलाओं से दुष्कर्म के मामले में देशभर में राजस्थान अव्वल है। इसके बाद मप्र है। एनसीआरबी के मुताबिक राजस्थान में 2021 में दुष्कर्म के कुल 6074 मामले दर्ज हुए थे। जबकि मप्र में 2945 मामले दर्ज हुए। जबकि पॉक्सो के मप्र में 6070 मामले दर्ज हुए थे।

दिल्ली के छावला इलाके में वर्ष 2012 में 19 साल की युवती के साथ हुए गैंगरेप और फिर उसकी निर्मम हत्या के मामले में तीन दोषियों को बरी किए जाने से हर कोई स्तब्ध है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कई सवाल भी उठ रहे हैं. हालांकि कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ स्पष्ट सबूत पेश नहीं कर सका, जिनमें डीएनए प्रोफाइल और कॉल रिकार्ड (सीडीआर) से जुड़े सबूत शामिल हैं।

बेंच ने कहा कि यह याद किया जा सकता है कि भारतीय सबूत अधिनियम की धारा 165 निचली अदालतों को सच्चाई जानने के लिए गवाहों से किसी भी स्तर पर कोई भी सवाल करने के लिए अत्यधिक शक्तियां प्रदान करती है।

हालांकि, बेंच ने कहा कि पीड़िता के परिजनों को आरोपियों को बरी किये जाने के बाद भी मुआवजा पाने का अधिकार है।

अब मानवीयता के आधार पर ही देखा जाए तो कितना मुआवजा इस परिवार की बेटी को वापस लौटा सकता है? वह बेटी जिसके साथ सामूहिक दुष्कर्म ही नहीं हूआ बल्कि उसके शरीर पर अनगिनत तरीकों से वार किए गए।

पुलिस को उसके शव पर चोट के कई गहरे निशान मिले थे। आगे जांच और ऑटोप्सी में पता चला कि उस पर कार के औजारों और कई हथियारों से हमला किया गया तथा उसके गुप्तांगों में कांच की बोतल डाली गई थी। पुलिस के अनुसार उसके साथ दुष्कर्म भी किया गया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार दिल्ली के पास छावला में युवती के अपहरण के 3 दिनों बाद उसका क्षत-विक्षत शव मिला था।

फरवरी 2012 की इस घटना के मामले में तीन दोषियों को पहले निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी।

फिर इन दोषियों ने अपनी सजा के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की थी, जहां कोर्ट ने उन्हें सड़क पर घूमने वाले दरिंदों की संज्ञा देते हुए मौत की सज़ा को बरकरार रखा था।

इस लड़की के माता-पिता की जीने की उम्मीद खत्म उनका संयुक्त रूप से कहना था कि जो दोषियों के साथ होना था वह हमारे साथ हुआ।

मां का कहना था कि आरोपी कोर्ट के बाहर उन्हें धमकाते थे मगर हमें उम्मीद थी कि बेटी को न्याय मिलेगा, लेकिन हम हार गए।

11 साल की लड़ाई के बाद न्यायपालिका पर से भरोसा खो दिया। पिता का कहना था निचली अदालत के फैसले से हमें राहत मिली थी, हाईकोर्ट से भी आश्वासन मिला था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हमें निराश किया।

बात सिर्फ इन दो केसों की नहीं है बात है बच्चियों के खिलाफ बढ़ती पाश्विक प्रवृत्ति और सोच की। ऐसी बच्चियों के माता-पिता रोज तिल-तिल मरते होंगे। लड़की तो गई न्याय और तंत्र से भी भरोसा गया।

बेशक यह कोर्ट के विशेषाधिकार का विषय है लेकिन मीलार्ड क्या यह वाकई न्याय है? तो फिर बुल्डोजर कार्यवाही क्या बुरी ?

 



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