हेमंत कुमार झा।
बावजूद इसके कि पूरी दुनिया में किसी भी तरह के आंदोलन के खिलाफ स्थापित सत्ताओं की असहनशीलता बढ़ती जा रही है।
प्रतिरोध की आवाजों का बुलंद होते जाना उम्मीद जगा रहा है।
महिला अधिकारों के लिए ईरान में उग्र होता आंदोलन हो या नागरिक अधिकारों के हनन के खिलाफ हांगकांग में लाखों लोगों का सड़क पर उतरना हो।
जनजीवन पर कारपोरेट शक्तियों के सख्त होते शिकंजे के खिलाफ यूरोपीय देशों में जनभावनाओं का उभरना हो या श्रीलंका में अर्थव्यवस्था की बदहाली पर नागरिकों की उग्र प्रतिक्रिया हो प्रायः सबमें देखा गया कि विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए सत्ता ने निर्मम तरीके अपनाए लेकिन विरोध के स्वर उग्र से उग्रतर ही होते गए।
यह नई सदी में आकार लेती सत्ता-संरचना और नागरिकों के मानवीय अधिकारों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध का भी उदाहरण है।
कोरोना पूर्व के दौर में यूरोप के अधिकतर देशों में सार्वजनिक प्रतिरोध की जो आग सुलगी थी उसे महामारी की अफरातफरी ने भले ही अव्यवस्थित कर दिया, लेकिन, जैसी कि खबरें आती रहती हैं, बेचैनियां अपनी अभिव्यक्ति के रास्ते फिर से तलाश रही हैं।
वैचारिक उहापोह से घिरी यूरोप की जनता आत्ममंथन की प्रक्रिया से गुजर रही है।
यूरोपीय यूनियन में आ रहा बिखराव इसी उहापोह का नतीजा है।
लेकिन बात जब नागरिकों के मानवीय हितों की आती है तो आधुनिक इतिहास में यूरोप पूरी दुनिया में एक उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है।
संदेह नहीं कि भीतर ही भीतर सुलगती आग की धधक जल्दी ही तीव्र होगी और यूरोप की राजनीति इसके प्रभावों से अछूती नहीं रहेगी।
भले ही आज इटली की राजनीतिक उलटबांसी ने दुनिया को हैरत में डाल दिया है, लेकिन वहां के हालिया चुनाव परिणाम बताते हैं कि कोई भी राजनीतिक शक्ति, भले ही वह तकनीकी तौर पर सत्ता में आ जाए, निर्णायक सत्ता हासिल नहीं कर पा रही।
स्पष्ट है कि इटली वैचारिक संकटों से दो-चार है।
वहां का आर्थिक संकट बढ़ता ही जा रहा है और किसी पतली रस्सी पर नट की तरह चलती वहां की वर्तमान दक्षिणपंथी सत्ता अपने स्थायित्व को लेकर कतई मुतमइन नहीं हो सकती।
उधर दिलचस्प स्थिति लैटिन अमेरिकी देश ब्राजील की है।
जहां राष्ट्रपति बोलसोनारो अपनी आसन्न चुनावी पराजय से पार पाने के लिए अपने समर्थकों से आह्वान कर रहे हैं कि वे अमेरिकी नेता ट्रंप के समर्थकों की तरह संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते सड़कों पर उतर जाएं।
बोलसोनारो की विभाजनकारी राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाले उनके कार्यकलापों ने वहां व्यापक जन असंतोष को बढ़ावा दिया है।
प्रथम चरण के राष्ट्रपति चुनावों में वाम रुझान वाले नेता लूला डा सिल्वा ने भारी बढ़त हासिल की है।
ब्राजील सहित लैटिन अमेरिका के अन्य देशों, मेक्सिको, अर्जेंटीना, कोलंबिया, पेरू आदि में राजनीतिक नीतियों के कारण आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और भुखमरी इतनी बढ़ गई है कि जनता में त्राहि-त्राहि मची है।
जन प्रतिरोध उन देशों में सुनामी की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है।
नतीजा, जनता वहां ऐसे नेताओं की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है जो जनसापेक्ष नीतियों की वकालत करते रहे हैं।
ब्राजील में लूला डा सिल्वा की चुनावी बढ़त इन्हीं उम्मीदों का राजनीतिक परिणाम है।
हालांकि, अशिक्षा और धार्मिक-जातीय खांचों में बंटी दक्षिण एशियाई जनता की आंदोलन धर्मिता प्रायोजित राजनीतिक कुहासे में कहीं दबी सी लग रही थी।
लेकिन श्रीलंका में हुए जन आंदोलन ने एक नई राह दिखाई है।
इन देशों की राजनीतिक सत्ताओं के चेहरों पर भय और परेशानी की रेखाएं साफ देखी जा सकती हैं।
चाहे वे भारत के नरेंद्र मोदी हों या पाकिस्तान के शाहबाज शरीफ, आर्थिक नीतियों की विफलताओं ने उनकी जनता में बेचैनियों का ग्राफ जितना बढ़ाया है, वह हालिया वर्षों में सबसे अधिक है।
इतिहास में ऐसे विरल उदाहरण होंगे कि किसी आंदोलन की कमान पूरी तरह महिलाओं के हाथों में हो और क्रूर दमन की परवाह किए बिना वे अपनी जान हथेली पर लेकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन कर रही हों।
ईरान ऐसे ही दौर से गुजर रहा है।
स्त्री अस्मिता के लिए ईरानी महिलाओं का आंदोलन इस तथ्य की ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है कि वहां धार्मिक तानाशाही का दौर चिर काल तक नहीं बना रह सकता।
नई सदी ने जिस सत्ता संरचना को मजबूती दी है उसका आधार मुख्यतः कारपोरेट का समर्थन, सांप्रदायिक-नस्लीय विभाजन और प्रायोजित मीडिया का अनवरत प्रशस्ति गान है।
लेकिन, इस जटिल शिकंजे को तोड़ने के लिए वंचित, शोषित और प्रताड़ित जनता की आवाज ऊंची होती जा रही है, प्रतिरोध सघन होता जा रहा है और आर्थिक विचारों के मामले में दरिद्र राजनीतिक जमातों की जड़ें हिलने लगी हैं।
आने वाले वर्षों और दशकों में हम दुनिया के अनेक देशों में व्यापक राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तनों के साक्षी बनेंगे।
जाहिर है, भारत भी इस फेहरिस्त में शामिल है जहां बेरोजगार युवाओं और वंचित जमातों की आंदोलन धर्मिता को षड्यंत्र पूर्वक कुंद करने की तमाम कोशिशें की जा रही हैं।
लेकिन, इतिहास बताता है कि भारतीय लोग जब जगते हैं तो पूरी दुनिया के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
वैचारिक स्तरों पर कुंठित कर दी गई वंचितों शोषितों की जमातें जब स्वयं की अस्मिता को पहचानने की कोशिश करेंगी तो तमाम षड्यंत्र पराजित होंगे।
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