वर्षा मिर्जा।
ऐसे दुनियावी परिदृश्य में जहां ईरान में महिलाएं को हिजाब से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ रही हैं और अमेरिका महिलाओं को गर्भपात का अधिकार देने में पीछे हट गया है।
तब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के फैसले पर स्त्री को हक देकर उसके सशक्तिकरण की दिशा में सहज ही बड़ा कदम बढ़ा दिया है।
यह और बात है कि कुछ लोगों ने जो ना स्त्री के शरीर से वाकिफ हैं और ना उसकी भावनाओं से, न्यायालय की व्याख्या को मनमौजी व्याख्या कह डाला है।
यह समझना ज़रूरी है कि भारतीय संविधान मानव अधिकारों को सर्वोपरि मानता है, बिना किसी लिंगभेद के और यह उस महान संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है जहां संतान की पहचान उसकी जन्मदात्री से होती है।
कौशल्या पुत्र, देवकीनंदन, कुंती पुत्र या कौंन्तेय की परंपरा के देश में स्त्री की देह पर स्त्री के अधिकार को रेखांकित करनेवाला महत्वपूर्ण फैसला पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट ने दिया है।
इसके तहत हर स्त्री को यह अधिकार होगा कि वह अपनी मर्जी से 24 हफ्ते के गर्भ पर फैसला ले सकती है फिर चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित।
आज जब ईरान की महिलाएं सर से हिजाब उतारने के लिए अपनी सरकार से निर्णायक लड़ाई लड़ रही हैं ,अपनी जानें कुर्बान कर रही हैं वहां भारतीय महिलाओं को अपने शरीर पर अपना अधिकार मिल गया है।
कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर किसी विवाह में रहते हुए स्त्री अपनी मर्ज़ी के खिलाफ गर्भवती हुई है तो यह कृत्य वैवाहिक दुष्कर्म की श्रेणी में भी आ सकता है।
सामाजिक स्तर पर एक स्त्री जो ना अपनी मर्ज़ी से विवाह कर सकती है और ना ही बच्चे पैदा करने को लेकर उसे कोई अधिकार हासिल है।
वहां न्यायलय ने दूरदृष्टि रखते हुए निर्णय दिया है।
जिस मामले में यह सुनवाई हुई वह एक 25 वर्षीय अविवाहित युवती की याचिका से जुड़ा था।
युवती सहमती से एक रिश्ते में थी और उसे पांच महीने का गर्भ था।
उसके साथी ने शादी से इंकार कर दिया इसलिए वह बच्चे को पैदा करने और उसकी ज़िम्मेदारी उठाने में असमर्थ थी।
यूं भी एकल और अविवाहित मां के लिए समाज कब उदार हुआ है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसे गर्भपात की इजाज़त देने से इंकार कर दिया था क्योंकि वह सहमति से बनाए सम्बन्ध की देन था।
लेकिन सर्वोच्च अदालत ने न केवल युवती के हक़ में फैसला दिया बल्कि यह भी नोट किया कि 2021 में एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी) एक्ट यानी सुरक्षित गर्भपात अधिनियम में किये गए संशोधन में अविवाहित महिला को भी शामिल करते हुए
पति की बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया था।
यह बेहतर था क्योंकि इससे विधवा और तलाकशुदा महिलाओं के लिए भी निर्णय लेना आसान हो गया था।
इस फैसले से महिलाओं की राह इसलिए भी आसान मानी जा सकती है क्योंकि संतान का आगमन केवल विवाह का परिणाम नहीं है।
ऐसे कई मामले हैं जहां रिश्ते के टूटने के बाद महिला को बच्चे को जन्म देना पड़ा और सामाजिक अस्वीकार्यता के चलते बच्चे पहचान के संकट से जूझते हुए मानसिक विकारों का शिकार हुए।
हॉलीवुड एक्टर मर्लिन मुनरो की मां को उनके साथी ने छोड़ दिया था।
मर्लिन ने अपनी मां को हमेशा दुखी और मानसिक तौर पर बीमार पाया।
वे अक्सर बेबी मर्लिन की पिटाई कर देती थीं।
मर्लिन अनाथालय में बड़ी हुईं और उनकी मां ने मानसिक चिकित्सालय में जीवन काटा ।
साठ के दशक की इस कामयाब सितारा की जीवनियां बयान करती हैं कि वह हमेशा अपने पिता का इंतज़ार करती रही और अभिनय और हकीकत के बीच अपनी पहचान से जूझती रही।
मर्लिन की कहानी चकाचौंध और शोहरत के बीच के स्याह अंधेरे की दास्तान है जिस पर आमतौर पर नज़र नहीं जाती।
हाल ही जिन फ़्रांसिसी लेखिका एनी एर्नो को साहित्य का नोबल देने की घोषणा की गई है
वे इतनी साहसी हैं की जिन अनुभव से अपनी ज़िन्दगी में गुजरी हैं, उसे ही कलमबद्ध किया। उन्हें पढ़कर सरकार और समाज को गर्भपात के प्रति नजरिया ही बदलना पड़ा।
एनी एर्नो ने लिखा कि युवावस्था में की गई भूल को समाज कभी माफ़ नहीं करता और तो और सरकारें भी समाज के साथ खड़ी हो जाती हैं।
1963 में जब फ्रांस में गर्भपात गैरकानूनी था, एक 23 साल की लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है, जो त्रासदी वह भुगतती है।
ब्योरे अपनी डायरी में लिखती जाती है और फिर बेबाकी से लोगों को पढ़ने के लिए भी देती है यह क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला साबित होता है।
यही डायरी का साहित्य ऐनी का नोबेल है, इतना प्रभावी कि किताब के छपने के दो साल के भीतर फ्रांस में गर्भपात को लेकर नया कानून बन गया।
किताब जो 1974 में लिखी गई थी उसकी नायिका गर्भपात को लेकर सामाजिक मान्यता और व्यक्तिगत अहसासों के बीच झूझ और झूल रही थी।
हमारे सुप्रीम कोर्ट ने इसके आगे भी देखा है, जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि इस कानून में वैवाहिक दुष्कर्म यानी मैरिटल रेप को भी शामिल माना जाना चाहिए।
पीठ का यह भी कहना था कि कानून के उद्देश्य को देखते हुए विवाहित और अविवाहित का यह फर्क बहुत ही कृत्रिम हो जाता है और इसे संवैधानिक रूप से कायम नहीं रखा जा सकता।
यह उस रूढ़िवादिता को भी कायम रखना होगा कि केवल विवाहित महिलाएं ही यौन संबंधों में होती हैं।
बहरहाल एक अच्छा लोकतंत्र वही है जो अपने नागरिकों के प्रताड़ित होने और चीखने से पहले ही वे अधिकार दे जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए ज़रूरी होते हैं।
इस बात को ना समझ पाने वालों को तकलीफ हो चुकी है। वे इसे मनमौजी व्याख्या करार दे रहे हैं बिना यह समझे कि मामला प्रेमपूर्वक जारी वैवाहिक रिश्तों का नहीं बल्कि एक स्त्री की मर्ज़ी के खिलाफ उसके गर्भवती होने और फिर गर्भपात से जुड़ा है।
स्त्री जिसे नौ महीने बच्चा अपने भीतर रखना है और फिर उसे पालना भी तो यह उसका फ़ैसला होना ही चाहिए यही बच्चे की बेहतरी के लिए भी होगा।
कानून 24 हफ्ते के गर्भ को अबॉर्ट कराने की अनुमति देता है।
ईरान जो कभी बेहद आधुनिक और तरक्की पसंद देश था आज कट्टरपंथियों के साए में अपनी स्त्री आबादी को दोयम दर्जे की नागरिक बना चुका है।
एक महिला महसा अमिनी को वहां की पुलिस ने हिजाब ठीक से ना पहनने पर गिरफ्तार कर लिया और फिर पुलिस हिरासत में ही उसकी मौत हो गई।
उसके बाद से हज़ारों महिलाएं सड़कों पर हैं।
हॉलीवुड से भी कई एक्टर्स अपने बालों के एक हिस्से को काटकर इस अंदोलन को अपना समर्थन दे रही हैं।
भारतीय अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने लिखा हैं कि जो आवाज़ें सदियों की चुप्पी के बाद बोलती हैं उन्हें चुप नहीं कराया जा सकता वे अब ज्वालामुखी की तरह फटेंगी।
प्रियंका ने अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में लिखा है कि पितृसत्ता को यूं चुनौती देते हुए आपके साहस को सलाम है क्योंकि इसके लिए अपनी ज़िन्दगी को दाव पर लगाना कोई आसान काम नहीं है।
उन्होंने सभी महिलाओं से कहा है कि आंदोलन का असर हो इसके लिए ज़रूरी है कि इस पर अपनी नज़र रखी जाए और अपनी अवाज़ बुलंद की जाए।
बेशक स्त्री हक़ की ध्वनियों को अब दबना नहीं चाहिए।
आवाज़ कहीं से भी उठी हो उसे गूंज उठना चाहिए, किसी सायरन की तरह ताकि शेष दुनिया भी जान ले कि अब और दबाना नामुमकिन है।
फैज अहमद फैज साहब ने तो लिखा ही है तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/ बोल की जां अब तक तेरी है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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