समीर खान, नरसिंहपुर।
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था।
वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था
और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े-छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे।
कभी, एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी, तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था।
उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूँ।
बात इतनी सी है कि-
उम्र के इस कागज पर तेरे इश्क ने अंगूठा लगा दिया, अब कौन हिसाब चुकाएगा।
वह लफ्जों को रूह से जोड़तीं और जो दिल कहता कागज पर टांक देती जेवरों की तरह, ऐसी थीं अमृता और उनके लिखे एक-एक शब्द। इतनी साफगोई से अपने दिल की बात रखने वाली एक रूहानी शख्सियत और स्त्री के प्रेम को भाषा देने का काम करने वाली अमृता पहली पंजाबी महिला लेखिका थी।
अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला शहर में हुआ।
बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढ़िवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं।
जब वह ग्यारह वर्ष की हुईं तो इनकी माँ की मृत्यु हो गयी। माँ के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ी अपनी माँ के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थी।
बालिका ने घर के बड़े बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान् का रूप होते हैं और भगवान् बच्चों की बात नहीं टालते सो अमृता भी अपनी मरती हुई माँ की खाट के पास खड़ी हुई ईश्वर से अपनी माँ की सलामती की दुआ माँगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठी थी कि अब उनकी माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर माँ की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। कुछ समय बाद पिता भी नहीं रहे।
बचपन में ही अमृता का विवाह प्रीतम से हो गया। तलाक के बाद भी उनके नाम के साथ यह प्रीतम ताउम्र जुड़ा रहा।
मशहूर शायर साहिर लुधियानवी से उनकी एकतरफा मुहब्बत के किस्से कभी छुपे नहीं रहे और उनके प्रेम की वही अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में झलकती रही।
प्यार शब्द-शब्द टपकता रहा और कागज उसकी एक-एक बूँद को सहेजते गए।
मूलरूप से उर्दू और पंजाबी भाषा में लफ्जों को अल्फाज देने वाली अमृता ने नारी के प्यार को नई ऊँचाई और जिंदगी बख्शी।
देश विभाजन 14 अगस्त 1947 के दर्द को समेटते और उसे भोगते हुए उन्होंने लिखा कि दुःखों की कहानियाँ कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियाँ उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं।
मैंने लाशें देखीं थीं, लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते काँच के बर्तनों की भाँति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थीं और मेरे माथे में भी।
इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा।
बात अमृता की हो और इमरोज का नाम न लिया जाए तो लिखना अधूरा सा रहेगा, अमृता प्रीतम आखिरी वक़्त तक इमरोज के साथ लिव इन रिलेशन में रहीं।
दुनिया में बहुत थोड़े से लोग ऐसे होते हैं, जो अपने मन की हरियाली को पहचानते हैं और उनसे भी थोड़े वे होते हैं, जो धरती की हरियाली के साथ अपने मन की हरियाली का रिश्ता पहचानते हैं।
जीवन के उत्तरार्ध में अमृता इमरोज़ नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि कभी हैरान हो जाती हूँ, इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं, एक बार मैंने हँसकर कहा था, ईमू !
अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिलता और वह मुझे, मुझसे भी आगे, अपनाकर कहने लगा-मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूँढ लेता!
सोचती हूँ - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है। इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।
अमृता प्रीतम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया वह पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हें 1969 में ’पद्मश्री’ से अलंकृत/नवाज़ा गया।
1961 तक इन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में काम किया। 1960 में अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं में महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों के अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा में रही।
इन्होंने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाएँ विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हुईं। "गंगाजल से लेकर वोदका तक यह सफ़रनामा है मेरी प्यास का’’ को लेकर उस समय काफी विवाद भी हुआ। अमृता ने जो महसूस किया उसे ज्यों का त्यों लिख दिया।
वह जब लिखती तो लगता कुछ उतर रहा हो जो जुबानों और जिस्मों की बंदिशों से परे है।
इश्क की इबादत और रिश्तों की साफगोई पर जो लिखा उससे बेहतर अब नहीं लिखा जा सकेगा वह लिखती हैं-
मर्द ने औरत के साथ अभी तक सोना ही सीखा है, जागना नहीं..! इसलिए मर्द और औरत का रिश्ता उलझन का शिकार रहता है।
उन्होंने हकीकी मुहब्बत को कुछ यूँ कहा कि
मेरा दिल शहतूत का पत्ता,
तेरा इश्क रेशम का कीड़ा,
सुबह शाम पत्ते को खाता
और नरम रेशम बुनता।।
करिश्माई रचनाओं की यह पाक रूह नई दिल्ली में 31 अक्टूबर 2005 को इस फानी दुनियां से रुख्सत हो गई और अपने पीछे छोड़ गई इश्क की किताबों का ऐसा दरिया जिससे लोग सैराब होते रहेंगे।
सतयुग मनचाही जिंदगी का नाम है, किसी आने वाले युग का नहीं।
-अमृता
31 अगस्त अमृता जी के जन्मदिन पर विशेष
सादर नमन
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