नेहरू जी की यह वर्षगांठ ऐसे समय में आई है, जब देश न तो बाल दिवस मनाने की हैसियत में है और न ही पूरी श्रद्धा से गुरु पर्व मना पा रहा है। दरअसल कुछ थैलीशाहों और नेताओं को छोड़ दें तो पूरा देश नोट बदलने के जुगाड़ में परेशान है। लोगों पर यह परेशानी काले धन के नाम पर थोपी गई है।
खुद प्रधानमंत्री ने बड़ी सहजता से कह दिया कि मुझे 50 दिन दे दो। लेकिन दिहाड़ी मजदूरी करने वाला आदमी नहीं समझ पा रहा कि उसका दिल तो 50 दिन देश पर कुर्बान कर सकता है, लेकिन उसके बाल बच्चों का पेट यह काम कैसे कर पाएगा? विज्ञान ने अभी 50 दिन तक भूख साधने की दवा तो ईजाद की नहीं है। इन हालात में पंडित नेहरू का मार्च 1948 में सेवाग्राम में दिया भाषण बहुत प्रासंगिक हो जाता है। यहां जब मौलाना आजाद, डॉ राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, आचार्य कृपलानी और जय प्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने नेहरू से पूछा कि बापू तो जा चुके हैं, उनके बाद रहनुमाई कौन करेगा? तो नेहरू ने दो वक्त की रोटी और तन ढंकने के लिए कपड़े को जूझ रहे देश में जो बातें कहीं, वो तारीखी हैं। नेहरू ने साफ कहा कि बड़ी-बड़ी बातें मत हांको, मैं प्रधानमंत्री हूं तो कुछ भी करके रोटी कपड़े का इंतजाम करूंगा। आप शाख पत्तियों में उलझे रहिए, मैं जड़ से चीजों को दुरुस्त करूंगा।
पढिय़े भाषण का अंश-
महान पुरुष अलग बैठकर सेवा कर सकते हैं। लेकिन उन्हें भी परिस्थिति के साथ अपने आपको जोड़ना पड़ता है। महात्माजी सवालों के साथ खुद को बांध देते थे। उन्होंने खादी को आजादी के साथ जोड़ा, इसलिए वह बढ़ी। सिर्फ आर्थिक दृष्टि से वह इतनी न बढ़ती। महात्माजी में वह सिफत थी। हम बड़े सवालों को छोड़कर खादी वगैरह के बारे में सोच रहे हैं। अपने लिए अलग-अलग दड़बा बना रहे हैं। महात्माजी की निगाह समूचे देश पर रहती थी। वे बुनियादी सवालों को पकड़ लेते थे। इसलिए वे नोआखाली गए, कलकत्ते गए, बिहार गए, देहली में आकर बैठ गए. प्यारेलाल जी से मैं पूरी तरह सहमत हूं। हमको काम तलाशने की जरूरत नहीं है। काम देश भर में पड़ा हुआ है। हम देखें कि बुनियादी काम क्या है, मूल काम क्या है। बापू की मौत चिल्ला चिल्लाकर कहती है कि वह काम कौन सा है। रचनात्मक काम के नाम पर हम अपने खाने में काम न करें। बापू ने दिल्ली में जो काम किया उससे सवाल की अहमियत का पता चलता है। सांप्रदायिकता के जहर का मुकाबला किए बिना हम अपनी आजादी को नहीं बचा सकते।
सवालों का हल करने का सरकार का ढंग अलग तरह का होता है। उसकी अपनी मर्यादाएं होती हैं।सिर्फ सरकार की ताकत से सवाल हल नहीं होते। मैं सरकार में हूं। दिल्ली में रहता हूं। रात दिन पहरे में रहना पड़ता है। बाहर निकलूं आगे सिपाही, पीछे सिपाही होते हैं। यह इन्सान की जिंदगी नहीं है। मैं परेशान हूं। मुझे पिंजड़े में रहना पड़ता है। मेरे लिए अहमदनगर और दूसरे कैदखानों से बड़ा कैदखाना यह है। असल कैद मेरे लिए आज है। अगर यही हाल रहा तो मैं पागल हो जाऊंगा। इसे कब तक बर्दाश्त कर सकूंगा।
खादी ग्रामोद्योग वगैरह के सिलसिले में यहां पर कुछ बुनियादी बातें उठाई गईं। इस सवाल को और सवालों से अलग रखें। कॉम्पिटिटिव एकॉनमी और एक नया सोशल ऑर्डर की बात कही गई। देखना यह है कि इनके मानी क्या हैं। मैं कॉम्पिटिटिव इकॉनमी से दूसरा मतलब समझता हूं। जो इकॉनमी आप पेश कर रहे हैं, वह अपने बल पर ठहर सके। अगर आज नहीं तो दस साल के बाद, अपनी टांगों पर खड़ा होने का दम उसमें होगा या नहीं। सरकार मदद करे, आप उसे शुरू करें।
लेकिन बुनियादी चीज यह है कि क्या उसमें अपनी टांगों पर खड़ा होने का दम है! अन्न की कमी है। अगर अन्न की कमी हो हम पूरा न कर सके तो कोई सरकार लोगों को भूखे थोड़े ही मरने देगी! जहां तक उसका बस चलेगा, वह बाहर से अन्न लाएगी। कपड़े की कमी है। एक वैक्यूम तैयार हो गया है। अगर हम उसे खादी से न भर सकें तो कोई भी सरकार, मिल के कपड़े की बात तो अलग, विदेशी कपड़ा लाए बिना नहीं रहेगी। वह लोगों को नंगे नहीं रहने दे सकती। अगर वह कपड़े की कमी को दूर करने की कोशिश नहीं करेगी, तो नतीजा खतरनाक होगा। अगर अपना कपड़ा हम बना सकते हैं तो गवर्नमेंट मदद भले ही करे। मिल हल्के-हल्के बंद करें और बाहर का कपड़ा बंद कर दें तो क्या वैक्यूम अपने आप भर जायेगा। अगर आज विदेशी कपड़ा या मिलों का कपड़ा वैक्यूम को भर देने लायक होता तो वैक्यूम ही न रहता। मगर वैक्यूम है, इसका मतलब यह है कि हमारे पास हमारी जरूरत के लायक कपड़ा नहीं है। यह बात देश के लिए खतरे की है। विदेशी कपड़ा और मिलों का कपड़ा आने के बाद भी कपड़े की जो कमी रह जाती है, उसे भी खादी पूरा नहीं कर सकती। ग्रामोद्योगों की वस्तु गवर्नमेंट की मदद से कुछ दिनों के बाद अपनी टांगों पर खड़ी नहीं रह सकती तो वह नहीं ठहरेगी। बात कुछ पेचीदा है। मैं नहीं जानता मैं उसे कहां तक साफ कर सका हूं। मेरा मतलब यह है कि कॉम्पिटिटिव इकॉनमी निकाल देने से सवाल हल नहीं होता।
दूसरी बात युद्ध के बारे में है, यों तो हम युद्ध किसी से नहीं करना चाहते। लेकिन देश रक्षा का पूरा-पूरा इंतजाम हमें करना होगा। आप कहते हैं कि उद्योगों की योजना देश-रक्षा की दृष्टि से न की जाय। मैं अर्ज कर दूं कि ऐसा कोई उद्योग नहीं जिसका कि देश-रक्षण के साथ संबंध न हो।कपड़े से भी देश रक्षण का संबंध आता है। देश-रक्षण की दृष्टि से हमें इंडस्ट्यिलाइजेशन एक हद तक करना पड़ेगा।
कॉटेज इंडस्टीज से इसका मुकाबला नहीं। होम इंडस्टीज से अलग औद्योगीकरण का एक ढांचा हमें बनाना है। औद्योगीकरण से एक वायुमंडल हमने देश को दे दिया है। उसका मजदूरी की दर पर और तनख्वाहों पर असर होता है। लेकिन मुझे शक नहीं कि कितना ही औद्योगीकरण क्यों न हो, तो भी पचासा या सौ बरस तक ग्रामोद्योगों को बहुत ज्यादा बढ़ाने की गुंजाइश होगी। सवाल यह है कि किन-किन बातों में ग्रामोद्योग चल सकेगा और किन बातों में नहीं। आज इसका ठीक-ठीक जवाब मेरे पास नहीं है। देश रक्षण का सवाल एक ऐसा सवाल है कि जिससे सारी औद्योगिक फिजा ही बदल जाती है। बड़े बड़े उद्योग अगर राज्य के काबू में हों तो वे नॉन कॉम्पटिटिव हो जाते हैं। घरेलू दस्तकारियां किन क्षेत्रों में और कहां तक बढ़ें, यह अध्ययन का सवाल है। सरकार का फर्ज है कि जिन बातों में घरेलू दस्तकारियां चल सकती हैं, वहां उनको पूरी तरह बढ़ाएं।
दुनिया की बुनियादी समस्या यह है कि सारी दुनिया राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से केंद्रीकरण की तरफ बढ़ती जा रही है। हम भी केंद्रीय सरकार को अधिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाना चाहते हैं। सिफत इस बात में है कि हम केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के फायदे जोड़ने की तरकीब निकालें। हम देश-रक्षण के सवाल को छोड़ देंगे तो अपनी राजनैतिक आजादी भी नहीं रख पाएंगे। तो फिर आर्थिक स्वतंत्रता कैसे रख सकेंगे। यह सवाल सीधा-साधा नहीं है। काफी पेचीदा है। बिना काते अगर खादी नहीं चलती तो यह सोचना होगा कि वह चलेगी या नहीं। उसमें इकनॉमिक आउट-टर्न का सवाल है। खुद चरखा चलाने की बात दूसरे तरह की है। चरखा तो कुछ चुने हुए लोग चलाएंगे बाबू राजेंद्र प्रसाद चलावें, मैं चलाऊं, इस तरह कई आदमी चला लें। ये चुने हुए आदमी एक लाख हों या दस लाख हों। वे अपने कपड़े का सवाल हल कर लें, लेकिन आर्थिक दृष्टि से कपड़े की पैदावार का सवाल हल नहीं कर सकते। यह सवाल एक दूसरे क्षेत्र से संबंध रखता है। इसलिए मैंने अर्ज किया कि इन सवालों को फिर से नई फिजा की रोशनी में सोचना है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडिया टुडे में कार्यरत हैं।
Comments