याद-ए-अनुरागी: आओ हम नये आदमी की बारहखड़ी रचें

वीथिका            Apr 19, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी। मैं अनेकों रंग-रूपों में उन्हें देखती हूँ,पर जितना देखती हूँ वे उससे कहीं हजार गुना अधिक रंग-रूपों में परिलक्षित होते नज़र आते हैं । कभी लगता है वे सिर्फ और सिर्फ मेरे पापा हैं पर नहीं दूसरे ही पल लगता है वे तो सबके हैं और मुझसे कहीं अधिक दूसरों के हैं ,बल्कि दूसरा कहना गलत होगा क्योंकि उनके लिये तो "समुची दुनिया एक परिवार है।"वे इसी सिद्दांत को जीते रहे। यही वज़ह रही कि वे हर वर्ग के लिए चिन्तित दिखाई दिये।कहीं वे कहते है -- मानव फुटपाथों पर सोते भगवान भवन में झूलों पर मानव सुत पत्तल चाट रहे, नैवेध वहाँ थाली भर-भर। पत्थर नहलाये जाते हैं, दुर्भाग्य दूध-घी से जल से, भूखी भिखमंगिन का बच्चा दो बूंद न पी पाया कल से । उनका करुणा से भरा ह्रदय इस पांखड और आडबंर के विरोध में गुस्से से भर कहता है -- बच्चों के मुख से छीन-छीन जिनने पंडों के पेट भरे , उनसे यदि खुश होगा ईश्वर, ईश्वर वह नहीं, पिशाच अरे। इन पंडों का पाखंड ही यदि ईश्वर की ठेकेदारी है यदि यही विश्व की सत्ता है यह डायन है,हत्यारी है। तुम पाखंडों का पेट भरो मैं तुमको मुक्ती दिला दूंगा, जो ऐसा कहता है,सुनलो मैं इसमें आग लगा दूंगा । दूसरे ही पल वह प्यारा गीतकार शान्ति के पाँखी उडाता नज़र आता है शान्ति के पाँखी, चँदनिया-पँख वाले। शान्ति के पाँखी , गगन-भर के उजाले। शान्ति के पाँखी, उड़ो-विचारो गगन में उड़ रहा मकरन्द हो मानो,पवन में। जगत-भर को शान्ति का सन्देश दो नये जीवन को सुखद परिवेश दो । और फिर अनुरागी आज की सबसे बडी़ आवश्यकता "युध्द-हीन-संसार की रचना करता है। उनकी नज़र समूचे विश्व को देखती है और उसकी जरूरतों को महसूसती है ।वे कहते हैं- "चमड़ी के रंगों और पूजा के ढंगों से इंसान बंट नहीं सकता ।" दरअसल अनुरागी की कल्पनाओं का उपवन बुर्जुआ वर्ग का वैभवशाली प्रमादवन नहीं है,वरन् विश्व का वह विशाल प्रांगण है,जिसमें श्रमिक का रक्त और स्वेद गंगा जल बनकर रेगिस्तानों को हरा-भरा करता रहा है। उन्होंने मानवता-आपसी भाईचारेकी कलमें रोपी हैं और इन्हें वेसे ही सहेजा है जैसे किसान अपनी फसलों को सहेजता है ।वे लिखते हैं- जब तक हम एक हाथ से आम की फलवती डगान पकड़े, दूसरे से आम का बगीचा नहीं बोते, तब तक न तो हमारी पूजाएँ ही स्वीकृत होती हैं,और ना नमाजें कुबूल, हमारी सभी प्रार्थनाएँ अर्थहीन होती हैं। वे कहते हैं -- ये मक़तब सभी अनाथ मस्जिदें बेवा हैं ये गिरजे सिर्फ नुमाइश मंदिर नाटक हैं--------- शायद वह हम सभी को मानवता के उस विशाल आँगन का रहवासी बनाना चाहते हैं जहाँ महावीर ,बुध्द,ईसा,गाँधी, लुमुम्बा और अहिंसक ,सिर्फ और सिर्फ प्यार करने वाले लोग रहा करते हैं।ज़माने के वहशीपन और साम्राज्यवादी युध्दलिप्सा के कारण हो रहे खून-खराबे को देखकर वह बैचैन हो उठता है-नये जमाने के नये आदमी की नई भाषा का नया रूप बनाने को। उनकी संत वाणी बोल उठती है - आओ हम नये आदमी की बारहखड़ी रचें और उसके बच्चों के लिए प्रवेशिका की पुस्तकें लिखें, तूलिकाधर हाथ,तुम चित्रित करो सभी देशों के अदब के,प्यार के,सम्मान के,ममता-मिलन के तरीकों से समन्वित कुछ चित्र, जिनमें आदमी की भीतरी बारादरी के द्वार थोड़े तो खुलें........ उन्हें हर दिन नया पाया है मेरी समझ से परे है ,बच्चों के मानिंद एक इंसान समूचे विश्व की चिन्ता कैसे कर लेता है ।यह विराम नहीं है यादों की यात्रा अभी शेष है .......


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