ऋचा अनुरागी।
यह पूरा सप्ताह पापा के चाहने वालों से भरा रहा। होली थी और हर मिलने वाला व्यक्ति मुझे होली की मुबारक के साथ उन्हें स्मरण करता। कई बार तो लगा वह मुझसे तो मात्र औपचारिकता निभा रहा है दरअसल वो तो अपने प्रिय सखा ,आदरणीय, कवि रूपी संत या अपने गुरू को ही होली का नमन् स्मरण रुप में कर रहा हो । उनके मिलने वालों में शुमार "शैलेन्द्र कुमार शैली" लिखते हैं—:
इस मनुष्य विरोधी,पूंजीवादी-बुर्जुआ व्यवस्था को बदलकर एक बेहतर दुनिया बनाने के महान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक मानवीय प्रवृत्ति जो बुनियादी रूप से जरूरी है, वह है अनुराग। इस अनुराग में रचे -बसे कवि राजेन्द्र अनुरागी हमारे बीच सशरीर नहीं ,लेकिन उनका अनूठा अनुराग हमें कभी भी उन्हें विस्मृत नहीं होने देगा।
अनुरागी जी ने सब से प्यार किया इतना प्यार कि उन लोगों ,प्रवृत्तियों से भी परहेज नहीं किया जो इस दुनिया को अनुराग बनाने के पथ पर बाधक हैं। इससे कभी-कभी इस दुनिया को बेहतर बनाने हेतु विभिन्न मोर्चो पर सक्रिय लोगों को अनुरागी जी को लेकर तात्कालिक भ्रम भी हुआ।
अनुरागी जी सभी रूड़ियों जड़ताओं को भेदकर नये-नये जीवन सत्य अर्जित करना चाहते थे। लेकिन एक सुनिश्चित वैज्ञानिक समझ के अभाव में वे तात्कालिक रूप से भटकाव के शिकार भी हुये।अन्तत: उन्होंने खुद को संभाला।
लेकिन किसी भी स्थिति में उनकी अनुरागी प्रकृति और प्रवृत्ति पर कोई आंच नहीं आई। अपने अंतिम समय में वे नवीनतम वैज्ञानिक समझ अर्जित करने की प्रक्रिया में थे। अवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के प्रति संदेह उनमें गहरा रहा था। ऐसे में हम सबको उनकी बेहद जरूरत थी। बहरहाल उनका अनुराग हमारे साथ है।
अनुरागियों से पूछो
ये राजे इश्क क्या है
खुद का वजूद खोकर
खुद आप से मिला हूँ
किसी का सीधा सा कहना होता आज दादा अनुरागी बहुत याद आ रहे थे तो बेटी तुम्हें फोन लगा लिया तो कोई होली के ऊपरी रंग में तो रंगा दिखता था पर रंगा हुआ। अनुरागी रंग में मेरे पास आया था ।होली से रंगपंचमी भी निकल गई या यूं कहूं इतने साल गुजर गये पर एक प्यारा शख़्स और सबसे प्यार करने वाला , बेहद प्यारा इंसान अभी भी सबके दिलों में मीठी नदी बन कभी आँखों से बहता है तो कभी जुबां से झरने के मानिंद झरता है तो कभी होली के रंगों में फाग गाता झूमता नाचता नज़र आता है ।
आज भी इतने लोग उन्हें दिल से याद करते हैं ,यकीनन् तुम में कोई बात तो होगी ,ये दुनिया यूँ ही पागल तो नहीं है ।
उनका एक गीत याद आ रहा है ,
भजन नहीं हो पाया
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जिस दिन कोई रतन,धूल से उठा,
नहीं चूमा-दुलराया।
जिस दिन कोई वक्ष,स्वयं के
मधुर वक्ष से नहीं लगया।
उस दिन भले बाग में पहुँचा
लेकिन चयन नहीं हो पाया।
पथ चलते जिस दिन दे पाया
नहीं किसी को बाह सहारा।
थामी नहीं सूर की लाठी
पथ भूले को नहीं पुकारा।
उस दिन मंदिर में तो पहुँचा
लकिन भजन नहीं हो पाया ।
जिस दिन मीत नहीं गा पाया
मैं अपने मनचाहे गीत।
जिस दिन नहीं श्रवण ने भेंटी
बंसी की मनभावन तानें।
उस दिन भले सेज पर लेटा
लेकिन शयन नहीं हो पाया।
"राजेन्द्र अनुरागी"
शायद इसीलिये
कहीं "अनुरागी"मिले तो भुजाओं में भर लीजिये
उसे तो वैसे दिल में लिए रहते हैं लोग ।
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