मुझे लगता यादों के भी नाम होना चाहिए था तब शायद यह काम कुछ आसान हो जाता ।यादों की अपनी भाषा भी होती तो और अच्छा हो जाता। बहरहाल यादें तो यादें है -पापा की देह के जाने के बाद ,मैने सिर्फ देह के जाने की बात की है क्यों कि वे कहीं गये ही नहीं हममें ,हमारे पास ही हैं। वही बात दोहरा रही हूँ देह के जाने के बाद एक नज्म लिखी थी ,वह कितनी नज्म है या नहीं है ,मालूम नहीं ,पर वह याद हो जाने की ही बात थी --- घाटियों को पार करके मुझ तक पहुँच जाती है,तुम्हारी पुकार काश कि आवाज के तुरंग पर सवार हो कर तुम भी आ पाते तुम नहीं आते तुम्हारी याद आती है याद के पंख होते हैं अनंत याद को थकान नहीं होती पाथेय लेकर नहीं चलना पड़ता याद को काश मैं हाड़-मांस की बजाय याद होती तुम्हारे पास हर कहीं, हर वक्त आ-जा तो पाती।
सच ,याद हो जाना चाहती हूँ ,बस याद !खुश्बू बिखेरती हुई याद ,नदी के मानिन्द कल-कल कर खिलखिलाती याद , किसी को गुदगुदाती याद ,किसी के पैरों में घुंघरु की तरह बजती याद बस याद । देखिये बीच में दख़ल देने आ ही गई ये याद -पापा को नरगिस दत्त की अदाकारी बहुत पसंद थी। एक बार दिल्ली के कवि सम्मेलन में पापा अतिथि थे। मंच के बीचों-बीच उन्हें बैठाया गया। तभी मंच से उदघोषणा हुई कि कुछ ही देर में नरगिस जी कार्यक्रम में शिरकत करने आने वाली हैं। पापा बताते थे -यार मेरा मन हुआ जोर से ताली बजाऊँ या नाचने लगूं ,आज समझ में आया गोया ये लड़के खुशी के इजहार में मुंह में अंगूली डाल सीटी क्यों बजाने लगते हैं। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि जिसके दीदार करना जवानी से दिल में था उन्हें मैं इतनी असानी से देख पाऊँगा। थोड़ी ही देर में सफेद साड़ी में " नरगिस " के फूल सी सौम्य मुस्कान लिये वे मंच पर थीं। पर यह क्या ऊपर वाला इतना मेहरबान कि नरगिस जी ठीक मेरे बगल में ही विराजित थीं।मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। सामाजिक सरोकारो ,देश भाक्ति और वीर रस के इस कवि ने उस दिन मधुर श्रंगार के गीत सुनाए और उनका यह रुप देख आयोजक मंत्र-मुग्ध हो उठे। नरगिस जी ने दिल खोल कर तारीफ की तो उन्हें अपना ईनाम मिल गया।चाय का जब दौर चला तब पापा ने नरगिस जी को बताया वे कि जब अठारह साल के रहे होंगे तब उन्होंने बरसात फिल्म देखीए ,उसके बाद नरगिस जी की फिल्म देखना कम ही भूलते थे। मदर इंडिया तो अनेकों बार देखी । कालेज से उनके दीदार की अपनी ख्वाहिश का इजहार किया जिस पर खूब ठाहाके लगे । [caption id="attachment_22042" align="aligncenter" width="444"] आनंद मिश्र गोपाल सिंह नेपाली और राजेंद्र अनुरागी[/caption] यों उन्हें फिल्मों में गीत लिखने के कई मौके आये ,गोपाल सिह नेपाली उनके अच्छे मित्र थे जिन्होंने फिल्मों में लगभग चार सौ से अधिक गीत लिखें होगें। जी हाँ मैं -दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे ......या घूंघट घूंघट नैना नाचे,पनघट पनघट छैया रे , या रहूँ कैसे मैं तुमको निहारे बिना ,मेरा मन ही ना माने तुम्हारे बिना ... जैसे शानदार और लोकप्रिय गीतों की रचना की उन्हीं गीतकार की ही बात कर रही हूँ। अनेकों बार पापा को बुलाया ,पर पापा यही कहते रहे -यार मैं अपने जन्में गीतों को गोद दे सकता हूँ बेच नहीं सकता। कल्याण जी आनंद जी ताज सा. ने भी कहा पर बात वहीं अड़ी रही। गोपाल दास नीरज ने भी कहा -यार अनुरागी तू वापस युवा अनुरागी वाले गीत लिख हमारी फिल्मी दुनिया में तुम धूम मचा दोगे पर वे अपनी मस्ती अपने स्वाभिमान में ही मस्त थे।या यूं कहूँ कि अपनी फक़ीरी में खुश थे,सो किसी की नहीं सुनी। दरअसल फक़ीरी को महलों की चकाचौंध नही सुहाती ,वरना वो पिता की सेठ गादी, महलों की दुनिया छोड़ कर नहीं आते। वे तो "कबीरी "परंपरा के संत कवि थे -----शायद फ़िराक साहब ने अनुरागी जी के लिये ही कहा था ---- गुज़रे हैं इश्क़ नाम के ऐ दोस्त इक बुजुर्ग हम लोग भी फक़ीर उसी सिलसिले के हैं ।
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