ऋचा अनुरागी।
बच्चे स्विमिंग पूलों के घेरे में बंधे हुये जल में तैरना सीखते हैं,पर पापा को तो बिफरी हुई नर्मदा की कल-कल करती मुक्त धाराओं ने तैराकी का पाठ पढा़या । नर्मदा की कल-कल ध्वनी एवं उनके पितामाह सेठ नाथूराम जी के संगीत ने उनका परिचय संगीत की स्वर लहरियों से करवाया। वे अपने बचपन की यादों को अक्सर हम सब से साझा करते ,अपने माइक से पहले परिचय के बारे में बतलाते,भारतीय कांग्रेस के ऐतिहासिक त्रिपुरी अधिवेशन में पिताजी के साथ गया था,मैं सुभाष चन्द्र बोस के दर्शन करना चाहता था ,मेरी जिद्द ने पिताजी को साथ ले चलने के लिये राजी कर लिया था।
सुभाष बाबू अस्वस्थ थे। बावन हाथियों के रथ पर उनकी तस्वीर रख कर शोभा -यात्रा निकाली गई थी। बालक रज्जू उस भीड़ में खो गया और कांग्रेस के स्वयंसेवक मुझे घोषणा-मंच पर ले गये,मैने उनसे कहा अपने पिताजी को मैं स्वयं सूचित करूगा कि मैं मंच पर हूँ और फिर मैने माइक थाम अपने होने की सूचना प्रसारित की थी ,कि वे यहाँ आकर मुझे ले जाएं। इस तरह माइक से यह मेरा पहला परिचय था। कक्षा सातवीं का विधार्थी बच्चों की टोली का नेतृत्व करता आजादी के क्रांति कारी ताराने गाता हुआ घर-घर में अलख जगाता,अपनी तुकबन्दियां जोड़ता और अपनी पंक्तियों को खुद ज्यादा ही जोश में गाता।
यहाँ से एक कवि का जन्म हुआ,उनके बड़े़ भाई बताते थे कि शाम को छत पर घन्टों सूर्यास्त के समय रज्जू आकाश को निहारता और उन्हीं में खोया रहता था। अपने घुघंराले बालों में अंगुलियों को घुमाता हुआ गुनगुनाने लगता वह इतना गुम हो जाता कि कई बार अकेला ही रह जाता तब उसे खोज कर बुलाया जाता। घर का महौल जितना सामंती था उससे कहीं अधिक कला-संस्कृति से भी धनाड्य था। पिता सेठ मोतीलाल जी स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय थे अत:बाल अनुरागी भी आजादी के संग्राम का नन्हा सिपाही बन गया। दिन में स्कूल के बाद दादाजी रात के काम समझाते।
होशंगाबाद के पास जंगलों में छिपे स्वतंत्रता सेनानियों के पास अखबार या जरुरी संदेश राशन और दवाईयां ले जाने का काम अपनी छोटी सायकल पर ये बाखूबी करते। इनके पेट और पीठ पर जरूरी संदेश बांध कर ऊपर से कुर्ता पहना कर सायकल पर बैठा दिया जाता और फिर निकल पड़ती इनकी सावरी गंतव्य के लिये। गर इस बीच अंग्रेजी पुलिस घर पर आ इनके बारे में पूछती तो छत से सोते हुये पापा से बड़े भाई नरेन्द्र को दिखा दिया जाता और पुलिस राजेन्द्र समझ चली जाती।
एक बार इनकी सेना ने स्कूल पर तिरंगा फहराने की कोशिश की तो अंग्रेज थानेदार आ धमका तिरंगा तो यह फहरा चूके थे उसने उतारने का इन्हें हुक्म दिया तब इन्होंने अपनी गुलेल से उसके कान का पर्दा ही उडा़ दिया ,नर्मदा की गोद में जा कूदें पर पकडा गये। बहुत छोटे थे सजा कम हुई कुछ एक बेंत भी पडी ,जेल परिसर में काँच के अंटियों और गिल्ली-डंडे की व्यवस्था भी हुई इनके खेलने के लिये, फिर इन्हें छोड़ दिया गया। बाहर आये तो अन्दर बंद आजादी के दीवानों की खबरें भी साथ लाये।
पापा बताते थे कि हमारे दादाजी भी कविताएं लिखा करते थे,उन्हीं के साथ वे कवि सम्मेलनों और मुशायरों में चले जाते थे।दादाजी की मित्रता सुभद्रा कुमारी जी चौहान ,माखनलाल जी चतुर्वेदी,भावनी प्रसाद जी तिवारी ,स्वामी कृष्णानन्द जी सोख्ता और भी उस समय के अनेक बड़े—बड़े साहित्यकारों से थी तो उन्हें इन सबका स्नेह सहज ही प्राप्त होता रहा।
एक बार सुभद्रा कुमारी जी चौहान ने उनसे पूछा तुम भी कुछ लिखते हो ,आओ मेरी गोद में , सुनाओ माइक सुभद्रा जी के हाथ में और गोद से पापा ने अपनी रचना सुनाई सब नन्हीं कलम-जुबां की तारीफ कर रहें थे,यह सिलसिला फिर कभी थमा नहीं अलबत्ता पापा को बाद में ज्ञात हुआ कि उसके बाद उनके पिता ने कभी नही लिखा। पिता का यह लाड़ला अब तो सबकी आँखों का तारा था ।
मैं हर साप्ताह सोचती हूँ मैंने पापा के बारे में सब बता दिया पर दुसरे ही पल लगता है अभी तो सब कुछ शेष रह गया ।
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