ध्रुव शुक्ल।
आम चुनावों के बीच विश्व विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर की घनीभूत याद आ रही है और याद आ रहा है उनका रचा नाटक --- 'चरणदास चोर', जिसने सच की खातिर अपनी जान दे दी। अपनी चोरी छिपाकर राज्य पाने की लालसा से भरे लोगों को सच बोलते हुए चरणदास चोर की कहानी ज़रूर सुनना चाहिए---
चरणदास एक प्रसिद्ध चोर है और आसानी से पकड़ में नहीं आता है। एक दिन राज्य की पुलिस से बचने के लिए वह किसी सतनामी साधु के आश्रम में छिप गया। साधु ने उसे बचाने के बदले उससे कुछ वचन मांगे। चोर बहुत चतुर था उसने साधु को ही भ्रमित करने के लिए पहला वचन दिया कि किसी देश की प्रजा भी पीछे पड़ जाये तब भी उस देश का राजा नहीं बनूंगा। दूसरा वचन दिया कि किसी रानी से शादी नहीं करूंगा। तीसरा वचन दिया कि सोने की थाली में भोजन नहीं करूंगा। चौथा वचन दिया कि हाथी पर बैठकर जुलूस में नहीं जाऊंगा।
साधु समझ गये कि यह चोर है और इन चारों वचनों को निभाने का अवसर ही इसके जीवन में नहीं आयेगा, यह झूठ बोल रहा है। उस चोर के छल को पहचानकर साधु ने एक पांचवां वचन लेकर उससे प्रण करवाया लिया कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा। चोर बोला कि --- मैं तो चोर हूं और मेरा धंधा ही चोरी है फिर मैं सच कैसे बोलूंगा? साधु बोले --- अगर सच बोलने का वचन नहीं दोगे तो मैं तुम्हें पुलिस से नहीं बचाऊंगा। मरता क्या न करता, अपने प्राण बचाने के लिए चरणदास चोर साधु को झूठ न बोलने का वचन दे बैठा।
चरणदास चोर सच बोलने के लिए प्रसिद्ध हो गया। जब भी कोई चोरी करता, सबको बता देता। एक बार राज्य के खजाने से सोने की दस मोहरें चोरी हो गईं। पर चरणदास ने तो पांच ही चुरायी थीं। उसने राजसभा में आकर यह सच स्वीकार किया। पता चला कि पांच मुहरें तो खुद खजांची ने चुराकर दबा ली थीं और दस मुहरों की चोरी का आरोप चरणदास चोर पर मढ़ दिया था।
इस सत्यवादी चोर का मान बढ़ाने के लिए रानी ने हुक्म दिया कि चरणदास को हाथी पर बिठाकर नगर में जुलूस निकाला जाये। पर चोर तो साधु को झूठा वचन देकर भी फंस गया। उसने हाथी पर बैठने से इंकार कर दिया। रानी ने उसका मान रखने के लिए सोने की थाली में भोजन परोसा पर उसने अपना प्रण निभाते हुए भोजन करने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया। रानी इस वचन के पक्के सत्यवादी चोर के प्रेम में पड़ गयी। रानी ने चोर से विवाह करके उसे राजा बनाने का प्रस्ताव कर दिया पर चरणदास तो राजा न बनने और रानी से ब्याह न करने का प्रण किये था।
तब रानी ने हार-थककर चरणदास चोर से यह वचन मांगा कि तुम यह बात किसी से न कहना कि मैंने तुमसे विवाह ( गठबंधन ) करने का प्रस्ताव किया है। पर चोर ने रानी को अपने उस वचन की याद दिलायी जो उसने साधु को दिया था कि झूठ नहीं बोलूंगा। सच तो सबको बताना ही पड़ेगा। इस पर रानी ने कुपित होकर चरणदास चोर को मौत की सज़ा सुना दी। हबीब तनवीर के रचे इस नाटक के अंत में जनवाणी में गुंथा यह कोरस गूंजता है ----
इक चोर ने रंग जमाया जी सच बोल के।
संसार में नाम कमाया जी सच बोल के।
यह नाटक एक प्रश्न उठाता है कि जो लोग अपनी चोरी छिपाकर स्वयंभू राजा बनना चाहते हैं। जनता को पीछे छोड़ राजरानी से ब्याह करके सोने की थाली में भोजन करने का सपना देखते हैं। जो झूठ बोलकर और फिर हाथी पर चढ़कर अपनी विजय का जुलूस निकालने की लालसा से भरे हैं उनसे सच बोलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
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