संजय स्वतंत्र।
इन दिनों अफसानानिगार सआदत हसन मंटो को फिर से पढ़ रहा हूं। कभी सुबह तो कभी रात या फिर मेट्रो में सफर के दौरान पढ़ता हूं, तो लगता है कि मंटो मरे कहां है? वे तो अपनी कहानियों में सदा जिंदा हैं। कुछ इस तरह- ‘और यह भी संभव है कि सआदत हसन मर जाएं, लेकिन मंटो हमेशा के लिए जिंदा रह जाएं।’ ....... उन्होंने अपने लिए यह कोई गलत नहीं कहा था। आज किसी को सआदत हसन याद नहीं, मगर मंटो अमर हो गए अपनी कहानियों से। उन किरदारों से जो भुलाए नहीं भूले। टोबा टेक सिंह को कौन भूल पाया भला?
मंटो की कहानियों को पढ़ते हुए आप छह-सात दशक पीछे चले जाते हैं। उस समय के समाज की तस्वीर देखते हैं जो आपको विचलित कर देती है। वे ऐसा नंगा सच उधेड़ते हैं जो आज भी प्रासंगिक है। एक भोगा हुआ यथार्थ है। दौर बदला मगर समाज का और भी चारित्रिक पतन हो गया। इनसान पहले से कहीं अधिक लालची और वहशी हो गया। यही नहीं, वह अपनी स्वार्थ लिप्सा में पहले से कहीं ज्यादा आत्मकेंद्रित है। मंटो जब मन की परतों को खोलते हैं तो किरदारों के चरित्र बेनकाब करते जाते हैं।
मंटो अपने दौर के बागी लेखक हैं। उनकी कहानियों में कल्पना एक सामाजिक सच्चाई को सामने रखती है। इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। वे अकेले भी पड़े। यह हर दौर में उस लेखक के साथ होता है जो सच्चाई की डगर पर इंसानियत और प्रेम का दीप जलाए अकेले चलता है। ऐसे ही लेखक थे मंटो। बेहद ही विनम्र और सहज-सरल इनसान। यहां तक कि वे कई बार खुद को अफसानानिगार मानने से भी संकोच करते थे। कई दफा उन्हें हैरत होती कि क्या वे सचमुच इतने बड़े कहानीकार हैं।
......... तो इन दिनों मैं मंटो में खुद को जी रहा था कि मेधावी फिल्म निर्देशक नंदिता दास अपनी नई फिल्म ‘मंटो’ को लेकर आ गर्इं। सोच रहा हूं कि इसे देखने से पहले उस मंटो को और पढ़ लूं, जिसने अपने घर के किसी कोने में बैठ कर एक से बढ़ कर एक अफसाने लिखे। जिनकी कहानियों को पढ़ते हुए आप एक गली में घुसते हैं और फिर न जाने कितनी गलियों से होते हुए नामालूम किसके घर तक चले जाते हैं। और वहां हर किरदार अपना अफसाना सुनाने को बेकरार लगता है।
कई किताबें लिख चुके मंटो जब ये कहते हैं कि भाई मैं तो कम पढ़ा- लिखा आदमी हूं, तो हैरत होती है। एक ऐसा लेखक जो खुद को लेकर कोई मुगालता नहीं पालता। नहीं तो आज के दौर के लेखक तो एक-दो किताबें छपने के बाद सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं। और एक ये मंटो महाशय हैं जो ये कहते हैं- जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सआदत हसन होता हूं, जिसे न उर्दू आती है न फारसी, न अंगरेजी और न फ्रांसीसी। नंदिता की फिल्म की चर्चा के बाद कुछ दिनों से मेट्रो में सफर करते हुए मंटो की कहानियां पढ़ रहा हूं। कई अफसाने पढ़ चुका। मगर अब भी कई बाकी हैं।
......आज जब घर से दफ्तर के लिए निकला तो अपने पास कहानियों की उनकी किताब भी रख ली। मेट्रो की लंबी यात्रा में समय बर्बाद करने के बजाय या तो मैं कोई कहानी ढूंढता हूं या फिर कहानी पढ़ता हूं। कभी-कभी कविताएं भी लिख लेता हूं। फिलहाल आज मेरा इरादा मंटो की कुछ कहानियां पढ़ने का है। तो हमेशा की तरह मैं आखिरी डिब्बे में सुकून से बैठा हूं।
मेट्रो अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी है। मैंने खुद को दुनिया से काट लिया है। मंटो की एक कहानी पढ़ रहा हूं। यह ज्यादा लंबी नहीं। कहानी है एक बच्चे की। जिसका नाम मसऊद है। वह स्कूल जाते समय बे-खाल के ताजा जिबह किए गए बकरे के गोश्त से सफेद धुआं उठते देखता है। यह दृश्य बच्चे के मन में इस कदर बैठ जाता है कि वह हर समय उसके बारे में ही सोचता रहता है। मंटो ने जिस तरीके से बाल-मन का चित्रण किया है, उससे लगता है कि वे अफसानानिगार ही नहीं, एक मनोविज्ञानी भी हैं।
कहानी ‘धुआं’ में जहां स्त्री-पुरुष संबंध को उन्होंने छुआ, वहीं दो लड़कियों के ‘एकांत’ को भी बेपर्दा किया, जिसे आज का समाज भी देखना पसंद नहीं करता। मंटो किसी भी दृश्य का बारीकी से चित्रण करते हैं। बहुत इसरार के बाद बहन कलसूम की कमर को पैर से दबा रहे भाई मसऊद के मन में क्या चल रहा है, मंटो आपको वहां तक ले जाते हैं- .......कलसूम के कूल्हों पर गोश्त ज्यादा था। जब मसऊद का पांव उस हिस्से पर पड़ा, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह बकरे की गोश्त को दबा रहा है.......।
मेट्रो के कई स्टेशन निकलते जा रहे हैं। .......मंटो की दूसरी कहानी ‘दो गड्ढे’ पढ़ रहा हूं। लग रहा है कि वे खुद पाठकों से रू-ब-रू हैं। वे लिखते हैं- मैं जो भी हूं, फिर मुझे यकीन है है कि मैं इंसान हूं। इसका सबूत यह कि मुझमें खामियां भी हैं और खूबियां भी। मैं सच बोलता हूं। कई मौके पर झूठ भी बोलता हूं।
.......मंटो बेहद भावुक इनसान रहे होंगे। तभी लिखते हैं कि मुझे किसी अपाहिज लड़की से मिलने का इत्तफाक हो तो घंटों मेरे दिल-दिमाग में तूफान की-सी हालत रहती है। मैं अपाहिज बन कर खुद को उसकी जगह रख कर घंटों सोचता हूं, उसकी जिंदगी की ट्रेजेडी के बारे में गौर करता हूं। फिर अचानक फैसला करता हूं कि मैं उससे शादी कर लूं।
.......वे कहानी ‘दो गड्ढे’ में देश के मौजूदा हालात पर तीखी नजर डालते हैं। और कहानी के बीचों-बीच रह कर पूरे सिस्टम का पोस्टमॉर्टम भी करते जाते हैं। इस कहानी में उन्होंने सरकार और जनता के संबंध की दिलचस्प व्याख्या भी की है- मैं तो कई बार यह महसूस करता हूं कि सरकार और अवाम का रिश्ता रूठे हुए मियां-बीवी का रिश्ता है। .....बीवी अपनी मनमानी करती है, शौहर अपनी मनमानी। दोनों गृहस्थी के फर्जों का पालन नहीं करते लेकिन इसके बावजूद मियां-बीवी हैं। आपस में छोटी बातों पर झगड़े होते हैं, सगे-संबंधी देखते हैं और हंसते हैं, लेकिन उनका रिश्ता ज्यों का त्यों खोखला रहता है।
मंटो अपनी कहानियों में कई बार खुद नमूदार हुए हैं। कहानियों के बीच आकर कहानी सुनाते हैं। इसलिए वे बहुत बड़े अफसानानिगार हैं। .....अगला स्टेशन कश्मीरी गेट है। कोच में उद्घोषणा हो रही है। मेरे पास समय कम है और सामने कई कहानियां हैं। खुद की भी और मेरे साथ चल रहे सहयात्रियों की भी। मगर मैं मंटो की तरह नहीं कह सकता कि मेरे जेब में कहानियां होती हैं। फिलहाल मेरे सामने उनकी एक कहानी है- ‘पीरन’। एक ऐसी युवती की कहानी जो यहां दिखती नहीं। मगर उसकी उपस्थिति है। उसके लिए मंटो के दोस्त का खास लगाव है। खास ये कि वह जब भी उस युवती से मिलता है, उसकी (दोस्त की) नौकरी चली जाती है।
....... बेहद दिलचस्प अंदाज में लिखी गई यह कहानी पढ़ने के बाद सोच रहा हूं कि मंटो के पास ऐसी कहानियां आखिर आती कहां से होंगी। आखिर कहां से अफसाने लाता होगा यह अफसानानिगार? एक बार मंटो से पूछा गया कि वे कैसे और किस तरह कहानियां लिख लेते हैं? इस सवाल का उन्होंने यों जवाब दिया- .......अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूं। कागज-कलम पकड़ता हूं और बिस्मिल्लाह कर के अफसाना लिखना शुरू कर देता हूं। मेरी तीन बच्चियां शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूं। अपने लिए सलाद तैयार करता हूं। मगर अफसाना लिखे जाता हूं।
मंटो कहते थे कि उन्हें अफसाना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है। मैं अफसाना न लिखूं तो लगता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं। और ये भी कि मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है।
कहानी लिखने की बेचैनी कहानीकार में कितनी होती है ये मंटो से ज्यादा कौन जानता होगा। वे कहते हैं अफसाना उनके दिमाग में नहीं, जेब में होता है, जिसकी मुझे कोई खबर नहीं होती। मगर जब कोई अफसाना दिमाग से बाहर नहीं निकलता तो थक-हार कर एक बांझ औरत की तरह लेट जाता हूं। करवटें बदलता हूं। चिड़ियों को दाना डालता हूं। बच्चों को झूला झुलाता हूं। घर का कूड़ा-करकट साफ करता हूं। घर में बिखरे नन्हें जूतों को उठा कर एक जगह पर रखता हूं। मगर कंबख्त अफसाना, जो मेरी जेब में पड़ा होता होता है, मेरे जेहन में नहीं उतरता तो तिलमिला कर रह जाता हूं।
तो ये है एक कहानीकार की बेचैनी। जिसे मंटो ने बहुत साफगोई और मासूमियत के साथ कुबूल किया। वे बाथरूम में बैठ कर सोचने वाले लेखक नहीं कि कोई आइडिया आया और लिख मारा। मंटो ने कहा है कि जब बहुत ज्यादा कोफ्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूं मगर वहां से भी कुछ हासिल नहीं होता। मंटो बरसों पहले इशारों में आज के लेखकों के लिए अपनी बात कह गए।
उनकी कहानियां पढ़ते हुए आज मेरी खुशफहमी दूर हो गई कि मैं कहानियां गूंथ लेता हूं। हकीकत यह है कि मैं भी उस बांझ औरत की तरह हर बार कोशिश करता हूं जो एक शिशु को जन्म देना चाहती है। इसकी अकुलाहट बढ़ जाती है, तो मैं एक ऐसी नायिका ढूंढता हूं जो यह कहे कि आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कीजिए। जब कोई सामने नहीं आती तो मैं इस प्रकृति के विराट रूप से अकसर एक नायिका रच लेता हूं। वह मेरी कविताओं और कहानियों में उतर आती है। और जब मुझे कुछ नहीं सूझ रहा होता, तो वह मेरे कंधे पर हाथ धर कर हौसला बढ़ाती है। वह मुझे लेखक होने से कहीं ज्यादा एक बेहतर इनसान के रूप में देखना चाहती है। फिर जब मैं कुछ लिख देता हूं तो सोचता हूं कि मुझ बेवकूफ का लिखा कोई क्या पढ़ेगा। खैर छोड़िए।
अगला स्टेशन चांदनी चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। .......कोच में उद्घोषणा हो रही है। फिलहाल मंटो के समग्र रचना संसार को छू पाना इस यात्रा में नामुमकिन है। अलबत्ता अभी अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की वह बात याद याद आ रही है, जिसमें उन्होेंने कहा था कि मंटो का किरदार निभाने के बाद लेखक का वह हिस्सा उनके भीतर अब भी जिंदा है। और जब भी कोई अभिनेता किसी का किरदार निभाता है, तो उस पात्र के जीवन का हिस्सा अभिनेता के साथ जुड़ जाता है और अभिनेता का कुछ हिस्सा समाप्त हो जाता है।
......नवाज भाई आपने सही कहा। लेकिन जरा सोचिए इतने सारे किरदारों को रचने वाला वह लेखक खुद कितने पात्रों को अपने भीतर जीया होगा। कहानी रचते हुए वह खुद न जाने कितनी बार अपनी दुनिया से कटा होगा। खुद भी न जाने कितनी बार मरा होगा। आपने तो सिर्फ मंटो और उनके जीवन गाथा को जीया है। जिसने एक समाज को त्रासदी भोगते देखा।
आज इस सफर में मंटो को पढ़ रहा हूं तो लग रहा कि वे तो मेरे भीतर बरसों से जी रहे हैं। धड़क रहे हैं अपने शब्दों से। और इस मेट्रो में मेरे साथ ही चल रहे हैं अपने किरदारों को तलाशते हुए। सच में सआदत हसन नहीं हैं आज, लेकिन मंटो जिंदा हैं। अपने पाठकों के दिलों में।
.......अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। मैं सीट से उठ गया हूं। तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा-तुम उतरोगे भाई। मैं पीछे मुड़ कर देख रहा हूं। गोल चश्मा लगाए घुंघराले बालों वाले एक प्रौढ़ सज्जन मुस्कुरा रहे हैं। उनके एक हाथ में सिगार है, तो दूसरे हाथ में बेतरतीब कई कागज। लगा जैसे मंटो साहब खड़े हैं। इसी दौरान उन सज्जन ने किसी की कॉल सुनते हुए कहा- हां बोलिए भाईजान। मैं सआदत हसन बोल रहा हूं.........।
........कोच के दरवाजे खुल गए हैं। मैं स्टेशन के प्लेटफार्म पर आ गया हूं। लग रहा है कि मंटो मेरे साथ, मेरे पीछे ही चल रहे हैं। मेरे इर्द-गिर्द कहानियां भी चल रही हैं। उनमें से एक कहानी लेकर फिर आपसे मिलूंगा। इंतजार कीजिए।
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