अभिषेक शर्मा।
मेरी ही तरह और हम उम्र वो लोग जिनकी बचपन की तस्वीरें ब्लैक और व्हाईट खींची गयी होंगी वो जानते होंगे कि यह जनरेशन वाकई कई बदलावों से गुजरी है।
चप्पल जैसा स्मार्ट फोन कब नोकिया 1100 की जगह लिया सोचना पड़ेगा। बैंक, रेलवे टिकट की लम्बी कतारों को मोबाइल ने जज्ब कर लिया, सोचिये यह सब आधुनिक पीढ़ी कभी नहीं समझेगी। उसे बहुत कुछ आसान सा मिला जिसे उसे सिर्फ हासिल ही करना है।
मेरी हमउम्र के लोग जरुर श्वेत श्याम टीवी के दौर को जानते होंगे, रामायण /महाभारत देख बुजुर्ग तब हाथ जोड़ कर यह देखते थे।
बिलकुल जैसे कथा बांचते समय भक्त भाव में हम आ जाते हैं। यह एक संस्कृति के रुआब का सहज बदलाव है।
आज "प्रेमचंद" जयंती है मगर "प्रेमचन्द्र" लिखने वाले अथाह हैं। "नमक का दारोगा" लिख पढ़ देने भर से आप प्रेमचन्द को नही समझेंगे, इसके लिए आपको दरोगा और दारोगा में फर्क समझना ही होगा।
पत्रकार कलाकार से सरोकार रखना ही ज्ञान की गंगा में डूबना नही होता। प्रेमचन्द अपने आपमें उस जमाने के मुंशी (गुरु जी) थे जब कि मुंशी जी की बेंत खाकर लोग अधिकारी और बुद्धिजीवी बने।
अब शब्दों के रचना संसार में चेतन भगत जैसे लेखक आपको अचेतन की स्थिति में ले जा रहे हैं।
आधुनिकता के लबादे में नये शब्दों की डिलीवरी ऐसे हो रही है जैसे शब्दकोश को क्विंटल भर बनाने का जिम्मा इसी पीढ़ी पर है। लोल से बकलोल तक की हिंग्रेजी अब गुलामी की नहीं आधुनिकता की याद दिलाती है।
आजादी से पहले अंग्रेजी साहित्य का नामोनिशान नहीं था मानसिकता हिन्दुस्तानी थी क्योंकि अलख प्रेमचन्द ने थामी थी।
अब समझ में भले चेतन न आयें मगर घर की लाइब्रेरी में वो मौजूद जरुर हैं जबकि हम आजाद हैं और मानसिकता अंग्रेजियत की हो गयी है।
कितने बच्चे हीरा- मोती, झूरी को जानते हैं? बच्चे पैदा होते ही संस्कारों /मर्यादा से परे साहित्य थाम रहे हैं और हम छाती पीट रहे हैं कि सिनेमा ने बिगाड़ दिया।
याद कीजिये वो दौर जब साहित्य हमारे संस्कारों का समाज का हिस्सा था और अब वह आइना सिनेमा बन गया। इसमें कुसूर प्रेमचन्द का नही चेतन भगत का भी नहीं हम ही साहित्य के हित से हिट विकेट हुए जा रहे हैं।
नये इंटर्न आते हैं ऑफिस में तो लगता ही नहीं कि हिन्दी इनकी इस जन्म में शुद्ध हो पायेगी। प्रेमचन्द जी, जरूरत अब आपकी कहीं अधिक महसूसता हूँ। अनगिन नमन आपकी लेखनी को
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