मनोज कुमार।
मैं कभी झूठ नहीं बोलता, यह वाक्य लगभग हर आदमी कहता है लेकिन जब स्वयं की गलती मानने का वक्त होता है तो वह केवल और केवल झूठ का सहारा लेता है। यह बनी-बनायी बात नहीं है अपितु जीवन का एक कड़ुवा सत्य है। ऐसा क्यों हुआ या हो रहा है? इसके पीछे कारण तलाश करेंगे तो हमें ज्ञात होगा कि नैतिक शिक्षा के गुम हो जाने के साथ ही समाज में संकट सर्वव्यापी हो गया है। ऐसे में हमें महात्मा गांधी का स्मरण करना सबसे जरूरी लगता है। वे भी हमारी तरह हाड़-मांस के व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक गलतियां की लेकिन अपनी गलतियों को समझा और पूरे साहस के साथ समाज के समक्ष ‘सत्य के प्रयोग’ शीर्षक से रखा। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन बापू और महात्मा के रूप में मौजूद हैं। उनकी आत्मकथा नैतिक शिक्षा की पाठशाला है। एक ऐसी पाठशाला जो जीवन का सीख देती है। नैतिकता के उच्च मानदंड को पूर्ण करती हुई एक मनुष्य बनने का साहस और संकल्प का भाव उत्पन्न करती है। मनुष्य में मनुष्यता का आत्मबल जगाती है।
आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं। हमारे भीतर सहिष्णुता का जिस तेजी से ह्रास हो रहा है और कदाचित जीवन मूल्यों से हम बेलाग हुए जा रहे हैं तो कहीं न कहीं नैतिक शिक्षा का अभाव ही है। प्राथमिक शिक्षा में नैतिक शिक्षा का पाठ इसलिए ही पढ़ाया जाता था कि बच्चे बड़े होकर जीवन को सही परिप्रेक्ष्य में समझें। नैतिक शिक्षा का अर्थ बहुत सामान्य सा है। इसका अर्थ है जीवन में हम झूठ बोलने से बचें, बड़ों का निरादर ना करें, स्वयंसेवी बनें, राष्ट्र और समाज के प्रति हमारी निष्ठा हो तथा सबके प्रति मन में दया का भाव बना रहे।
आज ये सारे लक्षण नयी पीढ़ी में समाप्त होते दिख रहे हैं। दूसरों से अधिक मैं कैसे और कितना प्राप्त कर लूं, इसकी होड़ मची है। संयम और तृप्ति तो बस बीते जमाने की बात हो चुकी है। लालच ने अनेक विकारों को जन्म दिया है। इन विकारों के चलते ही समाज में टूटन की स्थिति बन रही है। यह सब एक स्वस्थ्य और विकसित समाज के लिए दुखदायी है।
यह भारत वर्ष का सौभाग्य है कि जनवरी माह में हमें बड़े महामनाओं का स्मरण करने का देता है। इस महीने पत्रकारिता के एक अन्य पुरोधा माखनलाल चतुर्वेदीजी की पुण्यतिथि है, युवाओं के मार्गदर्शक स्वामी विवेकानंद जी की जयंती है। महात्मा की तरह इनकी जीवनी भी नैतिकता की पाठ पढ़ाती है। ये सारे लोग यूं ही हमारे प्रेरणास्रोत नहीं बनें बल्कि इन्होंने अपने जीवनकाल में वह सब कुछ किया जो सत्य, अहिंसा और सद्मार्ग की ओर ले जाते हैं। आज विश्वमंच पर भारत की आवाज गूंजती है तो हमारे इन पुरखों के कारण। आज हम अलग से चिंहित हैं तो इन पुरखों के उन कार्यों के कारण जिनको आज सारा संसार मान रहा है। हम इठला सकते हैं और अभिभूत भी हो सकते हैं कि हम श्रेष्ठ हैं तो श्रेष्ठता इन्हीं महानुभावों के कर्मों से है किन्तु अब इठलाने की जगह पर आत्ममंथन करना होगा।
हमें इस बात की जांच करनी होगी कि हम अपने पुरखों के कर्मों से आज शीर्ष पर हैं किन्तु क्या हमारे कर्म ऐसे हैं जो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए गौरव का विषय बन सके? शायद ऐसा नहीं है। गौरव गाथा के रास्ते के लिए बनाये गए नींव का पत्थर अर्थात नैतिक शिक्षा को ही जीवन से निकाल बाहर किया है। जब जीवन में नैतिक व्यवहार ही नहीं होगा तो सत्य और अहिंसा एक दिवास्वप्र की तरह है। नैतिक शिक्षा ही सत्य और अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करती है किन्तु वर्तमान समय भटकाव का है। यांत्रिक रूप से हम विकसित हो चुके हैं किन्तु व्यवहारिक रूप से, चरित्र के तौर पर हमारा पतन आरंभ हो चुका है, इस बात पर ऐतराज करने का कोई कारण शेष नहीं रहता है। ऐसा भी नहीं है कि इस बिगड़ रही स्थिति से हम बाहर नहीं आ सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है आत्मबल की। यह आत्मबल हमें महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पठन से आएगा।
30 जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर उनका स्मरण करते हुए हमें इस बात का संकल्प लेना चाहिए कि स्वयं के साथ बच्चों को नैतिक शिक्षा दें ताकि उनका कल सुंदर और सुनहरा बन सके। इस बात का ध्यान रखना होगा कि महापुरुषों के जन्म या पुण्यतिथि पर हम उनका स्मरण केवल इसलिए नहीं करते हैं कि तारीखें याद रह जाए बल्कि इसलिए करते हैं कि उनके बताये रास्ते का हम पुर्नपाठ करें। उन्हें आत्मसात करें और एक नई दुनिया की शुरूआत करें। एक बार फिर हमें महात्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, विवेकानंद और सुभाषचंद्र बोस को याद करते हुए उनके बताये रास्ते पर चलकर संकल्प लेना होगा।
लेखक समागम पत्रिका के संस्थापक संपादक हैं।
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