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कृष्ण के हाथ महाभारत आया, लेकिन भारत की सारभूता राधा ही हुईं

वीथिका            Jan 26, 2023


मनोज श्रीवास्तव।

राधा को कृष्ण की आहलादिनी शक्ति कहा गया है। राधा कृष्ण का रहस्य नहीं है। कृष्ण का रस हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण से लेकर मध्यकालीन साहित्य तक सब उनकी दिव्यताओं का वर्णन करते हैं।

आखिरकार विष्णु के अवतार कृष्ण ने जिससे प्रेम किया होगा, वह कोई साधारण तरुणी तो न रही होगी। लेकिन राधा की साधारणताओं ने ही उन्हें भारतीय चित्त की अधिकारिणी बनाया है।

यह ठीक है कि राधा कृष्ण की आत्म-गुप्ति हैं,  कृष्ण का हृदय वहीं विश्राम करता है पर कृष्ण की गीता की अनुल्लिखित प्रेरक शक्ति भी हैं।

वे यदि गीता कहती है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं, तो राधा कहती हैं कि सिर्फ प्रेम में ही उनका अधिकार है, उसके फलों का उन्होंने त्याग किया हुआ है।

ऐसे कि जैसे उन पर कभी उनका अधिकार था ही नहीं बल्कि, प्रेम में भी उनकी एक अकर्तृ उपस्थिति है।

यदि गीता संबंधों के पार जाने का कहती है तो राधा संबंधों के पार जा ही चुकी हैं।

कृष्ण उनके क्या हैं?

वे उनकी क्या हैं? ये उनके शिरीष, वे उनकी मौलश्री? ये उनके पारिजात, वे उनकी माधवी ? लेकिन क्या राधा श्रीकृष्ण की पत्नी हैं? या श्रीकृष्ण राधा के पति हैं?

महाभारत सिखाता है कि सत्य बड़ा है, संबंध नहीं। राधा और कृष्ण को यह बात कितने शुरू से पता है। इसलिए कि प्रेम ही उनका सत्य है।

वह प्रेम इतना मृदु है कि संबंध का भार भी नहीं उठा सकता।

यह ऐसा प्रेम है जो कोई प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं करता।

यदि कुछ पुराणों ने ब्रह्माजी को राधा और कृष्ण का विवाह करात हुये दिखाया भी तो भी वह इस बात का सूचक मात्र है कि इस प्रेम में जो भी है वह दिव्य है। वह सृष्टिकर्ता के आदि कवित्व का आशीष है।

लोग संबंध होने पर अपने बड़े-बुजुगों का आशीर्वाद चाहते हैं। मां-बाप, सास-ससुर, चाचा- है, वह चाची, मामा-मामी, ताऊ-ताई, दादा-दादी, नाना-नानी का।

लेकिन राधा और कृष्ण का प्रेम सामाजिकता में नहीं, निसर्ग में है,  इसलिये सर्ग के, सृष्टि के रचयिता को ही इनके लिये होना है।

ध्यान दें कि यह गंधर्व विवाह नहीं है,  गंधर्व ब्रह्मा के सर्ग के ही अंग हैं।

वे तो देवगायक मात्र हैं ब्रह्मा बुजुर्ग हैं,  पितामह हैं,  लेकिन वे विदेह हैं,  उनका एक पर्याय है 'अशरीरी' और एक पर्याय है 'सात्विक'।

उनका होना यह बताता है कि राधा कृष्ण के इस प्रेम की कोई मानव समाज वाली सीमा नहीं है और न किसी 'शरीरी' के लिये संभव है कि वह राधा कृष्ण के प्यार का गवाह बन सके।

यह पूरा अग जग उनके प्यार को जानता है, यह ब्रह्म वैवर्त। यह किसी पुराण का नाम है। यह इस ब्रह्मांड को कहते हैं। ब्रह्म वैवर्त!

सो उस पुराण के इस प्रसंग का अर्थ यही है कि राधा कृष्ण के प्रेम की सांस्कारिकता यह संपूर्ण निखिल, यह नक्षत्राकाश, यह मरुत्पथ, यह अमरापगा, यह द्यावापृथिवी, यह शशिचक्र, यह सूर्य, यह चंद्र, यह कांतार, यह वटवृक्ष, यह बेला, यह चमेली, यह जूही, के पार कर यह अद्रि, यह कल्लोलिनी प्रमाणित करते हैं।

राधा और कृष्ण को किसी के क्या कचहरी में नहीं जाना? कोई दावा नहीं ठोंकना?  कोई मुतालबा नहीं मांगना?

वहां कोई हलफनामा नहीं है, न कोई मुख्त्यारनामा वहां बस वे दो हैं और वह 'दुई' भी खत्म हो गई है, वे एक ही हैं।

राधा कोई अनंत प्रतीक्षा करती हुई प्रेमिका नहीं हैं,  वे आत्म-विभोर हैं क्योंकि कृष्ण ही उनका आत्म है,  इस 'आत्म' को ही गीता द्योतित करती हैं।

राधा ने कृष्ण से प्रेम में जिस स्वतंत्रता का अनुभव किया था, वह अनुभव राधा के माध्यम से और उनके दृष्टान्त की प्रेरणा से बहुत सी मर्यादाओं, नैतिकताओं और बंधनों से मुक्ति का एहसास कं लिये एक स्थाई संदर्भ -बिन्दु हो गया ।

गृहस्थियों को चलाने के बोझ से लाद दी गई पुरुष-प्रधान समाज की स्त्रियों के लिये राधा के रूप में विरेचन-भूमि उपलब्ध हुई।

अध्यात्म ने उसे पूज्य समझा, उसे आराध्य माना में जिसके प्रेम ने समाज की प्रचलित सरहदों की जंजीरों को अपने भावातिरेक से पिघला दिया।

जैसे कृष्ण के जनमते ही कारागृह के द्वार खुल गये हथकड़ी-बेड़ी टूट गयीं वह हुआ ही अवतार इसलिए कि मर्यादाओं की जानलेवा जकड़नों से मुक्त कराने के लिये ही तो वह आया था- वैसे ही राधा के प्रेमाधिक्य ने भी स्त्री हृदय के द्वारा किये जा रहे निर्वाचन को आदर का स्थान दिलाया।

सामाजिक मर्यादाओं को चुनौती जैसे द्रौपदी देती हैं, वैसे ही राधा भी देती हैं,  बस उसकी शैली में फर्क हैं।

गीता में भगवान कृष्ण जिस निश्चयात्मिका बुद्धि की बात करते हैं, राधा और भ्रमरगीत की गोपियां उसका साक्षात् प्रमाण हैं।

अलबत्ता उन्हें निश्चयात्मिका हृदय का कहा जाना और उपयुक्त है। भक्ति में राधा की यह हार्दिकता अक्षुण्ण रही।

लेकिन जिसने सामाजिक रीतियों का अतिक्रम किया, उसे ही रीतिबद्ध कवियों ने अपनी कवि-परंपरा, कवि-समय और कवि रूढ़ि में बांध दिया था।

अब राधा एक 'सब्जेक्ट' से ज्यादा एक 'ऑब्जेक्ट' हो गईं,  यानी जिस तरह से द्रौपदी का 'ऑब्जेक्टिफिकेशन' हुआ उसी तरह से राधा का भी हो गया।

जैसे द्यूतसभा सामंती थी, वैसे ही रीतिकालीन दरबारों के सामंतों ने राधा के साथ व्यवहार किया।

जैसे द्यूतसभा ने द्रौपदी को एक संपत्ति के रूप में दिखाकर उसका वस्तुकरण किया था, उसी तरह रीतिकालीन सामंती दरबारों ने राधा को अलग तरह से निर्वैयक्तिकीकृत' (depesonalize ) किया।

राधा नायिका भेद आदि में इनकी सामंती दुष्प्रवृत्तियों के औचित्यीकरण के लिये नहीं थीं। राधा की प्रतिबद्धता जीवनभर की थी, बल्कि जन्म-जन्म की। एक बांसुरी की ध्वनि थी, जो राधा के मन में लगातार बजती रहती थी।

कृष्ण ने राधा के परलोक के बाद वह बांसुरी फिर कभी न बजाई। आज भी फिल्मों तक में जब भी कभी राधा-कृष्ण का प्रसंग आता है, वह बांसुरी पुनः सुन पड़ने लगती है।

प्रयाण वह महीन ध्वनि। पृष्ठभूमि में बिना किसी आक्रामकता के लगातार जारी ।

लगातार स्पन्दित। लगातार जीवित । वह ध्वनि थी क्या जो धीरे-धीरे सब पर छा गयी? वह बांसुरी जीवन के संगीत का नाम है।

जीवन जो बहुत-सी औपचारिकताओं और पांडित्यों से, बहुत से निर्वचनों और उपाधियों से अधिक और आगे है।

उस अनिर्वचनीय, उस अनाम्य, उस अपरिमेय, उस परिभाषातीत, उस वर्णनातीत, उस शब्दातीत, उस सीमातीत को बांसुरी की तान में जज़्ब करती रहती थीं राधिका ।

राधा को पूरी दुनिया जिस एक में मिल गई थी, वह एक फिर उन्हें पूरी दुनिया में नहीं मिला।

वह विश्वगोप्ता था, लेकिन फिर वह उसी विश्व में राधा के लिये गुप्त हो गया।

वह जो अच्युत था, राधा के हाथों से बालू की तरह फिसल गया।

कभी उस केशी ने राधा के केश संवारे थे, अब वही केशव कहां हैं, जब राधा के केश उनकी प्रतीक्षा में रूखे हो आये हैं?

वे चक्रपाणि समय के किस चक्र में उलझा कर चले गये हैं? द्वारिकाधीश की दुनिया के द्वार राधा के लिये नहीं थे, यह राधा ने कब जान लिया था?

बनमाली मथुरा को जाते हुये अपनी ग्राम्य पृष्ठभूमि से एक पल के लिये भी स्वयं के प्रति शंका नहीं लाए, तब राधा ही क्यों ठिठक गईं?

क्या उन्हें ब्रज की मिट्टी से, उसके कुंजों और पुलिनों से, उसके पर्वतों और गलियों से इतना प्यार था कि वे वहीं रह गईं और इसी की कृतज्ञता स्वरूप वहां आज भी राधे राधे ही कहा जाता है? कि वे ही हैं जो वृंदावनेश्वरी हैं।

होंगे कृष्ण वृंदावन विहारी। वे राधा ही बस गईं यहां, जो कभी कदंब के तने से टिककर खड़े कृष्ण को कभी यहां और कभी वहां देखने का भरम पाले रखी।

गोकुलनाथ गौवंश को छोड़कर चल दिये,  वे जो 'गो' ही को अपना 'कुल' मानते थे, अब द्वारिकेश हैं।

लेकिन न वह धेनु है और न वह वेणु है उनके पास, जिनकी ईश्वरी हुआ करती थीं राधा । वहीं रह गयी उन गायों के पास जिन्हें कृष्ण को घेरे रहने में जाने कैसी तृप्ति मिलती थी।

वहीं रह गयी उस यमुना के करीब जिसे जन्मने पर कृष्ण ने पांवों के स्पर्श से शांत कर दिया था, किन्तु जो अब पछाड़ें खाती हुई कृष्ण को ढूंढ़ती हैं।

वे घनप्रिय, वे श्यामकंठ मोर जिनके पंखों को धारण करके ही कृष्ण इस अगजग के सिरमौर लगते थे, अब राधा के हाथों से दुलराये जाते हैं, जैसे वही इनकी वनदेवी हैं।

कौन रह गया उस भूसर्ग के साथ?

उन तितलियों और जुगनुओं, उन भृंगों और वीरबहूटियों के साथ ? उन बत्तखों और हंसों, उन सारसों और टिटहरियों के साथ?

उन चातकों और चकोरों, उन हिरनों और गिलहरियों के साथ? राधा ही न। जो शेष रह गईं तो जैसे अशेष हो गयीं। वे वाकई प्रकृति थीं।

कभी ब्रह्मा कृष्ण का प्रभाव जानने के लिये सारे गौओं, बछड़े और ग्वालबाल चुरा ले गये थे और सर्वसृष्टा योगीन्द्र हरि ने योगमाया से पुनः सबकी सृष्टि कर उन्हें लज्जित कर दिया था। अब कृष्ण स्वयं ही जैसे इन गौओं, बछड़ों, ग्वालबालों की हँसी चुरा ले गये हैं और तब वे सब राधा से ही जैसे प्रार्थना करते हैं कि वही उनका नवसृजन करे।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में उद्धव श्रीकृष्ण से उचित ही कहते हैं कि मैंने उस पुण्यमय वृन्दावन को भी देख लिया, जो भारतवर्ष का साररूप है।

उस का साररूप परमरमणीय रासमण्डल है,  उसकी सारभूता गोलोकवासिनी श्रेष्ठ गोपिकाएं हैं।

उनकी सारभूता परात्परा रासेश्वरी राधा के दर्शन का वे उल्लेख करते हैं।

सो यह हुआ कि कृष्ण के हाथ महाभारत आया, लेकिन भारत की सारभूता राधा ही हुईं। कृष्ण ने इस देश को बचाया, राधा ने इस देस को।

लेखक सेवानिवृत आईएएस अधिकारी हैं।

 



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