Breaking News

सिर्फ बताना नहीं दो जोड़ दो चार कैसे किया जाए, असल काबिलियत यह है

यंग इंडिया            Apr 17, 2024


अमन आकाश।

दसवीं-बारहवीं के रिजल्ट आए हैं. टॉपर्स के अभिभावक बेहद खुश हैं. बच्चों को शुभकामनाएं देकर, मिठाईयां खिलाकर उनका प्रोत्साहन कर रहे. होना भी चाहिए. सोशल मीडिया, पब्जी, इंस्टा रील, समाज में बढ़ते नशाखोरी के दौर में बच्चे अगर इन सबसे दूर रहकर परीक्षाओं में बेहतर परिणाम ला रहे हैं तो उनका अभिनंदन बनता है. उनको फूलमालाएं पहनायी जानी चाहिए, मिठाइयां बांटी जानी चाहिए.

पर एक चीज खटक रही है. उन हजारों बच्चों के अभिभावक और समाज कहाँ हैं, जिनका सेकंड या थर्ड डिवीजन आया है! उन अभिभावकों को भी हिम्मत दिखानी चाहिए कि शाम को अपने बच्चे को लेकर मिठाई खिला आएं या उनके सेकंड या थर्ड डिवीजन आने की खुशी सोशल मीडिया से शेयर करें. असली प्रोत्साहन की ज़रूरत उन्हें है. प्रथम श्रेणी में ना आकर वो कर्महीन या फिसड्डी नहीं हो गए. दरअसल शिक्षा की नींव ही हमने गलत रखी है.

हमारी क्लास में शिक्षकों को वह बच्चे ज्यादा पसंद थे, जिन्हें पाठ जल्दी याद होता. जो शब्दों के अर्थ चट से बता देते. जो गणित के हिसाब ठीक-ठीक लगा लेते. न्यूटन के नियम से लेकर आर्किमिडीज का सिद्धांत, पीरियाडिक टेबल से लेकर बालकः-बालकौ-बालकाः जिनके जबान पर रहता. जो समय से क्लास में आकर बैठ जाते.

जिनके घरों से उनकी शिकायतें ना के बराबर आती. स्वभाविक है. ऐसे ही छात्रों को पाकर शिक्षक सुरक्षित महसूस करते हैं. कोचिंग क्लासेज की यही परम्परा है. चाहे शिक्षक लाख कह लें कि सभी विद्यार्थी हमारे लिए समान हैं लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाता. बैकबेंचर्स से उनको कम उम्मीद रहती है. किस्मत से पास हो गए तो क्रेडिट मिलना ही है, और नहीं हुए तो पढ़ने-लिखने में तो मन लगता नहीं था तुम्हारा. आवारागर्द कहीं के.!

होते हैं. हर क्लास में कुछ बच्चे होते हैं. जिनका पढ़ने में मन नहीं रमता. कभी सिनेमा देखने निकल गए तो कभी क्रिकेट खेलने चल पड़े दूर गांव. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा.! अगले दिन चार छड़ी खा लेंगे. घर शिकायत चली भी गयी तो देखा जाएगा. ये कोशिश करते भी हैं पढ़ने की लेकिन रट नहीं पाते. बालकस्य की जगह बालकान् कहने पर इनके कान खींचे जाते, ऑनर का अर्थ सम्मान नहीं बता पाने पर इनके सम्मान में कमी हो जाती. दसवीं तक ऐसे ही मूल्यांकन होता है. शायद आज भी ऐसा ही होता हो.

मेरे ये बैकबेंचर दोस्त कोई सेकंड तो कोई थर्ड डिवीजन से मैट्रिक पास कर गए. पर ये फिसड्डी नहीं थे. जितनी हीनभावना से इन्हें देखा गया था उतने के ये अधिकारी नहीं थे. ये उच्चतर शिक्षा हासिल नहीं कर पाए. इनमें से कोई यूपीएससी या आईआईटी की तैयारी के लिए कोटा-दिल्ली नहीं जा पाया. कोई सरकारी नौकरी के चक्कर में दस साल से एक ही कमरे में घिस नहीं रहा. आज मेरे सभी बैकबेंचर दोस्त ज़िंदगी की पाठशाला में अव्वल दर्ज़े पर हैं. अपने पूरे परिवार को संभाल लिया है मेरे उन दिनों के लापरवाह बैकबेंचर दोस्तों ने. आज भी जब दिल्ली-मुम्बई कहीं इनके कमरों पर एग्जाम के सिलसिले में जाना होता है तो मेरे वही दोस्त जिन्हें टीचर हमेशा दुत्कारा करते थे, कहा करते हैं 'भाई तू आराम से यहां रह, मस्त एग्जाम दे बिना किसी टेंशन के. तेरा दोस्त कमा रहा है ना.!'

शाम को प्राइवेट नौकरी से थकेहारे आफिस से लौटकर जब यह रूम पर लौटते हैं तो खुलती हैं पिछले दिनों की किताबों के पन्ने. ठहाके लगते हैं. चेहरों पर रौनकें आती हैं, कुछ यादें गुदगुदा जाती हैं, कुछ मायूस कर जाती हैं. हंसते-हंसाते जब यह कहते हैं 'भाई पिछले साल छत ढलवा लिया था. इस साल सोच रहा हूँ थोड़े पैसे बचाकर प्लास्टर करवा लूं. ये सब भी तो ज़रूरी है यार. और सोच रहा हूँ मम्मी को एक सोने की चेन बनवाकर दे दूं. देखते हैं दीवाली टाइम तक ओवरटाइम लगाकर भी कुछ कर ही लेंगे.' मेरे ये बैकबेंचर दोस्त स्कूल के दिनों एरिस्टोटल-सोक्रेट्स की फिलोसोफी नहीं रट पाए थे, पर ज़िंदगी के फलसफे में इनकी कोई सानी नहीं. गुरुजी आप गलत थे, यह असफल नहीं हुए. फेलियर नहीं हुए.

आज भी जो बच्चे पीछे की बेंच पर चुपचाप बैठ रहे होंगे, जिनको कोई नोटिस नहीं कर रहा होगा, जिनको आप फीस लेने के समय ही टोकते होंगे, वो बच्चे भी बड़ी शांति से अपनी जिम्मेदारियां निभा जाएंगे. दो जोड़ दो चार तपाक से बता देना काबिलियत नहीं, दो जोड़ दो चार कैसे किया जाए, असल काबिलियत यह है. मुझे उम्मीद है कि मेरे ये बैकबेंचर्स दोस्तों की पीढ़ी जब पिता के पद को प्राप्त करेगी तब अपने बच्चों के सेकंड या थर्ड डिवीजन को भी ऐसे ही एन्जॉय करेगी जैसे आज का समाज सिर्फ प्रथम को स्वीकारता है.

लेखक बिहार में जिला जनसंपर्क अधिकारी हैं.

 

 



इस खबर को शेयर करें


Comments