अंसारी का गुनाह या साफगोई

खरी-खरी            Aug 11, 2017


राकेश अचल।
अस्सी साल के निवर्तमान उप राष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी अचानक देशभक्तों के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। अपने विदाई भाषण में श्री अंसारी ने अल्पसंख्यकों की स्थिति के बारे में एक सच क्या बयान कर दिया पूरे संघ परिवार और उनके दत्तक भाजपा को आग लग गयी। अब अंसारी को संघ पोषित फ़ौज हर मंच पर पछियाती नजर आ रही है। अंसारी जी को कोसने से पहले स्वयं सेवकों को उनके अतीत को देखना चाहिए और ये तय करना चाहिए की क्या वे अंसारी की टिपण्णी पर बोलने की पात्रता रखते हैं? अंसारी आजाद भारत के ऐसे पहले उपराष्ट्रपति रहे हैं जिन्हें लगातार दूसरी बार एक ही पद के लिए चुना गया। अंसारी जन्में कोलकता में लेकिन उनकी जड़ें उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में हैं। वे ऐसे परिवार से हैं जिसका देश के स्वतंत्रता संग्राम से सीधा रिश्ता रहा है। अंसारी के पितामह कांग्रेस के अध्यक्ष और स्वतंत्रता सैनानी रहे हैं।

निवर्तमान उपराष्ट्रपति चाय बेचते हुए देश के दूसरे सबसे बड़े पद पर नहीं पहुंचे थे। उन्होंने बाकायदा 1961 में अपनी मेधा का परिचय देते हुए भारतीय विदेश सेवा में प्रवेश किया और संयुक्त राष्ट्र के अलावा आस्ट्रेलिया,यूएई,अफगानिस्तान,ईरान,सऊदी अरेबिया में क्रमश:उच्चयुक्त और भारतीय राजदूत के रूप में काम किया उनकी सेवाओं के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अंसारी अलीगढ़ मुस्लिम विवि के कुलपति के अलावा देश में 1984 और 2002 के दंगों में पीड़ितों के पुनर्वास के काम से सीधे जुड़े रहे। उन्होंने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं। सवाल ये है कि अंसारी ने अल्पसंख्यकों के सूरत—ए—हालत पर टिप्पणी कर संवैधानिक पद की गरिमा को गिराया या बढ़ाया। मेरी मान्यता है कि श्री अंसारी यदि पद पर रहते यही बात कहते तो निश्चित रूप से पद की गरिमा गिरती। लेकिन वे बीते तीन साल से अपने सीने पर पत्थर रखे रहे और उन्होंने अल्पसंख्यकों की स्थित के रूप में एक शब्द नहीं कहा। हालाँकि भारतीय समरसता के बारे में वे लगातार इशारों-इशारों में बोलते रहे,लेकिन उन्होंने अपने कामकाज और व्यवहार से पद की गरिमा को कभी कम नहीं होने दिया।

अल्पसंख्यकों के बारे में अंसारी जी की टिप्पणी सरकार के लिए आत्मविश्लेषण का अवसर प्रदान करती है। उनकी इस टिप्पणी से सरकार और सरकारी पार्टी को तिलमिलाने के बजाय गंभीरता से लेना चाहिए था। क्योंकि ये टिप्पणी किसी सड़क चलते आदमी ने नहीं की थी। अंसारी हर तरह से योग्य और मंजे हुए अनुभवी भारतीय नेता हैं। उनकी देशभक्ति पर कोई ऊँगली उठाये ये हास्यास्पद है। अंसारी की टिप्पणी के बाद सभी मंचों पर जिस तरह से संघ परिवार बिना हाथ धोये अंसारी के पीछे पड़ा है उसे देख कर आश्चर्य तो नहीं होता किन्तु जुगुप्सा जरूर पैदा होती है।

अंसारी ने जो कहा है वो बात दूसरे लोग भी कह चुके हैं। उनकी बात को आक्षेप के बजाय एक गंभीर इशारा समझी जाती तो शायद बेहतर होता लेकिन दुर्भग्य ये है कि जिसके पास संघ या भाजपा द्वारा जारी देशभक्ति का प्रमाणपत्र नहीं है वो देश भक्त माना ही नहीं जा रहा। संघ के हिसाब से देश में आजादी के 70 साल बाद पहली बार राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति,प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के पद पर राष्ट्रभक्त आसीन हुए हैं,या पहली बार दलितों,अल्पसंख्यकों को अवसर दिया गया है।

इस मुद्दे पर मैं सोशल मीडिया के अलावा सरकारी भौंपू बन चुके टीवी चैनलों की रपट देख रहा था, जिन पर अंसारी को सूखे कंठ कोसा जा रहा था और प्रमाण देकर स्थापना की जा रही थी कि देश में अल्पसंख्यकों को लगातार सम्मानित किया गया है। प्रमाण के तौर पर देश के अल्पसंख्यक पूर्व राष्ट्रपतियों,उप राष्ट्रपतियों ,सिने अभिनेताओं के नाम गिनाये जा रहे थे। लेकिन सरकारी वकील ये लगातार भूल रहे थे कि ये सब कारनामे तीन साल पहले सत्ता में आई सरकार के नहीं नहीं बल्कि आज हाशिये पर पड़ी कांग्रेस की सरकार के हैं। यानि अल्पसंख्यकों को जो मिला सो उनकी योग्यता के आधार पर तब मिला जब देश में कांग्रेस की सरकार थी। मौजूदा सरकार ने अल्पसंख्यकों को क्या दिया है इसकी गणना आगे की जाएगी।

लब्बो-लुआब ये है कि सत्तारूढ़ दल और संघ परिवार को बौखलाने के बजाय की गयी टिप्पणी पर गहन,विशद समीक्षा करना चाहिए और देश के अल्पसंख्यकों को ये आश्वस्त करना चाहिए कि अंसारी जी ने जो कहा है वो सरकार की चिंता का विषय भी है। अगर हकीकत विपरीत है तो देश का अल्पसंख्यक समाज अंसारी जी को खुद ही खारिज कर देगा,इसके लिए सरकार और सरकारी पार्टी या उसकी मात्र संस्थाओं को परेशान होने की जरूरत नहीं है। मुझे उम्मीद है कि जो लोग अंसारी जैसे गहन अध्येता की बात नहीं समझ पाए होंगे वे मेरी बात जरूर समझेंगे और उसे सराहेंगे। वैसे मै अपने कोसने वाले मित्रों की प्रतिक्रियाओं का भी समान रूप से सम्मान करता हूँ,क्योंकि उन्हें अपने मन की बात कहने का हक है। बस निवेदन ये है कि भाषा की मर्यादा कायम रहे और रहना भी चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।

 



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