जनता की जरूरतों से इतर हनीप्रीत के बहाने चुनौतियां छुपाने की कोशिश में चैनल

खरी-खरी, मीडिया            Sep 19, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
एक तरफ हनीप्रीत का जादू तो दूसरी तरफ मोदी सरकार की चकाचौंध। एक तरफ बिना जानकारी किस्सागोई, दूसरी तरफ सारे तथ्यो की मौजूदगी में खामोशी। एक तरफ हनीप्रीत को कटघरे तक लाने के लिये लोकल पुलिस से लेकर गृहमंत्रालय तक सक्रिय, दूसरी तरफ इकानामी को पटरी पर लाने के लिये सक्रिय पीएमओ। एक तरफ हनीप्रीत से निकले सवालों से जनता का कोई सरोकार नहीं, दूसरी तरफ सरकार के हर सवाल से जनता का सरोकार। तो क्या पुलिस- प्रशासन, नौकरशाह-मंत्री और मीडिया की जरुरत बदल चुकी है या फिर वह भी डि-रेल है? 

क्योंकि देश की बेरोजगारी के सवाल पर हनीप्रीत का चरित्रहनन देखा-दिखाया जा रहा है। पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर हनीप्रीत के नेपाल में होने या ना होना भारी है। गिरती जीडीपी पर हनीप्रीत के रेपिस्ट गुरमीत के संबध मायने रखने लगे हैं। 10 लाख करोड़ पार कर चुके एनपीए की लूट पर डेरा की अरबों की संपत्ति की चकाचौंध भारी हो चली है। नेपाल में हनीप्रीत का होना नेपाल तक चीन का राजमार्ग बनाना मायने नहीं रख रहा है।

जाहिर है ऐसे बहुतेरे सवाल किसी को भी परेशान कर सकते हैं कि आखिर जनता की जरुरतों से इतर हनीप्रीत सरीखी घटना पर गृह मंत्रालय तक सक्रिय हो जाता है और चौबीसों घंटे सातों दिन खबरों की दिशा में हनीप्रीत की चकाचौंध, हनीप्रीत की अश्लीलता। हनीप्रीत के चरित्र हनन में ही दुनिया के पायदान पर पिछड़ता देश क्यों रुचि ले रहा है?  या उसकी रुची भी अलग अलग माध्यमो से तय की जा रही है? अगर बीते हफ्ते भर से हनीप्रीत से जुड़ी खबरों का विश्लेषण करें तो शब्दों के आसरे सिर्फ उसका रेप भर नहीं किया गया। बाकि सारे संबंधों से लेकर हनीप्रीत के शरीर के भीतर घुसकर न्यूजचैनलों के डेस्क पर बैठे कामगारों ने अपना हुनर बखूबी दिखाया। यूं एक सच ये भी है कि इस दौर में जो न्यूज चैनल हनीप्रीत की खबरों के माध्यय से जितना अश्लील हुआ उसकी टीआरपी उतनी ज्यादा हुई ।

तो क्या समाज बीमार हो चुका है या समाज को जानबूझकर बीमार किया जा रहा है? यूं ये सवाल कभी भी उठाया जा सकता था, लेकिन मौजूदा वक्त में ये सवाल इसलिये क्योंकि वैशाखनंदन  की खुशी भी किसी से देखी नहीं जा रही है। यानी चैनलों के भीतर के हालात वैशाखनंदन से भी बुरे हो चले हैं क्योकि उन परिस्थितियों को हाशिये पर धकेल दिया जा रहा है जो 2014 का सच था और वही सच कहीं 2019 में मुंह बाये खड़ा ना हो जाये।  

क्या सच से आंखमिचौली करते हुये मीडियाकर्मी होने का सुरुर हर कोई पालना चाह रहा है ?याद कीजिए 2014 की इकानामी का दौर जिसमें बहार लाने का दावा मोदी ने चुनाव से पहले कई-कई बार किया। लेकिन तीन साल बाद महंगाई से लेकर जीडीपी और रोजगार से लेकर एनपीए तक के मुद्दे अगर अर्थव्यवस्था को संकट में खड़ा कर रहे हैं तो चिंता पीएम को होना लाजिमी है। अब जबकि 2019 के चुनाव में डेढ बरस का वक्त ही बचा है-सुस्त अर्थव्यवस्था मोदी की विकास की तमाम योजनाओं को पटरी से उतार सकती है। क्योंकि 2014 में
इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह भी फेल नजर आ रहे थे।  

अब ये सवाल मायने नही रखते कि नोटबंदी हुई मगर 99 फीसदी नोट वापस बैंक आ गए। एनपीए 10 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया। खुदरा-थोक मंहगाई दर बढ़ रही है। उत्पादन-निर्माण क्षेत्र की विकास दर तेजी से नीचे जा रही है। आर्थिक विकास दर घट रही है। क्रेडिट ग्रोथ साठ बरस के न्यूनतम स्तर पर है। 

यानी सवाल तो इकानामी के उस वटवृक्ष का है,जिसकी हर डाली पर झूलता हर मुद्दा एक चुनौती की तरह सामने है। क्योंकि असमानता का आलम ये है कि दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में ही हैं। यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 19 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे सोने को मजबूर हैं। सरकार की रिपोर्ट कहती है करोडपतियो की तादाद तेजी से बढ़ रही है दो फ्रांसीसी अर्थशास्त्रियों थोमा पिकेती और लुका सॉसेल का नया रिसर्च पेपर तो कहता है कि भारत में साल 1922 के बाद से असमानता की खाई सबसे ज्यादा गहरी हुई है।

तो क्या हनीप्रीत सरीखे सवालों के जरिये मीडिया चाहे अनचाहे या कहें कि अज्ञानवश उन हालातों को समाज में बना रहा है जब देश का सच राम रहिम से लेकर हनीप्रीत सरीखी खबरों में खप जाये। स्क्रीन पर यदि अज्ञानता ही सबसे ज्यादा बौधिक क्षमता में तब्दील होती दिखायी देने लगे, तो ये महज खबरो को परोसने वाला थियेटर नहीं है बल्कि एक ऐसे वातावरण को बनाने की कोशिश है जिसमें चुनौतियां छुप जायें। क्योंकि अगर अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी तो देश को जवाब देना मुश्किल होगा और उस वक्त सबकी नजरें सिर्फ एक बात टिक जाएंगी कि मोदी ब्रांड बड़ा है या आर्थिक मुद्दे? 

यानी चाहे अनचाहे मीडिया की भूमिका भी 2019 के लिये ऐसा वातावरण बना रही है जहां हनीप्रीत भी 2019 में चुनाव लड़ लें तो जीत जाये।


 

 



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