बच्चों की दुनिया जैसी बनाई है वो झांकी परेशान करती है

खरी-खरी            Aug 16, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
14-15 अगस्त 1947, दुनिया के इतिहास में एक ऐसा वक्त जब सबसे ज्यादा लोगों ने एक साथ सीमा पार की, एक साथ शरणार्थी होने की त्रासदी को झेला, एक साथ मौत देखी और 1951 के सेंसस में जो उभरा उसके मुताबिक 72,26,660 मुस्लिमों ने हिन्दुस्तान छोड़ा। 72,95,870 हिन्दुओं और सिख ने पाकिस्तान छोड़ा। यानी डेढ करोड़ शरणार्थी और दर्द के इस उभार के बीच 22,30,000 लोग मिसिंग कैटेगरी में डाल दिये गये। यानी बिना युद्ध इतनी मौतों को भी दुनिया ने विभाजन की रेखा तले देखा और दर्द की इस इंतेहा को तब बिखरे बचपन ने भविष्य के सुनरहरे सपनों तले देखना शुरु किया।

याद कीजिये 1953 में फिल्म बूट पालिश का गीत, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, मुठ्ठी में है तकदीर हमारी...आने वाले दुनिया में सब के सर पे ताज होगा...न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा...बदलेगा ज़मना ये सितारों पे लिखा है। लेकिन बदला क्या? क्योंकि उस गीत को गाते नन्हे मुन्नों की उम्र आज 75 पार होगी। तो आजादी के 70 बरस बाद क्या वाकई तब के नन्हे- मुन्नो ने जिस दुनिया के सपने पाले वह आज की दुनिया दे पा रही है। ये सब सपना है क्योंकि मौत दर मौत ही बच्चों का सच हो चला है।

गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों का नरसंहार तो एक बानगी भर है। क्योंकि बच्चों के जीने के लिये हमने-आपने छोडी कहां है दुनिया। हालात बदतर हैं, तस्वीर खौफनाक है। आंकड़े डराने वाले हैं। 7,30,000 शिशु जन्मते ही महीने भर के भीतर मर जाते हैं। 10,50,000 बच्चे एक साल ही उम्र भी नहीं जी पाते। यानी एक तरफ इलाज की व्यवस्था नहीं तो बच्चों की मौत और दूसरी तरफ प्रदूषण। प्रदूषण से 5 बरस तक के 2,91,288 बच्चे हर बरस मरते हैं। 14 बरस के 4,31,560 बच्चो की मौत हर बरस होती है।

यानी रखपुर में आक्सीजन सप्लाई रुकी तो 60 बच्चों की मौत ने इन्सेफलाइटिस को लेकर जुझते हालात पर हर किसी का ध्यान केन्द्रित कर दिया। लेकिन 2016 में ही निमोनिया-डायरिया से 2,96,279 बच्चों की मौत डब्ल्यूएचओ के आंकडे में सिमट कर रह गई। सवाल यह है कि बच्चों पर ध्यान है कहां किसी का? क्योंकि दुनिया में भूखे बच्चो की तादाद में भारत का नंबर 97 वां है। यानी 118 देशों की कतार में नीचे से 21 वां। तो विकास की कौन सी रेखा खींची जा रही है? और किसके लिये अगर वह लकीर बच्चों के लिये लक्ष्मण रेखा समान है? क्योंकि डब्ल्यूएचओ की ही रिपोर्ट कहती है कि देश में 39 फीसदी कुपोषित बच्चे वैसे हैं, जिनका विकास रुक गया है। 40 फीसदी बच्चों की उम्र 5 बरस पार कर नहीं पाती। 50 फीसदी बच्चे स्कूल रेगुलर जा नहीं पाते।

तो फिर कौन सी दुनिया बच्चों के लिये हम बना रहे हैं? या उनके लिये छोड़े जा रहे हैं? क्योकि आजादी के ठीक बाद तो बच्चों ने सपने सुनहरे भविष्य के देखे थे। लेकिन किसे पता था जिस दौर में भारत में सबसे ज्यादा बच्चे होगें उस दौर में उनकी तरफ ध्यान देने वाली व्यवस्था ही नहीं होगी। फिलहाल 14 बरस तक के कुल बच्चों की जनसंख्या 35,57,96,866 है और इसी दौर में अपने मरे हुये बच्चों को गोद में उठाये हुये मां -बाप की तस्वीर 70 बरस की आजादी की पूर्व संध्या पर भी हम आप देखेंगे। क्योंकि अस्पताल बदहाल है, तो फिर हेल्थ सर्विस कितनी बदहाली में है ये भी समझ लें। क्योकि बदहाल हेल्थकेयर सिस्टम ने इंसेफेलाइटिस को महामारी बना दिया और इसी हेल्थकेयर सिस्टम के आइने में ये तस्वीरें अब हमें चौंकाती भी नहीं हैं। कहीं एबुलेंस की कमी से मरते लोग तो कहीं शव को कंधे पर ढोता बाप-ये तस्वीरें रोज का हिस्सा हो गई हैं।

दरअसल, सच ये है कि हेल्थकेयर कभी किसी सरकार की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। आलम ये कि 27 फिसदी मौत के पीछे इलाज ना मिलना है। यानी देश में एक तरफ सरकारी हेल्थ सिस्टम खुद ही आईसीयू में है और दूसरी तरफ मेडिकल बीमा पर प्राइवेट बीमा पर इलाज करा पाने की स्थिति पैसे वालो की है। जबकि 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी के पास मेडिकल बीमा नहीं है और देश में सरकारी इलाज की सुविधा का आलम है क्या तो, 1700 मरीजों पर एक डाक्टर है। 61,011 लोगो पर एक अस्पताल है, 1833 मरीजो के लिये एक बेड उपलब्ध है।

यानी अस्पताल, डाक्टर,दवाई, बेड, आक्सीजन सभी कुछ के हालात अगर त्रासदी दायका है तो फिर सरकार हेल्थ पर खर्च क्यो नही करती। फिलहाल भारत जीडीपी का सिर्फ 1.4 फीसदी खर्च करता है, जबकि अमेरिका 8.3 फीसदी और दुनिया के 188 देशो की रैकिंग में भारत का नंबर 143 वां आता है। देश का आखरी सच यह है कि 30 करोड लोग तो चाह कर भी दवाई खरीद नहीं सकते।

तो आइए जरा समझ लीजिए कि बच्चों के लिए ये देश क्यों रहने लायक नहीं है या कहें हमने इस लायक छोड़ा नहीं कि बच्चें यहां चैन की सांस ले सकें। क्योंकि सच ये है कि देश में गंदा पानी पीकर डायरिया होने से हर साल करीब 15 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ताहालत के चलते छह साल तक के 2 करोड़ तीस लाख बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं।

आलम ये कि हर साल 10 साल से ज्यादा बच्चों की मौतें कुपोषण से हो जाती हैं। भारत में हर साल 10 लाख से ज्यादा मौतें वायु प्रदूषण के चलते हो जाती हैं,जिसमें आधे से ज्यादा बच्चे हैं। शिशु मृत्य दर के मामले में भारत का हाल इतना खराब है कि प्रति हजार बच्चों में 58 पैदा होते ही मौत के मुंह में चले जाते हैं। जबकि विकसित देशों में ये आंकड़ा 5 से भी कम है और 12 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल ऐसी बीमारियों से मारे जाते हैं, जिनका इलाज संभव है।

यूं इस देश पर गर्व करने लायक बहुत कुछ है लेकिन बच्चों की दुनिया जैसी बनाई है वो झांकी परेशान करती है। क्योंकि 50 के दशक का गीत आओ बच्चो तुम्हे दिखाये झांकी हिन्दुस्तान की....आप सुन कर खुश हो सकते है। लेकिन सच तो ये है ,देश में पांच से 18 साल की उम्र तक के 3 करोड़ 30 लाख बच्चे बाल मजदूरी करते हैं। देश में 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों को अब तक स्कूल जाना नसीब नहीं है। जिन बच्चों के लिए स्कूल जाना मुमकिन है-वो पढ़ाई का दबाव नहीं सह पा रहे।

आलम ये है कि हर साल 25 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ाई के दबाव में खुदुकशी कर रहे हैं। देश में हर आठ मिनट पर एक बच्चे का अपहरण हो जाता है। दरअसल, भारत में बचपन खतरे में है, और इस पर ध्यान देने वाला कोई नहीं। तो दावे भले कुछ भी हों लेकिन सेव द चिल्ड्रेन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बचपन खासा खतरे में है। हेल्थ , शिक्षा , मजदूरी , शादी , जन्म , हिसां सरीखे 8 पैमाने पर सेव दे चिल्टेरन की लिस्ट में भारत म्यांमार, भूटान, श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116वें स्थान पर है।

 



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