पंचतंत्र की जगह जनता के बीच प्रपंचतंत्र के अमल की कोशिश

खरी-खरी            Aug 29, 2019


प्रकाश भटनागर।
भविष्य की कुछ आशंकाएं खुलकर सामने आ गयी हैं। इसी आगत को लेकर बेहद मामूली तौर पर ही सही, कुछ आशा का संचार भी हो रहा है। मामला पूर्व भाजपा विधायक सुरेंद्र नाथ सिंह से संबद्ध है।

आशंका इस बात की कि पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू होने की सूरत में प्रदेश में खाकी का और भी काला चेहरा सामने आ सकता है। आशा यह कि खेमों में विभाजित प्रदेश भाजपा सिंह प्रकरण के बहाने एकजुट होती दिखने लगी है। हालांकि फिलहाल मामला बेहद औपचारिक एकता वाला ही है।

आईजी योगेश देशमुख से पहला परिचय हुआ, उस समय वह भोपाल स्थित बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार बनाये गये थे। तब उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए एक पृथक बिजली घर बनाने का प्रस्ताव दिया था।

देशमुख की इस पद से विदाई हुई और विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद द्वारा यह प्रस्ताव कचरे की टोकरी में डाल दिया गया। परिषद का मानना था कि यह घोर अव्यवहारिक पेशकश है। इस कार्यकाल के बाद पहली बार भोपाल में पुन: पदस्थ किये गये देशमुख के हाथ में अब पुलिस का डंडा है। इसलिए वह पुलिसिया तरीके से एक घोरतम अव्यवहारिक/अलोकतांत्रिक प्रस्ताव लागू करने पर तुल गये हैं।

जी हां, मामला जन आंदोलन करने पर जुर्माना वसूले जाने वाला ही है। देशमुख की इस नीयत की पहली नीयति सुरेंद्र नाथ सिंह झेल सकते हैं। जनता के हक में आंदोलन करने के चलते उनसे करीब 23 लाख रुपए के जुर्माने के नोटिस की तैयारी है।

वैसे यह सब सिंह के लिए भले ही असुविधा का प्रतीक हो, लेकिन इसे प्रदेश की शेष जनता के लिए शुभ संकेत माना जाना चाहिए। क्योंकि इससे एक झटके में साफ हो गया है कि यदि ऐसी पुलिस को कमिश्नर सिस्टम की सौगात भी मिल गयी तो करेले पर चढ़ी यह नीम किस कदर समूचे प्रदेश में कसैलेपन का संचार कर देगी।

संभवत: मुख्यमंत्री कमलनाथ को इसकी आशंका थी। इसीलिए पंद्रह अगस्त से इस व्यवस्था को लागू करने की कोशिश को उन्होंने परवान चढऩे नहीं दिया। अब जन आंदोलनों को लेकर देशमुख की यह जुर्माना थ्योरी तो नाथ को यह साफ जता ही चुकी होगी कि पुलिस कमिश्नर प्रणाली को ठंडे बस्ते में डालकर उन्होंने कितनी बड़ी समझदारी का परिचय दिया है।

यदि मौजूदा आईजी की दमनकारी सोच को इस प्रणाली का कवच पहना दिया गया तो राज्य में पुलिसिया कारनामों की फेहरिस्त कितनी बड़ी और भयावह हो जाएगी, इसकी कल्पना मात्र से सिहरन हो जा रही है।

क्योंकि देशमुख महाशय लोकतंत्र में मिले आंदोलन के हक को ही कुचलने पर आमादा हैं। कोई उनसे पूछे कि क्या वह समानांतर अदालत चला रहे हैं?

जुर्माने की इस व्यवस्था से तो उनकी ऐसी ही मंशा प्रतिध्वनित होती है। आप पुलिस बनकर ही रहिए। बिना अनुमति आंदोलन हो तो आरोपियों को हिरासत में लें। गिरफ्तार करें। अदालत में पेश करें। वहां से तय होने दें कि सजा क्या होना है।

भला आप कौन होते हैं कि जज बनकर सजा भी निर्धारित कर दें! आईजी को समझना चाहिए कि उनके हाथ में पुलिस का डंडा है, अदालत का मैलेट (हथौड़ा) नहीं।

आज के अखबार बताते हैं कि श्रीमान देशमुख ने बाल मित्र पुलिस स्टेशनों में बहके बच्चों के लिए तेनालीराम और पंचतंत्र की कहानी सुनाने का प्रबंध किया है। प्रयोगवादी होना अच्छा है। लेकिन आईजी को चाहिए कि ऐसे प्रयोग अपनी सीमा-रेखा में ही करें।

इससे आगे बढक़र पंचतंत्र की जगह जनता के बीच प्रपंचतंत्र के अमल की कोशिश न करें। उन्हें यह भी याद दिला दें कि पंचतंत्र के रचियता पंडित विष्णु शर्मा ने इस संग्रह में कई ऐसी कहानियां भी लिखी हैं, जिनमें ताकत के गुरूर के बुरे नतीजों के प्रति आगाह किया गया है।

यदि देशमुख जुर्माने की जिद पर यूं ही कायम हैं तो बेहतर होगा कि बहके हुए बच्चों से पहले बहकती हुई पुलिस को पंचतंत्र की ये कहानियां जरूर सुना दें।

भाजपाइयों की तंद्रा भंग होती दिख रही है। दिखावे के तौर पर ही सही, लेकिन राज्य के कुछ नेताओं ने कलेक्टर से भेंटकर सिंह के खिलाफ की जा रही कार्रवाई की निंदा की है। इस मसले पर कल तक बिखरी-बिखरी दिख रही भाजपा के तार फिर जुड़ते दिखने लगे हैं।

उसकी एकता का वह स्वेटर फिर से आकार लेता दिख रहा है, जिसके रुएं दिखने लगे थे और जिसका ऊन उधड़ने लगा था। मीडिया तथा बड़े नेताओं के दबाव में ही सही, नेताओं ने सिंह के पक्ष में मिलकर आवाज उठाई है और इसी बहाने जता दिया है कि उनके भीतर का असली भाजपाई अब तक पूरी तरह चुका नहीं है।

उसकी क्षमताओं को स्वार्थ की दीमक ने अभी पूरी तरह चट नहीं किया है। उनकी एकता की नींव को व्यक्तिगत आकांक्षाओं के चूहे अभी पूर्णत: खोखला नहीं कर सके हैं।

अंत में एक बात याद आ रही है। बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय में देशमुख की नियुक्ति एक प्रयोग के तहत की गयी थी। तब सरकार आईपीएस अफसरों को वहां की जिम्मेदारी देकर इस संस्थान के हालात सुधारने की कोशिश कर रही थी।

देशमुख विश्वविद्यालय के आखिरी आईपीएस रजिस्ट्रार साबित हुए। उनके बाद शासन ने इस प्रयोग को जारी रखने का साहस नहीं किया।

या यूं भी कह सकते हैं कि इसे लागू रखे रहने में रुचि नहीं ली। क्या इसकी वजह देशमुख के निर्णय रहे? जुर्माने वाले घटनाक्रम देखकर लगता है कि ऐसा ही हुआ होगा।

 



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