स्वास्थ्य व्यवस्था को कमजोर करतीं सरकारी-निजी साझेदारियां

खास खबर            Jan 20, 2019


राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश में पिछले पांच सालों में 'स्वास्थ्य सूचकांक' की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे- 4 के अनुसार प्रदेश में संस्थागत प्रसव का आंकड़ा तो 80.8 प्रतिशत तक पहुँच गया है, परन्तु अभी भी शिशु मृत्यु दर 51 है और पांच वर्ष में गुजर जाने वाले बच्चों का आंकड़ा 65 है।

आज भी प्रदेश की 15 से 49 वर्ष की 52.5 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया ) से ग्रस्त हैं। 'नीति आयोग' के अनुसार मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ में मातृ मृत्यु दर 173 है।

मध्यप्रदेश में डाक्टरों की कमी एक बड़ी समस्या है। प्रदेश के 254 सरकारी अस्पतालों में सर्जन तो हैं, परन्तु एनेस्थीसिया विशेषज्ञ नहीं हैं, विशेषज्ञ डाक्टरों के कुल 3195 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें से केवल1063 पदों पर नियुक्तियां हुई हैं। प्रसूति रोग, शिशु रोग,एनेस्थीसिया विशेषज्ञ के 1386 पद स्वीकृत हैं, परन्तु महज 419 पदों पर डाक्टर कार्यरत हैं।

वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश शासन ने 27 जिला अस्पतालों को निजी कंपनी को सौंपने की तैयारी कर ली थी। इसके तहत आलीराजपुर जिला अस्पताल और जोबट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को गुजरात के 'दीपक फउंडेशन' को हस्तांतरित करने का अनुबंध और नियमों की अनदेखी कर सरकारी पैसा देने का निर्णय किया गया था।

राज्य में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे संगठन 'जन स्वास्थ्य अभियान' (जेएसए) ने इसकी जांच करवाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की थी।

कुछ वर्ष पूर्व 'दीनदयाल स्वास्थ्य गारंटी योजना' के अंतर्गत सरकारी दवाएं व जांच मुफ्त करवाने की घोषणा की थी, परन्तु अधिकांश जिलों में खून, ब्लड-शुगर, अल्ट्रा-साउंड जैसी मूलभूत जांचे उपलब्ध नहीं हैं।

अनेक 'सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों' पर तो सोनोग्राफी मशीन तक उपलब्ध नहीं है। मई2018 में बड़वानी जिले में 'जेएसए' के एक अध्ययन से पता चला था कि एमआरआई, सीटी स्कैन व अन्य मंहगी जांचें जिन्हें निजी संस्थानों को आउटसोर्स किया गया था, उनका विस्तृत विवरण तक स्वास्थ्य विभाग के पास उपलब्ध नहीं था।

इंदौर के सबसे बड़े सरकारी चिकित्सालय 'महाराजा यशवंतराव अस्पताल' में निजी अस्पतालों से भी बेहतर सीटी स्कैन और एमआरआई जाँच की सुविधा मिल रही है, लेकिन उन्हें अनदेखा कर निजी क्लीनिकों, अस्पतालों की कमाई के लिए उन्हें आउटसोर्स किया गया था।

पीपीपी मॉडल के अंतर्गत शुरू किए गए डायग्नोस्टिक सेंटर को बाजार भाव से40 फीसदी अधिक तक फीस लेने की छूट दी गयी थी, पर इन सेंटरों पर ना तो कोई रेट लिस्ट लगायी गई है और ना ही कम पैसों में सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही हैं।

मध्यप्रदेश के अधिकांश अस्पतालों में कम गुणवत्ता वाली दवाएं बिना गुणवत्ता देखे आवंटित कर दी गयी थीं जिनकी जाँच आवश्यक है।

मध्यप्रदेश सरकार ने 2012 में अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल में लिप्त डाक्टरों की विभागीय जाँच की थी, परन्तु अभी तक उन डॉक्टरों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। मातृ मृत्यु-दर व शिशु मृत्यु की डेथ ऑडिट बंद कर दी गयी है। 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन' के अंतर्गत 'स्वास्थ्य योजना' पिछले 13 सालों से बन नहीं पाई है।

ऐसे में जरूरी है कि जन-स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के सभी रूपों को रोका जाये और विभिन्न प्रकार की 'सरकारी-निजी साझेदारियां (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप), जो सार्वजनिक प्रणाली को कमजोर कर रही हैं, को खारिज किया जाए।

जो सार्वजनिक संसाधन निजी संस्थानों को मजबूत करने में लगे हैं, उनका उपयोग सार्वजनिक सेवाओं को बढ़ाने और स्थायी रूप से सार्वजनिक पूंजी का निर्माण करने के लिए किया जाए। सरकार को चाहिए कि वह व्यवसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा पर व्यापक नीति निर्माण कर उस पर अमल करे।

 



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