एक बार सिर्फ पत्रकार बनकर देखिए, पक्षकार या ट्रोलर नहीं

मीडिया            Jun 26, 2019


दीपक गोस्वामी।
जब पत्रकार खुद को 'पक्षकार' या ट्रोलर में तब्दील कर लेंगे तो नेता उन्हें उनकी औकात ही तो याद दिलाएंगे.

उपरोक्त शब्द केवल 'प्रो बीजेपी' पत्रकारों पर‌ लागू नहीं होते, इसमें 'एंटी बीजेपी', 'प्रो अपोजिशन' या 'एंटी मोदी' पत्रकारों की भी जमात शामिल है.

मैं हमेशा कहता हूं कि पत्रकार को निष्पक्ष होना चाहिए. पत्रकार को व्यवस्था, राजनीति या राजनेता के खिलाफ अपना विरोध सभ्य और तार्किक ढंग से साक्ष्यों के साथ दर्ज कराना चाहिए.

लेकिन जब उपरोक्त दोनों में से किसी भी एक शर्त का उल्लंघन होगा तो पत्रकारिता की साख दांव पर‌ लगनी ही लगनी है. और जब साख दांव पर‌ लगेगी तो आपको हल्के में ही तो लिया जाएगा.

इसे ऐसे समझिए कि जब पत्रकार का 'राजनीतिक पक्ष' होगा तो वह जिस दल या नेता के लिए पक्षकारी कर रहा है उसकी नजर में तो पत्रकार जमात चाटुकार होगी, जिसकी औकात केवल नेताओं के द्वारा फेंकी बोटियों पर दुम हिलाना हो.

वहीं उस दल या नेता के विपक्षियों के लिए भी पत्रकारिता का मतलब यही निकलेगा.

पत्रकारों की एक ऐसी छवि बन जाती है कि ये तो बिकाऊ दलाल और राजनीतिक शह प्राप्त पालतू कुत्ते हैं, इनकी औकात क्या है?

वहीं, दूसरी स्थिति वह है जहां पत्रकार सत्ता के खिलाफ ताल ठोकने का दम भरकर कहता है कि मैं लोकतंत्र के लिए लड़ रहा हूं. लेकिन उसे लोकतंत्र को खतरा केवल एक ही दल से दिखता है.

दूसरा दल चाहे कुछ भी अनर्थ करे, वह आंखें मूंदे रहता है. सत्ता के खिलाफ उसके विरोध में तथ्य नदारद हो जाते हैं, नफरत उस चरम पर पहुंच जाती है जहां एक पत्रकार के लिए जरूरी 'भाषा की शालीनता' उसके लिए मायने नहीं रखती. वह गली के टपोरियों की तरह गालियां देता है, खून-खराबे और हिंसा के समर्थन में होता है. बिना तथ्यों के आरोप लगाता है और व्यंग्य के नाम पर कपिल शर्मा जैसे घटिया जोक लिखता है.

इस स्थिति में भी पत्रकार को नेता नगरी गंभीरता से नहीं लेती. क्योंकि उनके पास तब शब्द होते हैं कि फलां पत्रकार एक एजेंडे पर चल रहा है और केवल हमारे ही विरोध में है.

नेता के पास कहने को होता है कि फलां पत्रकार की भाषा का स्तर तो देखिए इसलिए वह गंभीरता से लेने योग्य नहीं है. उसका तो काम ही गाली-गलोच है.

और नेता सही भी कहता है. क्योंकि गाली-गलोच पत्रकारों का काम नहीं है. यह तो ट्रोलर करते हैं. टपोरी करते हैं. पत्रकारिता हिंसा की भी वकालत करने की इजाजत नहीं देती, पर‌ जब आप भाजपा की हिंसा का जबाव‌ देने के लिए तृणमूल कांग्रेस की हिंसा को सही ठहराते हैं तो उधर ही आप पत्रकारिता के सिद्धांतों को बेच खाते हैं, आप पत्रकार नहीं रह जाते हैं.

पत्रकारिता में एक व्यक्ति इसलिए ही आता है कि वह व्यवस्था के खिलाफ लोकतांत्रिक, संवैधानिक और कानूनी तरीके से अपना विरोध दर्ज करा सके. लेकिन एक पत्रकार जब हिंसा का समर्थक हो जाए तो सवाल उठना लाजमी है कि भाई हिंसा से ही व्यवस्था बदलनी थी तो पत्रकारिता में क्यों आ रहे हो, जाओ बंदूक उठाओ.

उपरोक्त दोनों हालातों का खामियाजा हम जैसे उन पत्रकारों को भी भोगना पड़ता है जिन्होंने अपनी निष्पक्षता नीलाम नहीं की है और पत्रकारिता के सिद्धांतों को अपने कंधों पर ढोने का प्रयत्न कर रहे हैं.

इसलिए पत्रकारों को अपनी खोई इज्जत वापस पानी है तो पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण निष्पक्षता के सिद्धांत का पालन करना ही होगा.

जब पत्रकार इस सिद्धांत का पालन करेंगे तो उन्हें न तो कोई दल खरीद सकेगा और न कोई विचारधारा अपना बना सकेगी. उन पर आरोप लगाने के लिए वर्तमान व्यवस्था या‌ नेताओं को कोई शब्द नहीं मिलेंगे.

दूसरा फायदा यह होगा कि जब एक पत्रकार निष्पक्षता के सिद्धांत का पालन करेगा तो उसकी भाषा में संयम और शालीनता आएगी क्योंकि तब वह हर दल को समान दृष्टि से देखेगा. किसी भी दल की अच्छी नीति की सराहना और बुरी नीति की आलोचना कर सकेगा. इससे किसी विशेष दल या विचारधारा के प्रति उसके अंदर का पूर्वाग्रह खत्म होगा, नफरत खत्म होगी. उसकी सोचने-समझने की क्षमता में विकास होगा जिससे वह जुबां से जहर उगलने की जगह तथ्यों पर बात करेगा.

बस आपसे यही गुजारिश है कि एक बार पत्रकार तो बनकर देखिए, पक्षकार या ट्रोलर नहीं. फिर देखना कितना सम्मान पाते हो.

फेसबुक वॉल से।

 



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