जनता पर विश्वास फिर भी अविश्वास पर चर्चा नहीं!

खरी-खरी, राजनीति            Jun 26, 2018


ममता यादव।
यूं मध्यप्रदेश सरकार यह दावा करते नहीं अघाती कि जनता पर उसे विश्वास है, जनता का प्यार उसे मिला है, जनता उसके साथ है। ठीक भी है और परम सत्य भी। जनता ने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को 15 साल सरआंखों पर रखा। आगे भी रखे इससे इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई कितना भी नाराज हो या एंटीइन्कंबेंसी की बात करें पर ये सच है कि भाजपा की सरकार ने कांग्रेस की सरकार से बेहतर प्रदर्शन किया है, काम किया है।

मूलभूत सुविधाओं को तरसती जनता को बदले नेतृत्व में एक साल में तीन मुख्यमंत्री मिले थे मगर जब शिवराज आये तो वे लोगों को अपने से लगे और उन्हें जनता का मुख्यमंत्री कहा जाने लगा। शिवराज पर जनता का भरोसा ही था कि उसने उन्हें दो बार और मौका दिया।

ये सब लिखने का मकसद यहां सिर्फ एक सवाल है कि जब आपको जनता पर विश्वास है और जनता को आप पर तो विधानसभा के पावस सत्र में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा क्यों नहीं करा ली गई? दूसरा क्यों ताबड़तोड़ विधेयक, अध्यादेश और अनुपूरक बजट बिना किसी चर्चा के पास करा लिये गये। जब विधेयकों पर चर्चा के लिए 12 घंटे का समय अध्यक्ष ने तय किया था तो क्यों नहीं लिया गया समय?

पहले दिन की कार्रवाई तो विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गई थी। मगर आज तो सत्तापक्ष ने ही इमरजेंसी का मुद्दा उठाकर अंत तक हंगामा मचाये रखा। फिर नारेबाजी, आरोप—प्रत्यारोप भी हुये और बीच में नीलम मिश्रा के एपीसोड पर दोनों दलों के विधायकों की भूमिका देखते ही बन रही थी।

अध्यक्ष आसंदी से कहते नजर आये कि नाम मांगे गये थे मगर विपक्ष ने दिए नहीं उधर विपक्ष के नेता अजय सिंह बकायदा पत्रकार वार्ता में कहते हैं कि हमारे दो विधायक जब समिति की बैठक में शामिल थे और सत्तापक्ष के मंत्रियों से विधेयक मांगे तो वे एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। ऐसे में सवाल उठता है कि असल गड़बड़ हो कहां रही थी? अब नेता प्रतिपक्ष सड़क पर तीन दिन 11 बजे से 1 बजे तक अविश्वास प्रस्ताव के बिंदु मीडिया के सामने रखेंगे।

चलिए मान लिया जितनी आपकी गलती उतनी विपक्ष की गलती। मगर आज सदन की कार्रवाई देख रहे हर प्रत्यक्षदर्शी के मन में ये सवाल हैं और तकलीफ भी कि लोकतांत्रिक सरकारों में ससंदीय मंच पर ऐसे भी प्रदर्शन किए जाते हैं। इसमें आप भाजपा विधायक नीलम मिश्रा का नाटकीय घटनाक्रम भी जोड़ सकते हैं। कुछ नये विधायकों, कुछ पहली बार सदन की कार्रवाई देखने आये लोगों का सवाल था ऐसे चलती है विधानसभा?

राजनीतिक विशेषज्ञों और वरिष्ठ पत्रकारों की मानें तो मध्यप्रदेश विधानसभा के पाँच दिन के पावस सत्र में बीते दो दिन और उसमें भी जो आज आखिरी दिन घटा वो संसदीय परंपरा के काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया।

यूं तो विपक्ष वैसे भी मजबूत स्थिति में नहीं था मगर आज विपक्ष बहुत लाचार और बेबस नजर आया। अभी तक विपक्ष पर सत्र न चलने देने के आरोप लगते रहे हैं,प्रतीत हुआ कि कहीं न कहीं सरकार भी यही चाहती थी और शायद पाँच दिन का सत्र दो दिन में ख़त्म कर दिया।

इसे सरकार की हठधर्मी भी कहा जा सकता है। हठधर्मी इसलिए कि सदन का कामकाज निपटाने के लिए जिस तरह की जल्दबाजी दिखाई गई, वो निहायत असंसदीय है। जब विपक्ष सदन चलाना चाहता था तो उससे बचा क्यों गया? इस तरह की कार्रवाई किसी संदेह की तरफ उंगली उठाती है। आज ये सवाल विपक्ष ही नहीं हर वो अदमी पूछ रहा है जो थोड़ा बहुत लोकतांत्रिक संसदीय परंपरा, नियमों की जानकारी रखता है।

आखिर को साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए यह सत्र मौजूदा विधानसभा का अंतिम सत्र था। सरकार ने एक के बाद 17 विधेयक सदन में पेश किए, 7 अध्यादेश रखे गए, अनुपूरक बजट पास करवा लिया गया। ये सब विपक्ष की सदन में मौजूदगी मगर बिना चर्चा के हुये। नियमों के हवाले दिये गये आपत्ति की गई कुछ सदस्यों के द्वारा मगर हां की जीत होती रही।

विधानसभा सचिवालय को 1376 प्रश्न, 236 ध्यानाकर्षण, 3 स्थगन, 17 अशासकीय संकल्प और 36 शून्यकाल की सूचनाओं के अलावा 15 याचिकाएं भी प्राप्त हुईं हैं। इन सबको अनदेखा किया गया। आखिर इसके पीछे कारण क्या था? गौर करने वाली बात यह भी है कि इस सत्र में प्रश्नकाल उंगलियों पर गिनने लायक मिनटों का चला।

यह 14 वीं विधानसभा का 17 वां सत्र था। इसके बाद विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। यही कारण है कि विपक्ष ने अपने तरकश में कई तीर तैयार रखे थे, ताकि वह विधानसभा में सरकार की घेराबंदी कर सके। सरकार जिन सरकारी योजनाओं की सफलता के दावे करती है, उनकी विफलता के कई दस्तावेजी प्रमाण विपक्ष के पास थे, जो धरे रह गए। इसके अलावा किसानों, युवाओं, महिलाओं के मुददों को लेकर सरकार को लपेटने का भी प्रयास था, ताकि चुनाव में उसका फायदा उठाया जा सके।

ई—टेंडर घोटाले के खुलासे के बाद सरकार को पहले से ही उम्मीद थी कि विपक्ष हंगामा करेगा और आसानी से हार नहीं मानेगा। उम्मीद के मुताबिक मानसून सत्र की शुरुआत हंगामेदार ही हुई। हंगामे के बीच कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया और आसंदी से अनुमति मांगी। विधानसभा स्पीकर ने कहा कि विपक्ष की सूचना पर प्रस्ताव को चर्चा में लेने पर विचार होगा।

इससे पहले नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में मानसून अवधि बढ़ाए जाने की मांग भी की। कांग्रेस विधायकों ने विधानसभा के बाहर भी जमकर नारेबाजी की। आशय यह कि सरकार को अहसास हो गया था कि यदि सरकार और विपक्ष आमने-सामने आए, तो उसे जवाब-तलब के हालात से गुजरना पड़ेगा।

कांग्रेस ने अपने अविश्वास प्रस्ताव के जरिए भाजपा सरकार से सदन में पांच साल का हिसाब मांगा था। इस अविश्वास प्रस्ताव में सरकार के खिलाफ तीन दर्जन आरोप के बिंदु शामिल थे। इसमें सरकारी विभागों में गोलमाल, भ्रष्टाचार, कुपोषण, कानून व्यवस्था जैसे कई मुद्दे शामिल किए गए थे। अविश्वास प्रस्ताव में ई-टेंडरिंग घोटाले समेत प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति, महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार, किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या, उद्यानिकी विभाग में हुए घोटाले, प्रदेश में महंगी बिजली खरीदी, नर्मदा सेवा यात्रा और प्याज घोटाले का भी जिक्र था।

सदन में सरकार को सारे मुद्दों का जवाब देना, पड़ता जो चुनाव से पहले भारी पड़ सकता था। कर्ज में डूबे प्रदेश को भी कांग्रेस ने मुद्दा बनाया था। जबकि, घोषणावीर सरकार की तैयारी विकास कार्यो के लिए 11 हजार 190 करोड़ सप्लीमेंट्री बजट पेश करने की थी। सरकार ने तो योजनाबद्ध तरीके से अपना सारा काम निपटा लिया, पर विपक्ष को किनारे कर दिया।

इस पूरे घटनाक्रम में जो कुछ हुआ उसने सरकार को तात्कालिक रूप से बचा तो लिया, लेकिन जो सवाल खड़े किए हैं, उनके जवाब उसे चुनाव में देना पड़ेंगे।

सवाल फिर भी वहीं का वहीं है जनता पर विश्वास था तो क्यों नहीं की अविश्वास पर चर्चा? सवाल तो उठेंगे मगर उससे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऐसी जनता का प्रतिशत बहुत कम है जिसे ये राजनीतिक गुलाटियां, कलाबाजियां समझ आती हैं। तो निश्चिंत रहिये और इंतजार करिए असली परीक्षा का।

 



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