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सिमटती सदन की कार्यवाहियां, भारी बहुमत और चुनाव

राजनीति            Dec 27, 2021


राकेश दुबे।

देश में विधान सभा और संसद के सत्रों का समयपूर्व होते सत्रावसान, नागरिकों में अनेक प्रकार के सवाल पैदा कर रहे हैं|

इन सवालों में एक सवाल यह भी है कि इन सदनों को जब सत्तारूढ़ दलों की मनमर्जी से ही चलना है तो किसी एक राजनीतिक दल को भारी बहुमत क्यों दें ?  

साथ ही प्रतिक्रिया स्वरूप यह भी कहा जा रहा है चुनाव का ढकोसला क्यों ?  

मध्यप्रदेश में विधान सभा का सत्र और देश की संसद मानसून सत्र के बाद शीतकालीन सत्र समय से पहले खत्म हो गये|  

कारण सदन में होने वाले हंगामे थे, वरिष्ठ लोगों का कहे जाने वाले  सदन राज्यसभाकी कार्यवाही तो मिसाल बन गई|

इस सदन में विभिन्न राजनीतिक दलों के बारह सदस्यों को पूरे सत्र के लिए निलंबित करने के बाद जो टकराव उत्पन्न हुआ, वह आखिर तक चलता रहा।

सत्र के आखिरी दिनों में तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन के निलंबन के बाद विवाद ज्यादा ही तूल पकड़ गया। लखीमपुर खीरीकांड में गृह राज्यमंत्री को हटाये जाने के मुद्दे पर विपक्ष खासा आक्रामक रहा।

अंतत: इस विवाद के बीच सत्र समय से पहले ही समाप्त करने की घोषणा कर दी गई।

इस हंगामेदार सत्र में लोकसभा के लिये निर्धारित समय में से 24 दिनों में 18 बैठकों के माध्यम से 83  घंटे और 12  मिनट का काम हुआ, जबकि 18 घंटे व 48 मिनट का नुकसान हुआ। वहीं राज्यसभा के लिये निर्धारित 95 घंटे और 6 मिनट की निर्धारित बैठक के समय में सदन में केवल 45 घंटे और 34 मिनट में कार्य निर्वहन किया गया।

जहां यह सत्र तूफानी और असामान्य रूप से टकराव वाला था, वहीं सरकार ने इसे अपनी सफलता के रूप में प्रस्तुत किया। सवाल यह है की सदनों को मनमर्जी से, मनचाहे समय तक चलाना ही सफलता है तो चुनाव और प्रजातंत्र की दुहाई क्यों?

साफ दिखा कि सरकार ने व्यवधान डालकर बिना बहस के कृषि कानूनों को निरस्त तथा विधेयकों को पारित करने का अलोकतांत्रिक काम किया।

पहले ही दिन बारह सांसदों के निलंबन को वे सरकार की रणनीति का हिस्सा बताते रहे। यह विडंबना ही है कि विश्वास बहाली व टकराव टालने की गंभीर कोशिश होती नजर नहीं आई। वहीं विपक्ष ने भी सदन के बहिष्कार को चुना , उसे तीखे प्रश्नों व आपत्तियों के जरिये गंभीर विमर्श में भाग लेना चाहिए था।

आदर्श स्थिति  में तो देश- प्रदेश  के भविष्य से जुड़े गंभीर मुद्दों पर उभय पक्ष के नेताओं को भी गंभीर तैयारी करके सदन में आना चाहिए ताकि विधेयकों के गुण-दोषों पर गहन मंथन हो सके।  अब  तो भत्ता कमाने के अतिरिक्त कोई और प्रयोजन शेष नहीं दिखता है।

इन सदनों के सामने काई महत्वपूर्ण विधेयक और उनसे जुड़े कई सवाल अभी बरकरार हैं।  संसद में नागरिकों की निजता व डेटा सुरक्षा से जुड़े कई सवालों पर विमर्श की मांग विपक्ष लगातार करता रहा।

वहीं युवतियों की शादी की उम्र बढ़ाने के विधेयक पर कई सवाल विभिन्न राजनीतिक दलों व वर्गों द्वारा उठाये जा रहे थे। संसद की स्थायी समिति को सौंपने के चलते अभी इस विधेयक पर विमर्श की गुंजाइश बची है।

वहीं लखीमपुर खीरीकांड में गिरफ्तार आशीष मिश्रा के खिलाफ लगी धाराओं को एसआईटी की रिपोर्ट के बाद गंभीर धाराओं में बदलने के बाद विपक्ष लगातार गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा को हटाये जाने की मांग करता रहा। विधान सभा और संसद में सत्तापक्ष ने आम  तौर पर मुद्दे को अनसुना करने का नया कीर्तिमान बना दिया है।

सदनों के विभिन्न सत्रों में हंगामे, निलंबन, सत्र बहिष्कार के चलते कामकाज ठप्प होने को भारतीय लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत कतई नहीं कहा जा सकता।

देश के करदाताओं की मेहनत के पैसे का सत्र के विधिवत न चलने से व्यर्थ जाना निस्संदेह चिंता का विषय है। विडंबना है कि धीर-गंभीर पहल के बिना सत्र समय से पहले समाप्त हो रहे हैं।

उभय पक्षों को आत्ममंथन करना चाहिए कि रूलबुक फेंकना, मेजों पर चढ़ना, कागज फाड़कर फेंकना व सुरक्षाकर्मियों से धक्का-मुक्की किस संसदीय परंपरा का हिस्सा है?

लोकतंत्र में विरोध जरूरी है लेकिन जनता की आवाज़ अनसुनी न की जाए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 



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